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देवेंद्र भटनागर का कॉलम:आज सिर्फ सांसें नहीं, लोगों का भरोसा भी टूट रहा और हालात बिगड़ें, उससे पहले चेत जाइए

2 वर्ष पहले
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देवेंद्र भटनागर, स्टेट एडिटर, दिव्य भास्कर, गुजरात - Dainik Bhaskar
देवेंद्र भटनागर, स्टेट एडिटर, दिव्य भास्कर, गुजरात

सियासत इस कदर अवाम पे एहसान करती है, पहले आंखें छीन लेती है, फिर चश्मे दान करती है।
देश में कोरोना की पहली लहर तो बिन बुलाए आई थी। लेकिन दूसरी बाकायदा बुलाई गई है। सत्ता की मादक गंध में फंसे सर्वशक्तिमान चुनावी रैलियों में झोली भर-भरकर संक्रमण बांट रहे हैं। कोरोना भीड़ की वजह से ज्यादा संक्रमण फैलाता है। ये हम गुजरात, महाराष्ट्र में देख चुके हैं। बंगाल, तमिलनाडु, असम में देख रहे हैं, लेकिन दुख और हैरत है कि जिन लोगों पर इन्हें रोकने की जिम्मेदारी है, वो खुद इसका नेतृत्व कर रहे हैं।

सारी जवाबदारियां, सारी जिम्मेदारियां कोने में सिमटकर रह गई हैं। चुनावों को क्लीन चिट देने वाले, क्रिकेट के मैदानों को भीड़ से भरने वाले आज कोरोना रोकने के लिए चिंतन कर रहे हैं। घंटों लाइन में लगने के बावजूद लोगों को इंजेक्शन नहीं मिल रहा। ऑक्सीजन के सिलेंडर खत्म हो गए। मरीज तड़प रहे हैं। बेड बचे नहीं। हालात की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाइए कि पहले कोई बीमार होता था तो हम दुआएं करते थे कि जल्दी ठीक हो जाए। लेकिन अब अस्पताल जाकर बेड मांगने वाला दुआ मांगता है कि किसी के प्राण निकल जाएं ताकि उसे बेड मिल जाए।

श्मशानों में चिताओं की कतारें हैं। दरअसल, आदमी आज कोरोना से उतना नहीं मर रहा, जितना सरकारों की लापरवाही और असंवेदनशीलता से मर रहा है। बचपन से एक बात सुनते आए हैं कि किसी भी समस्या का एक ही इलाज है- या तो उसके खिलाफ लड़िए। या उसे देखकर आंखें मूंद लीजिए। फिलहाल हमारी सरकार लड़ने के बजाय आंखें मूंदने में ज्यादा विश्वास कर रही है। इन्हें लगता है कि जैसे देश की समस्याओं को उन्होंने गायब कर दिया, एक दिन कोरोना भी वैसे ही गायब हो जाएगा।

सारी समस्या ही यही है। हमें इटली, अमेरिका, ब्रिटेन से सीखना चाहिए। पिछली लहर में वहां हालात बेकाबू थे। अस्पताल भरे थे। रोज हजारों मौतें हो रही थीं। लेकिन आज स्थिति काफी संभली हुई है। उन्हें अपने लोगों की जिंदगी की चिंता थी। इसलिए उन्होंने गंभीरता दिखाई। मास्क, डिस्टेंसिंग का पालन कराया। वैक्सीनेशन में अकल्पनीय तेजी दिखाई। जब वैक्सीन पर सवाल उठ रहे थे, तब भी उन्होंने वैक्सीनेशन नहीं रोका।

ये महामारी है। हालात बुरे हैं, लेकिन ये अति बुरे हों, उससे पहले चेत जाइए। आज गुजरात में 6 हजार केस रोज आ रहे हैं, लेकिन अस्पतालों में न बेड बचे, न ऑक्सीजन। कल्पना कीजिए। कल केस की संख्या 10 हजार हो गई तो क्या होगा? यही स्थिति मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र की है। कैसे बचाएंगे हम अपनों को? ऐसा नहीं है कि सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है। आम जनता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। हम ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि हालात बेहद खराब हो चुके हैं।

जो खबरें, तस्वीरें हमारे सामने आ रही हैं, हम उन्हें देखकर भी हकीकत नहीं समझ पा रहे हैं। अगर कोरोना से जीतना है तो हमें नियंत्रण से बाहर होती जा रही परिस्थिति को समझना होगा। देश में रोज डेढ़ लाख से ज्यादा केस आ रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर कुंभ में लाखों की भीड़ हो रही है। धर्म, श्रद्धा अच्छी बात है। इसका कोई विरोध नहीं। लेकिन क्या आज जिंदगी से ज्यादा जरूरी श्रद्धा हो गई है?

सवाल यह भी है कि क्या चुनावी रैलियों और कुंभ मेले में केवल वही पहुंच रहे हैं, जिनके पास कोरोना निगेटिव प्रमाण-पत्र हैं? जब मास्क लगाने के साथ-साथ सोशल डिस्टेंसिंग का पालन भी जरूरी है तब क्या ऐसे आयोजन बेपरवाही के साथ होते रहना चाहिए? जिंदा रहे तो कुंभ फिर देख लेंगे। चुनावी रैलियां फिर कर लेंगे। आज हमारी जरूरत सिर्फ जिंदा रहना है।

विश्व गुरु का सपना देखने वाला और दुनिया को वैक्सीन देने वाला हमारा भारत देश ऐसी लापरवाहियों से आखिर दुनिया को क्या संदेश देना चाहता है? आपको, इस दंभ से निकलना चाहिए कि आप जो कर रहे हैं, वही सही है। लोग मर रहे हैं, उन्हें बचाइए। हमने आपको बहुत भरोसे के साथ चुना है। सिर्फ हमारी टूटती सांसे नहीं, हमारा टूटता भरोसा भी बचाइए। मौजूदा हालातों को देखकर एक मशहूर शे’र याद आ रहा है- दूर से देखके गर्मी में रेत को पानी समझ लिया....कुछ अच्छे लोगों ने अहंकार में खुद को सर्वज्ञानी समझ लिया।