सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग का गठन करने के नियम बदल दिए हैं। अब प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायाधीश को मिलाकर बनी कमेटी जिन नामों की सिफारिश करेगी, राष्ट्रपति उन्हीं में से आयोग के मुखिया और उनके सहयोगी आयुक्तों को चुनेंगे।
हम सभी को उम्मीद हो चली है कि इन नई प्रक्रिया से यह आयोग अधिक स्वायत्त, स्वतंत्र और सरकारी दबावों से मुक्त बनेगा। यह हमारे लोकतंत्र के लिए एक खुशखबरी है। जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 324 में पहले से ही दर्ज था, यह व्यवस्था तब तक चलती रहेगी जब तक संसद आयोग के गठन के बारे में कानून नहीं बना देती।
यहां सोचने की बात यह है कि अगर संसद पिछले तिहत्तर सालों में अपनी यह जिम्मेदारी निभा देती तो सुप्रीम कोर्ट को यह हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं पड़ती। जाहिर है कि न इस सरकार और न ही किसी और सरकार ने इस बारे में पहलकदमी लेने की कोशिश की।
यह हालत निर्वाचन आयोग के गठन की ही नहीं है, बल्कि चुनाव सुधारों के समग्र प्रश्न की भी है। चुनाव प्रक्रिया को बेहतर बनाने, चुनाव प्रणाली में सुधार लाने, उसमें खर्च होने वाली रकम के नियमन में, उस पर से बाहुबल-धनबल-जातिबल का रुतबा हटाने के मामले में दिया गया हर सुझाव ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा है।
चुनाव-सुधारों की जरूरत की ओर सबसे पहले सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण का ध्यान गया था। उन्होंने न्यायमूर्ति वी.एम. तारकुण्डे की अगुआई में एक समिति गठित की, जिसकी रपट 1975 में सामने आई। इसके बाद से कई कमेटियों, आयोगों और अध्ययनों का सिलसिला शुरू हो गया। 1990 में दिनेश गोस्वामी कमेटी गठित की गई।
1998 में इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने मुख्य रूप से चुनाव में खर्च होने वाले धन की समस्या पर विचार किया। 1999 में विधि आयोग ने 170 पृष्ठ की रपट जारी की, जिसमें व्यापक चुनाव सुधारों की सिफारिशें की गई थीं। निर्वाचन आयोग भी अस्सी के दशक से ही चुनाव सुधारों के लिए तरह-तरह की पहलकदमियां लेता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों ने भी कई पहलुओं से चुनाव-प्रक्रिया को सुधारा है।
विरोधाभास यह है कि इन प्रयासों के बावजूद चुनाव-प्रक्रिया से धनबल, बाहुबल और अपराधीकरण को बहिष्कृत नहीं किया जा सका है। इसका सबसे बड़ा कारण है दलों की हिचक, जिससे भारतीय लोकतंत्र निर्वाचन की आदर्श संरचनाओं से दूर बना हुआ है।
जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 की उपधारा (1) का ताल्लुक चुनाव में होने वाले खर्चे से है। मूलत: इसका मतलब था उम्मीदवार के दोस्तों और रिश्तेदारों या उसके एजेंटों द्वारा किए जाने वाले व्यय को भी खर्च सीमा के तहत लाना। खर्च सीमा के उल्लंघन का अर्थ था चुनाव लड़ने पर छह साल की पाबंदी।
1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में उठे विवाद पर विचार करके फैसला दिया था कि दोस्तों, एजेंटों और राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला खर्च भी उम्मीदवार द्वारा किए जाने वाले व्यय में शुमार किया जाना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट की बात मान ली जाती तो चुनाव को धनबल के जरिए प्रभावित करने पर काफी हद तक रोक लग सकती थी।
लेकिन फैसला आने के फौरन बाद एक अध्यादेश जारी करके उपधारा (1) में एक व्याख्या जोड़कर इसे निष्प्रभावी कर दिया गया। बाद में यह अध्यादेश संसद द्वारा जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन की तरह पारित हो गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कई बार अपने प्रेक्षणों में संसद से अपील कर चुका है कि वह इस मसले पर इस प्रकार का विधि-निर्माण करे, जिससे चुनाव में धनबल के कारण विकृतियां न आएं, पर अभी तक हमारे विधिकर्ताओं के कान पर जूं भी नहीं रेंगी है।
विधि आयोग इंद्रजीत गुप्ता कमेटी की वह सिफारिश मान चुका है, जिसमें प्रयोगात्मक रूप से चुनावों की आंशिक सरकारी फंडिंग का सुझाव दिया गया था। पर अभी तक यह सुझाव की शक्ल में ही है। इसकी जगह जो लागू किया गया है, उसे हम इलेक्टोरल बांड्स के नाम से जानते हैं। इससे ताे फंडिंग की विकृतियों में इजाफा ही हुआ है।
किसी भी लोकतंत्र के लिए 73 साल की उम्र कम नहीं होती। हमें पूछना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट से हम कब तक वह काम करने की उम्मीद करते रहेंगे, जिसकी जिम्मेदारी सरकारों, राजनीतिक दलों और संसद की है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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