‘खोद खाद धरती सहै, काट कूट बनराय। कुटिल बचन साधू सहै, और से सहा न जाय’। धरती सब सहती है, कितना ही उसे खोदो। जंगल को कितना ही चीर दो, वह भी सब सह लेता है। इसी तरह दुर्जनों के कठोर वचन साधु-संत सह लेते हैं, हर कोई नहीं सह पाता। तो एक साधु में ऐसा क्या होता है कि वह कठोर वचन भी सह लेता है? देखने की दृष्टि, सुनने की समझ और सहने की गहराई..। इन बातों-बातों का फर्क है। सामान्य मनुष्य बाहर की घटनाओं को मस्तिष्क तक लेता है और वाणी से बाहर निकाल देता है।
लेकिन, साधुजन उन्हीं घटनाओं को भीतर भावना से जोड़ते हैं। भावना आत्मा में बसती है। तो साधु हर बात आत्मा तक ले जाते हैं और उनका मानना होता है कि जो आत्मा मेरे भीतर है, वैसी ही एक आत्मा सामने वाले के भीतर है।
चूंकि उसी आत्मा से लगा हुआ परमात्मा है, तो यदि मुझमें परमात्मा है तो इसमें भी है। यदि मैं उससे द्वेष करता हूं तो समझो अपने ही परमात्मा से द्वेष कर रहा हूं। मतलब साधु के सारे प्रयास आत्मा से जुड़े होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है- क्रोध, द्वेष, भय, शठता, चुगली और कुटिलता का त्याग करें। ये चीजे छूटती हैं आत्मा तक जाने पर। यदि आत्मा पर टिकना सीख गए तो फिर साधु का आवरण जरूरी नहीं है। फिर तो आप आचरण से साधु हो जाएंगे..।
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