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एक वर्ष अमेरिका में हजारों टन अनाज समुद्र में डुबो दिया गया ताकि बाजार में अनाज के दाम बने रहें और पूंजीवाद पुष्ट होता रहे। आज अन्य कारणों से पंजाब में खड़ी फसल रौंदी जा रही है। सारा प्रयास यह है कि कृषि व्यवसाय कॉरपोरेट हाथों में नहीं जा पाए और अवाम तक पहुंचते हुए अनाज महंगा न हो जाए। फिल्मों के निर्माण में पहली कॉरपोरेट ‘कलकत्तता न्यू थिएटर्स’ नामक कंपनी थी।
हिमांशु राय और देविका रानी ने ‘बाम्बे टॉकीज’ का गठन किया। उस समय फिल्म कॉरपोरेट बनाने का उद्देश था कि आधुनिक उपकरणों का आयात करके फिल्मों की गुणवत्ता को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया जा सके। वर्तमान कॉरपोरेट अवतार केवल लाभ कमाने को रचे गए हैं। मुसाफिरों के विश्राम के लिए सराए बनाई गईं जिनका आधुनिक स्वरूप 5 सितारा होटल हैं। इन होटलों में काम करने वाले कर्मचारी कम वेतन पाते हैं।
मुसाफिर धनाड्य वर्ग के हैं या सरकार एवं कॉरपोरेट खर्च पर रहने वाले अफसर हैं। दरअसल 5 सितारा होटल में तीनों आर्थिक वर्ग के लोग मौजूद हैं। अमीर मेहमान, परजीवी अफसर, पढ़े-लिखे अकाउंटेंट, मैनेजर और वेटर तथा किचन में कार्यरत गरीब लोग। ऑर्थर हेले के उपन्यास ‘द होटल’ पर फिल्म बन चुकी है। शंकर रचित ‘चौरंगी लेन’ में एक कैबरे करने वाली अपने बौने भाई की खातिर अंग प्रदर्शन वाला नृत्य प्रस्तुत करती है।
उसके प्रादर्श में उसका सगे भाई के संग नृत्य के बहाने व्यक्तिगत अंतरंगता प्रस्तुत की जाती है और भद्र लोग तालियां पीटते हैं। होटल में एक बैंड भी है। सारे कर्मचारी देर रात छत पर एकत्रित होकर अपना दर्द बांटते हैं। किचन में कार्यरत सेवक का बेटा बीमार है और उसे पौष्टिक आहार की आवश्यकता है। किचन में तंदूरी मुर्ग पकते हैं, कबाब बनाए जाते हैं।
उसका प्रयास है कि तंदूरी मुर्ग का एक हिस्सा बालक के लिए ले जा सके परंतु हर कर्मचारी की तलाशी ली जाती है क्योंकि चांदी के चम्मच और कटोरियां चोरी जा सकती हैं। तंदूरी मुर्ग चोरी के प्रयास में वह पकड़ा जाता है। मेहमानों द्वारा कम खाया और अधिक फेंका हुआ भोजन इनसिनेटर में जलाया जाता है। एक तरफ असीमित जूठन है, दूसरी तरफ भूख है।
दूध के बर्तन में जमी खुरचन भी गरीब के नसीब में नहीं है। नसीब की रचना ही एक षडयंत्र है। तमाशबीन ही स्वयं तमाशा बनकर तालियां पीट रहा है। अनाज के एक दाने पर अनेक श्लोक भी लिखे गए हैं। इसे संग्रहालय में रखा जा सकता है परंतु खाया नहीं जा सकता। व्यवस्था में ही घुन लग चुकी है। अंतड़ियों में अमीबा ने सिस्ट बना लिया है। इस टूट-फूट के दौर में भी समाज की पुनर्रचना की प्रक्रिया जारी है।
अविश्वसनीय मंजर है कि एक चिकित्सालय की छत से गोलियां चलाई जा रही हैं और उसके निशाने पर कौन है। मैक्सिम गोर्की ने कहा था कि बंदूक की गोली कहीं भी बनी हो, ट्रिगर पर किसी की भी उंगली रखी हो परंतु हर गोली किसी मां के हृदय पर लगती है। वह अपने पुत्र, पति या पिता को खोती है। पूरा घटनाक्रम कैमरे से लिया गया है परंतु कैमरे भी झूठ बोल सकते हैं।
ट्रिक फोटोग्राफी विकसित हो गई है। ऐसे कैमरे भी बने हैं कि मंत्रीजी के भाषण को सुनने मात्र दर्जनभर लोग आए हैं परंतु टेलीकास्टिंग में हजारों की भीड़ दिखाई जा सकती है। एक फिल्म में अंधे पात्र को खाली मैदान ले जाया जाता है। उसे यकीन दिलाया जाता है कि हजारों लोग उसे सुन रहे हैं और तालियां बजा रहे हैं। सबकुछ टेपरिकॉर्डर द्वारा किया जा रहा है। मैदान खाली है।
बहरहाल शैलेंद्र का गीत है, ‘सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम, ओ आसमां तू बड़ा मेहरबान, आज तुझको दावत खिलाएंगे हम, चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है, गरमा-गरम रोटियां कितना हंसी ख्वाब है।’
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