क्या मिट्टी की आवाज कुर्सी तक पहुंचेगी? किसान यह सवाल सत्ता से पूछ रहे हैं। एक ओर देशभर में जगह-जगह महापंचायत हो रही हैं, तरह-तरह की यात्राएं हो रही हैं। आज भी हजारों किसान दिल्ली के बाहर डेरा डालकर बैठे हैं। दूसरी ओर सत्ता चुनाव के खेल में व्यस्त है। दरबारी मीडिया इस आंदोलन को मृतप्राय घोषित करने पर तुला है।
ऐसे में किसानों ने अनूठे तरीके से अपने सवाल फिर सत्ता के सामने रख दिए हैं। 30 मार्च से 6 अप्रैल तक किसान संगठनों ने दिल्ली में चल रहे अनिश्चितकालीन आंदोलन के समर्थन में ‘मिट्टी सत्याग्रह यात्रा’ आयोजित की।
यात्रा का मकसद था तीन किसान विरोधी कानूनों को रद्द करना और सभी कृषि उत्पादों की एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी की मांग के प्रति जागरूकता फैलाना। सत्ता के सामने इतिहास के कुछ बड़े सबक रखने के लिए इस सत्याग्रह ने इतिहास के प्रतीकों का सहारा लिया।
महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह की धरती दांडी (गुजरात) से शुरू होकर यह यात्रा राजस्थान, हरियाणा, पंजाब होते हुए दिल्ली की सीमा पर किसानों के सभी मोर्चों पर पहुंची। देशभर से 23 राज्यों के 1500 गांवों की मिट्टी लेकर किसान संगठनों के साथी इस यात्रा से जुड़े।
इसमें शहीद भगत सिंह के गांव खटखटकलां, शहीद सुखदेव के गांव नौघरा, उधमसिंह के गांव सुनाम, शहीद चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाभरा, मामा बालेश्वर दयाल की समाधि बामनिया, साबरमती आश्रम, असम में शिवसागर, पश्चिम बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम, कर्नाटक के वसव कल्याण बिलारी, उड़ीसा के आदिवासी नेता शहीद लक्ष्मणराव के गांव गैरबोई शामिल थे। मेधा पाटकर के नेतृत्व में निकाली गई इस यात्रा में किसान संघर्ष से जुड़े ऐतिहासिक स्थानों की मिट्टी भी लाई गई थी।
इनमें मध्य प्रदेश में मुलताई, जहां 24 किसानों की गोलीचालन में शहादत हुई, मंदसौर में 6 किसानों के शहादत स्थल, ग्वालियर में वीरांगना लक्ष्मीबाई के शहादत स्थल, छतरपुर के चरणपादुका जहां गांधी जी के असहयोग आंदोलन के समय 21 आंदोलनकारी शहीद हुए, शामिल थे।
शहीदों की भूमि की मिट्टी लेकर इस यात्रा ने दिल्ली के चारों तरफ किसानों के मोर्चों पर शहीद किसान स्मारक स्थापित किए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इनमें से कुछ स्मारक इस आंदोलन के बाद भी कायम रहेंगे और देश को किसानों की शहादत की याद दिलाएंगे।
मिट्टी के इस प्रतीक के माध्यम से किसान सत्ता को तीन संदेश दे रहे हैं। पहला संदेश यह कि मिट्टी के रंग को देखो। देशभर के खेत खलिहान की मिट्टी यह मांग करती है कि सत्ता इसकी विविधता को पहचाने। जब राजस्थान की सुनहरी रेतीली मिट्टी महाराष्ट्र के पठार की काली और चिकनी मिट्टी से मिलती है, तो वह याद दिलाती है कि इस देश में कुछ भी एक रूप नहीं है।
हर इलाके की मिट्टी का रंग, रूप, गुण अलग है। वैसे ही जैसे हर हिंदुस्तानी की भाषा, भूषा और भोजन अलग है। मिट्टी का पहला सबक यह है कि इस देश को एक रंग में रंगने की कोशिश यहां की जमीन को स्वीकार नहीं होगी। मिट्टी की तासीर को समझे बिना उस पर पेड़-पौधा तो खड़ा किया जा सकता है, लेकिन उसमें फल नहीं लगेगा। इस देश की एकता की बुनियाद एकरूपता में नहीं बल्कि अनेकता में है।
मिट्टी सत्याग्रह का दूसरा संदेश है, किसान से माटी का मान करना सीखो। कुर्सी को अपने इर्द-गिर्द पड़ी मिट्टी सिर्फ कचरे की तरह दिखती है। इसलिए कुर्सी चाहती है कि इसे झाड़ू से बुहार कर नजरों से ओझल कर दें। कभी-कभी सत्ता को मिट्टी पूंजी की तरह नजर आती है। इसलिए सरकार मिट्टी की जांच करने के लिए सॉयल हेल्थ कार्ड बनवाती है। लेकिन किसान को मिट्टी मां की तरह नजर आती है। किसान इस मिट्टी को पूजते हैं, इसका तिलक लगाते हैं। जो भी उनसे माटी छीनने की कोशिश करेगा, किसान जी जान से उसके खिलाफ लड़ेंगे, नफा नुकसान देखे बिना संघर्ष करेंगे।
मिट्टी सत्ता को सबक देती है कि किसानों का आंदोलन सिर्फ उनकी जमीन बचाने का संघर्ष नहीं है, यह उनका ज़मीर बचाने का संघर्ष है। मिट्टी सत्याग्रह का तीसरा संदेश है कि अहंकार में चूर सत्ता का एक दिन चकनाचूर होना तय है। मिट्टी हमें याद दिलाती है कि हम सबको एक दिन मिट्टी में मिलना है।
कबीर ने कभी कुम्हार के बहाने सत्ता के अहंकार को ललकारा था: ‘माटी कहे कुम्हार से तू कित रौंदे मोय/ इक दिन ऐसा आएगा मैं रौदूंगी तोय’। जब भी जहां भी सत्ता असीम और अमर्यादित हो जाती है तो माटी ही उसको औकात बताती है।
बड़े से बड़े तानाशाह को भी जनता ने धूल चटा दी है। आज किसान भी सत्ता को कह रहा है: आज भले ही तू मुझे रौंद ले, लेकिन मैं भी तुझे एक दिन मिट्टी में मिलाने की ताकत रखता हूं। मिट्टी सत्याग्रह के बहाने किसान दिल्ली के चारों कोनों पर यह गहरे संदेश छोड़ गए हैं। क्या चुनाव के खेल में जुटी सत्ता को इस इबारत को पढ़ने की फुरसत है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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