पिछले सात सालों से उन्हें देश की जोड़ी नंबर वन के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असाधारण दबंग नेता के रूप में और गृहमंत्री अमित शाह ने भाजपा के मुख्य चुनावी रणनीतिकार के रूप में लगभग अविजित का आभामंडल हासिल कर लिया था। हालांकि पिछले महीने इस अच्छे से तैयार छवि को धक्का लगा है। अगर कोविड 2.0 संकट ने प्रधानमंत्री के शासन के तरीके पर गंभीर सवाल उठाए हैं तो बंगाल की हार ने चुनाव जिताने में माहिर अमित शाह की शेखी पंचर कर दी है।
कोविड 2.0 को ही लें। क्या इस बात से इनकार कर सकते हैं कि कोविड बढ़ने के पीछे केंद्र में बैठे राजनीतिक कार्यकारियों की निरंकुशता है? फिर चाहे वह कुंभ मेले जैसी सुपर स्प्रैडर घटना को मंजूरी देना हो, भ्रमित वैक्सीन पॉलिसी हो या ऑक्सीजन सप्लाई में ढिलाई, मोदी सरकार हर मोड़ पर गड़बड़ी की आरोपी है। केंद्र सरकार को काम करने के बार-बार कोर्ट के दखल से उच्च नौकरशाही के कामकाज के तरीकों की विफलता उजागर होती है, ऐसा लगता है कि वह अपने अभिमान और जटिलता के प्रतिध्वनि कक्ष में फंस कर रह गई है।
बंगाल में भी प्रचार से वास्तविकता को भ्रमित करने की कोशिश की गई। भाजपा ने संस्थागत समर्थन और एकतरफा जीत बताने वाले मीडिया के साथ एक सब कुछ जीतने वाली सेना की तरह चुनाव में प्रवेश किया। भाजपा को लगा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आसानी से हार जाएंगी। लेकिन लगता है कि राष्ट्रीय संकट के समय केंद्रीय गृहमंत्री के तौर पर शाह की भूमिका एक आक्रामक पार्टी प्रचारक के आगे कमजोर पड़ गई। गृहमंत्री के तौर पर उन्हें कोविड प्रोटोकॉल पर राज्यों के साथ समन्वय बनाना था, तब उनकी महत्वाकांक्षा विपक्ष शासित राज्य पर कब्जे की थी।
यहां दृष्टिकोण में स्पष्ट दंभ था। यह पहचानने में विफलता थी कि लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव का अलग स्थान है। ‘जय श्री राम’ का उद्घोष 2019 में प्रभावी रहा, वह स्थानीय चुनाव व जमीन से जुड़ी राजनीति में छाप नहीं छोड़ सका। किसी मजबूत और विश्वसनीय बंगाली चेहरे के बिना, ममता के ही सहयोगियों को भाजपा द्वारा फुसलाने से वास्तविक बदलाव के नारे की जमीन पर सीमाओं का पता चल गया। रथों पर सवार एक भाजपा के दबंग नेताओं के सामने एक व्हील चेयर पर अकेली बैठी ममता बनर्जी को देखकर बंगाली उपराष्ट्रवाद भी जागृत हो गया।
तो क्या जोड़ी नंबर वन पीछे हटेगी? हां और नहीं। मोदी सरकार के महामारी से निपटने में विफल रहने की आलोचना के बावजूद, प्रधानमंत्री लोकप्रिय नेता बने हुए हैं। वहीं शाह उत्तर प्रदेश के चुनावी युद्ध की तैयारी में जुट जाएंगे। स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर लोगों में बढ़ते गुस्से को हल्के में लेना राजनीतिक उजड्डता होगी।
जब लोग बुरी तरह से ऑक्सीजन और आईसीयू बेड के लिए संघर्ष कर रहे हों तो उनके कष्टों को दूर करने के लिए सहानुभूति के साथ उन तक पहुंचने की जरूरत है, न कि नौकरशाही वाली उदासीनता के साथ। अभी किसी भी आलोचना को राष्ट्रविरोधी समझने की अधिनायकवादी सोच खतरनाक है।
उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री को मेडिसिन से लेकर विज्ञान से व्यापार से राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय सर्वश्रेष्ठ लोगों को साथ लाकर गलतियां पहचानने और उन्हें ठीक करने से कौन रोक रहा है? क्या यह निर्णय लेने की प्रक्रिया के विक्रेंद्रीकरण और उपयोगी लोगों से संपर्क बनाने आदर्श समय नहीं है? दुर्भाग्य से राजनीति नेतृत्व का दबंग मॉडल गलतियां स्वीकारने और जिम्मेदारी लेने का अनिच्छुक होता है।
जनभावना की कद्र
मोदी और शाह जिम्मेदारी तय करें। जैसे क्या स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन, पिछले महीने यह दावा करके कि देश में पर्याप्त वैक्सीन हैं, बच सकते हैं? एक मंत्री के इस्तीफे या कोर टीम में बदलाव से वायरस तो नहीं रुकेगा, लेकिन यह संकेत जरूर जाएगा कि सरकार जनभावनाओं के प्रति संवेदनशील है। देश जानना चाहता है कि इस अकल्पनीय आपदा से कौन उबारेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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