पश्चिम के शैक्षणिक संस्थानों द्वारा भारत की शिक्षा प्रणाली व संस्कृति पर हमला नई बात नहीं है, लेकिन अब उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से आईआईटी को निशाने पर लिया है। हार्वर्ड में मानव विज्ञान की प्रोफेसर अजंता सुब्रह्मण्यम् ने अपनी पुस्तक ‘दि कास्ट ऑफ मेरिट : इंजीनियरिंग एजुकेशन इन इंडिया’ में आईआईटी पर जातिगत उत्पीड़न का आरोप लगाया है।
उनके तर्क का मूल आधार यह है कि आईआईटी की संरचना ऊंची जातियों के पक्ष में है और पिछड़ी जातियों के प्रति वह दमनकारी है। वे इसकी जड़ भारत में ब्रिटिश शासन के समय में ढूंढती हैं। अंग्रेजों के आने से पहले इंजीनियरिंग को एक व्यावहारिक कार्य माना जाता था, जो पिछड़ी जाति के लोगों के लिए उपयुक्त और लाभकारी था।
यह ब्रिटिश काल के दौरान बदल गया। क्योंकि उन्होंने इंजीनियरिंग के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं को विभाजित कर दिया। सवर्णों ने सैद्धांतिक पक्ष को हथिया लिया और पिछड़ी जातियों के लिए केवल व्यावहारिक काम रह गया। यह कुछ हद तक सही है। यह सार्वभौमिक सच है कि परंपरागत रूप से भारत में कला, शिल्प, कारीगरी और कई प्राचीन परंपराओं का तकनीकी ज्ञान पिछड़ी जाति के लोगों के पास था।
मेरी संस्था इन्फिनिटी फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ नामक पुस्तक शृंखला में पिछड़ी जाति के कई लोगों के कौशल का दस्तावेजीकरण किया गया है। हालांकि प्रो. सुब्रह्मण्यम् यह उजागर करने में विफल रही हैं कि आजादी के बाद से सुधारात्मक उपाय करने के लिए भारत सरकार द्वारा पहल की कमी रही है। ब्रिटिश प्रणाली ब्राह्मणों को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं बनाई गई थी, बल्कि इसका उद्देश्य क्लर्कों की एक ऐसी फौज विकसित करना था, जो उन्हें देश पर शासन करने में मदद करे।
अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने के बजाय स्वतंत्रता के बाद सभी सरकारों ने इसे जारी रखा। इसके परिणामस्वरूप व्यावहारिक स्तर पर कौशल का नुकसान हुआ है। दूसरी ओर कम्प्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग के विस्तार ने सैद्धांतिक पक्ष का और विस्तार किया है, जिससे इस क्षेत्र में अतिरिक्त अवसर पैदा हुए हैं।
प्रायोगिक कौशल और योग्यता पर आधारित मानव पूंजी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। सुब्रह्मण्यम् का तर्क है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति को ठीक करने का तरीका आईआईटी को खत्म करना है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उत्कृष्टता के ये केंद्र प्रतिभाशाली तकनीकी लोगों को पैदा करते हैं।
उनके लिए यह भी मायने नहीं रखता कि ये संस्थाएं विश्व में ब्रांड इंडिया का महत्त्व बढ़ा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे वे भारत में या सिलिकॉन वैली में आईआईटी के लोगों की सफलता को बर्दाश्त नहीं कर सकी हैं। उनके अनुसार यह ब्राह्मण शक्ति का विस्तार है। वे प्रवेश परीक्षा को ही दिखावा घोषित करती हैं।
सुब्रह्मण्यम् की आईआईटी को लेकर उठाई गई समस्या और उनके द्वारा प्रस्तावित समाधान मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ा है। मार्क्सवाद लाने के लिए आपको मौजूदा संरचनाओं को नष्ट करने की आवश्यकता होती है ताकि नए के लिए रास्ता बनाया जा सके।
चूंकि आईआईटी अच्छी तरह से स्थापित संरचनाएं हैं, इसलिए वे उनके विनाश का आह्वान कर रही हैं। झूठ के आधार पर भारत की छवि को धूमिल किया जा रहा है और छात्रों के मन में भारत की सामाजिक व्यवस्था के प्रति जहर भरा जा रहा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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