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थॉमस एल. फ्रीडमैन का कॉलम:असल मुद्दा यह है कि अगर अमेरिका युद्ध में गम्भीरता से रुचि नहीं लेता है तो क्या होगा

2 महीने पहले
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थॉमस एल. फ्रीडमैन तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार - Dainik Bhaskar
थॉमस एल. फ्रीडमैन तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार

यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई की पहली वर्षगांठ निकट आ रही है। ऐसे में यह सवाल जरूरी है कि ऐसा कैसे सम्भव है कि 23 फरवरी 2022 को अमेरिका में कोई भी यह नहीं कह रहा था कि एक ऐसा देश- जिसे अमेरिकी दुनिया के नक्शे पर खोज भी नहीं सकते- की मदद करने के लिए उन्हें रूस के साथ अप्रत्यक्ष युद्ध में शामिल होना चाहिए, और इसके बावजूद आज जब उस घटना को एक साल पूरा हो रहा है तो विभिन्न पोल्स बताते हैं कि बहुसंख्य अमेरिकी नागरिक यूक्रेन को सैन्य मदद जारी रखने का समर्थन करते हैं? जबकि वे भलीभांति जानते हैं कि इसका मतलब व्लादीमीर पुतिन के रूस से सीधी लड़ाई का खतरा मोल लेना है।

अमेरिका के पब्लिक-ओपिनियन में आया यह बदलाव चकराने वाला है। शायद इसका एक कारण यह हो सकता है कि आज यूक्रेन में अमेरिकी फौजें तैनात नहीं हैं और हम वहां केवल अपने हथियारों और पूंजी को ही दांव पर लगा रहे हैं। युद्ध की मार तो यूक्रेनी झेल रहे हैं। लेकिन एक और कारण यह भी हो सकता है कि बहुतेरे अमेरिकी जानते हैं आज हम जिस दुनिया में रहते हैं, उसमें अमेरिका का हस्तक्षेप मायने रखता है।

इसका यह मतलब नहीं है कि अमेरिका ने हमेशा ही अपनी ताकत का समझदारी से इस्तेमाल किया है या वह अपने सहयोगी-देशों के बिना भी सफल हो सकता था। लेकिन 1945 के बाद से ही अमेरिका ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक लिबरल विश्व-व्यवस्था का सफलतापूर्वक निर्माण किया है, जो आर्थिक और भू-राजनीतिक, दोनों ही रूपों में अमेरिका के हित में रहा है।

यह एक ऐसी विश्व-व्यवस्था है, जिसमें नाजी जर्मनी, इम्पीरियल जापान या आधुनिक रूस और चीन अपने पड़ोसियों को बेखटके हजम नहीं कर सकते। यह वह विश्व-व्यवस्था भी है, जिसमें पहले की तुलना में ज्यादा देशों में लोकतांत्रिक प्रणाली संचालित हो रही है और जहां मुक्त-बाजार प्रणाली ने दुनिया के इतिहास में सर्वाधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है।

इसी के चलते बीते 80 सालों में हमने ऐसा कोई बड़ा युद्ध नहीं देखा है, जो दुनिया को अस्थिर कर दे। इस लिबरल-व्यवस्था को कायम रखने के लिए ही अमेरिका और नाटो-देश यूक्रेन की मदद के लिए आगे बढ़े थे। याद रखें कि अतीत में हुए दोनों विश्व-युद्धों में अमेरिका आत्मरक्षा के लिए नहीं, बल्कि विश्व-व्यवस्था के बचाव के लिए शामिल हुआ था।

सच कहें तो युद्ध का पहला साल अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए इतना कठिन नहीं रहा। लेकिन क्या दूसरा साल भी इतना ही आसान रहेगा? अब यह साफ हो चुका है कि पुतिन ने पहले से अधिक मजबूत प्रहार करने का मन बना लिया है और वे युद्ध की पहली सालगिरह मनाने के लिए पांच लाख नए सैनिकों की तैनाती कर रहे हैं।

एक मायने में पुतिन बाइडेन से कह रहे हैं कि मैं यह लड़ाई हार नहीं सकता और मैं इसे जीतने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हूं। लेकिन तुम और तुम्हारे यूरोपियन दोस्तों के बारे में क्या? क्या तुम भी अपने लिबरल ऑर्डर को कायम रखने के लिए इतनी कुर्बानियां देने के लिए तैयार हो? यह एक डरावना परिदृश्य है और 1962 के क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के बाद पहली बार दुनिया में अमेरिका की भूमिका का कड़ा परीक्षण होने जा रहा है।

इस चुनौती को ऐतिहासिक संदर्भ में पेश करती ब्रुकिंग इंस्टीट्यूट के इतिहासकार रॉबर्ट कागन की एक महत्वपूर्ण किताब है, ‘द घोस्ट एट दि फीस्ट : अमेरिका एंड द कलैप्स ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर 1900-1941’। इसमें कागन कहते हैं कि पिछली एक सदी में अलगाववादियों का जो भी रुख रहा हो, पर अधिकांश लोगों का सोचना है कि अमेरिका की ताकत का इस्तेमाल एक उदार दुनिया काे आकार देने में होना चाहिए।

मैंने कागन से पूछा कि वह यूक्रेन युद्ध को क्यों अमेरिकी विदेश नीति के नैसर्गिक विस्तार के रूप में देख रहे हैं? कागन ने कहा कि 1939 में जब अमेरिकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं था- हिटलर ने पोलैंड पर हमला नहीं किया था और फ्रांस के घुटने टेकने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था- तब रूजवेल्ट ने जोर देकर कहा था कि सिर्फ अपना घर बचाने की बात नहीं है, उनकी सभ्यता, सरकार और चर्च या मानवता जिस नींव पर टिकी है, उसे बचाने की तैयारी करो। मौजूदा युद्ध में यूक्रेन का समर्थन करना न सिर्फ हमारे रणनीतिक हित में है, बल्कि वह हमारे उदार मूल्यों के लिए भी जरूरी है।

पुतिन बाइडेन से कह रहे हैं कि मैं यह लड़ाई हार नहीं सकता और मैं इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हूं। लेकिन तुम और तुम्हारे दोस्तों के बारे में क्या? क्या तुम भी कुर्बानियां देने के लिए तैयार हो?

(‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ से)