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रीतिका खेड़ा का कॉलम:पिछले साल महामारी पर प्रतिक्रिया में डर और गंभीरता नजर आ रही थी, इस बार सरकार का रवैया ढुलमुल

2 वर्ष पहले
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रीतिका खेड़ा, अर्थशास्त्री, दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं - Dainik Bhaskar
रीतिका खेड़ा, अर्थशास्त्री, दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं

करीब एक साल पहले, लगभग इसी समय देश को सबसे बड़ा आर्थिक झटका लगा था, नोटबंदी से भी बड़ा। कुछ ने इसकी तुलना उत्तर भारत में बंटवारे के दौरान हुई पीड़ा से की। उस समय, जब सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने का प्रयास कर रही थी, कई अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक झटका झेल रहे लोगों की मदद के लिए सुझाव दिए थे। दु:खद यह है कि एक साल बाद, जब महामारी फिर अनियंत्रित हो रही है, उन सुझावों में से शायद ही किसी सुझाव को लंबी अवधि की नीति के रूप में अपनाया गया।

कोरोना पर प्रतिक्रिया स्वरूप सरकार ने 3 हफ्तों का संपूर्ण लॉकडाउन किया था। बिना योजना के इस लॉकडाउन ने उन लाखों जिंदगियों में आर्थिक तबाही ला दी, जो अनौपचारिक क्षेत्र से थे। एंप्लॉयमेंट-अनएंप्लॉयमेंट सर्वे, 2015-16 के मुताबिक भारत की 80% से ज्यादा वर्क फोर्स अनौपचारिक सेक्टर में काम करती है। पिछले साल सरकार को पहले से योजना न बनाने के लिए माफ कर सकते हैं। इस साल उसके पास कोई बहाना नहीं है।

पिछले साल जहां महामारी पर प्रतिक्रिया में डर और गंभीरता नजर आ रही थी, इस साल उसका रवैया ढुलमुल दिख रहा है। देश के कई शहरों में स्थानीय लॉकडाउन किए जा रहे हैं। यही समय है कि पिछले साल के राहत उपायों की मांग फिर दोहराई जाए। पिछले साल जिन राहत उपायों की घोषणा हुई थी, उनमें बड़ी कमी थी शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले प्रवासी, जिनके घर ग्रामीण क्षेत्रों में थे। लॉकडाउन के कारण कई काम के बिना फंस गए थे। कुछ के सिर पर तो छत तक नहीं थी।

इस बार राहत उपायों के तहत केंद्र सरकार भोजन के लिए भारतीय खाद्य निगम के जरिए अनाज और दाल सप्लाई कर सकती है। प्रवासी इसका इस्तेमाल कर सामुदायिक रसोई (जैसे तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन, कर्नाटक में इंदिरा कैंटीन आदि) चला सकते हैं। इनका कामगार स्वयं प्रबंधन कर सकते हैं और उनकी कुछ कमाई भी हो सकती है। नई सामुदायिक रसोई स्थापित करने के लिए रेलवे स्टेशनों और बस स्टेशनों को, और ग्रामीण क्षेत्रों में खंड मुख्यालयों को लक्ष्य करना चाहिए।

सामुदायिक संक्रमण की आशंका कम करने के लिए ऐसी रसोइयों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए, ताकि इनमें प्रवेश पर नियंत्रण कर सकें। आगे जाकर केंद्र सरकार को इसे बतौर केंद्रीय योजना चलाना चाहिए जैसे मिड-डे मील योजना या जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) चलती हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बाद पीडीएस के तहत एक तिहाई आबादी आती है। यह प्राथमिकता वाले परिवारों को ₹1-3 रु. प्रति किलो में प्रतिमाह 5 किग्रा अनाज देती है।

अंत्योदय परिवारों को 35 किग्रा प्रतिमाह अनाज मिलता है। पिछले साल केंद्र सरकार ने ‘प्राथमिकता’ वाले कार्डधारकों को मिलने वाला पीडीएस राशन दोगुना कर समझदारी दिखाई थी। इसकी शुरुआत तीन महीने से हुई, फिर नवंबर तक के लिए इसे बढ़ाया गया था। सरकार के पास अनाज का विशाल भंडार है और कई सर्वे बेरोजगारी और भूख की ओर इशारा करते हैं, फिर भी सरकार ने यह राहत बंद कर दी। पिछले साल राशन दोगुना करने से 80 करोड़ राशन कार्डधारकों को राहत मिली थी।

इसे तुरंत दोबारा शुरू करना चाहिए। पीडीएस के तहत अभी सिर्फ 80 करोड़ लोग आते हैं। पिछले साल हमने देखा कि शहरी क्षेत्रों में फंसे कई कामगारों के पास राशन कार्ड नहीं था, न शहर में, न ही गांव में। इससे पता चलता है कि पीडीएस के विस्तार की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे सार्वभौमिक बनाना चाहिए। इसकी जगह सरकार ‘वन नेशन, वन राशन कार्ड’ पर जोर दे रही है।

यह उपाय उन्हें नुकसान पहुंचाएगा जो पीडीएस का हिस्सा हैं (क्योंकि यह आधार पर निर्भर होगा) और उन्हें लाभ नहीं मिलेगा जो पीडीएस से बाहर हैं (अगर आपके पास राशन कार्ड नहीं है, तो पोर्टेबिलिटी मदद नहीं कर सकती)। गरीबों के लिए इससे भी राहत मिली थी कि ‘आधार आधारित बायोमेट्रिक सत्यापन’ (एबीबीए) को बंद कर दिया गया था।

इसे उन राज्यों में फिर बंद करना चाहिए, जिन्होंने इसे जारी रखा था। कम से कम दो अध्ययन बताते हैं कि एबीबीए से भ्रष्टाचार कम करने में कोई मदद नहीं मिली और इसने खरीद की लागत और अपवर्जन बढ़ाकर स्थिति खराब ही की है। यह स्पष्ट है कि क्या करना चाहिए। अब देखना यह है कि क्या सरकार यह कदम उठाती है या नहीं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)