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बंगाल में पिछले कुछ महीनों में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से बड़ी संख्या में नेता भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में गए हैं। यह संकेत हैं कि टीएमसी में सब कुछ ठीक नहीं है और राज्य का राजनीतिक मौसम बदल रहा है। इन बदलावों से यह धारणा बन रही है कि टीएमसी को आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा से कड़ी चुनौती मिल सकती है। लेकिन मतदाता अभी भी इस पर कयास ही लगा रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में होगा क्या।
पिछले कुछ हफ्तों में मुझसे यह सवाल कई बार पूछा गया, जिसका मेरे पास कोई स्पष्ट जवाब नहीं है। हां एक बात तय है, पश्चिम बंगाल निश्चित ही टीएमसी और भाजपा के बीच कड़ी टक्कर की ओर बढ़ रहा है, जिसमें टीएमसी को भाजपा पर बढ़त हासिल है। करीब 20 मौजूदा और पूर्व विधायक-सांसद टीएमसी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं। इनमें सुबेंदु अधिकारी, राजीव बनर्जी, पूर्व सांसद सुनील मंडल और राज्यसभा सांसद दिनेश त्रिवेदी जैसे कुछ प्रभावशाली नेता हैं।
टीएमसी छोड़कर जाने वाले नेताओं का अपनी सीट पर खासा असर हो, लेकिन इनमें से कोई भी मुख्यमंत्री और टीएमसी नेता ममता बनर्जी की लोकप्रियता के आसपास भी नहीं है। प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में भी कोई उनके जितना मशहूर नहीं है। जिस तरह से पिछले एक दशक में भारत में चुनाव नेता केंद्रित हुए हैं, उससे यह बात टीएमसी के पक्ष में जाती है। सीएसडीएस के अध्ययन बताते हैं कि प. बंगाल में 2019 लोकसभा चुनावों के दौरान 43% लोगों ने ममता को पसंदीदा नेता बताया, जबकि 37% ने मोदी को।
इसका कोई कारण नजर नहीं आता कि बंगाल के मतदाताओं में इन दोनों नेताओं की रेटिंग में बड़ा बदलाव आया होगा। बंगाल में भाजपा के लिए चेहरे की कमी भी चुनौती है। कोई कह सकता है कि भाजपा ने बिना स्थानीय चेहरे के 2019 के लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था और 40% वोट के साथ 18 सीटें जीती थीं। लेकिन ध्यान रखना होगा कि उस चुनाव में बड़ी संख्या में मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को वोट दिया था।
सीएसडीएस का अध्ययन बताता है कि प. बंगाल में 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा को वोट देने वाले 31% लोगों ने मोदी को वोट दिया था। सवाल बरकार है कि क्या उनका चेहरा विधानसभा चुनाव में भी मदद करेगा? हरियाणा, दिल्ली या झारखंड के चुनाव बताते हैं कि मोदी की लोकप्रियता विधानसभा चुनावों में मदद नहीं करती।
टीमएसी न सिर्फ नेतृत्व के मामले में आगे है, बल्कि भाजपा की तुलना में उसका जनाधार भी बड़ा है। पार्टी का सर्वश्रेष्ठ विधानसभा चुनाव 2011 रहा था, जब उसे 48.3% वोट मिले, जो 2014 लोकसभा चुनाव में घटकर 39.3% हुए, फिर 2016 विधानसभा चुनावों में बढ़कर 44.9% हो गए।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़े गए एक चुनाव में भाजपा का वोट शेयर बढ़कर 40.2% हो गया, लेकिन टीएमसी ने फिर भी 43.2% वोट शेयर बरकरार रखा, जबकि अन्य राज्यों में, जैसे उप्र में सपा और बसपा या बिहार में राजद जैसे क्षेत्रीय दल मोदी की चुनौती के आगे खड़े नहीं हो पाए। हालांकि, भाजपा तेजी से बढ़ रही है, पर टीएमसी अब भी लोकप्रियता के मामले में आगे है।
भाजपा 40% वोट शेयर के कारण 42 में से 18 लोकसभा सीटें (121 विधानसभा खंडों में बढ़त) जीत पाई, जबकि टीएमसी ने 22 लोकसभा सीटें जीतीं (164 विधानसभा खंडों में बढ़त)। बंगाल में 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा की लोकप्रियता में बढ़त से पार्टी को राज्य में बदलाव की उम्मीद जागी है।
लेकिन उसे 2019 के चुनावी प्रदर्शन से यह नहीं मान लेना चाहिए कि बंगाल के लोगों में सरकार में बदलाव की निर्धारक इच्छा है। भाजपा को 2019 में मिले वोट केंद्र सरकार को फिर चुनने के लिए थे। यह समझना बहुत एकतरफा होगा कि वे वोट राज्य सरकार में बदलाव के लिए भी थे। भाजपा ने उन राज्यों के विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, जहां उसने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया था।
यहां तक कि जिन राज्यों में उसे लोकसभा चुनावों में 50% वोट मिले, वहां विधानसभा चुनावों में वोट शेयर 15% से ज्यादा तक गिर गया। सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव में वोट शेयर बढ़ना, 2021 में विधानसभा जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है। लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा के अंतरीय वोट शेयर के ट्रेंड को देखते हुए, टीएमसी को भी लगातार तीसरी बार जीतने के आत्मविश्वास से बचना चाहिए। उसके लिए चिंता के कई कारण हैं।
मुस्लिमों को छोड़कर सभी समुदायों के मतदाताओं में टीएमसी का जनाधार गिरा है, जबकि भाजपा का जनाधार विभिन्न सामाजिक समूहों में बढ़ा है। अगर यही रुझान जारी रहा तो टीएमसी मुश्किल में पड़ सकती है। लेकिन अगर पार्टी इसे रोक पाई तो वह लगातार तीसरी जीत की ओर बढ़ जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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