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भारत-इंग्लैंड के बीच 24 फरवरी से अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में डे-नाइट टेस्ट मैच शुरू होगा। पिछले 6 साल में यह ओवरऑल 16वां और भारतीय जमीन पर दूसरा डे-नाइट टेस्ट मैच होगा। डे-नाइट टेस्ट के लिए पिंक बॉल का इस्तेमाल होता है। चलिए जानते हैं कि रेड या व्हाइट बॉल से रात में टेस्ट क्यों नहीं खेले जाते हैं और क्रिकेट के अलग-अलग फॉर्मेट में तीन अलग-अलग रंगों की गेंद की जरूरत क्यों पड़ती है?
खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिए गेंद का अच्छे से नजर आना जरूरी
हार्ड बॉल से क्रिकेट खेलना कई बार खतरनाक साबित हुआ है। अलग-अलग स्तर पर कुछ खिलाड़ियों की जान भी गई है। इस पहलू को ध्यान में रखते हुए क्रिकेट प्रशासकों की हमेशा ये कोशिश रही है कि गेंद का कलर ऐसा हो, जो खिलाड़ियों को अच्छे से दिखे।
जब से फर्स्ट क्लास क्रिकेट की शुरुआत हुई है, क्रिकेट रेड बॉल यानी लाल गेंद से ही खेला जाता रहा। लिमिटेड ओवर क्रिकेट भी शुरुआत में रेड बॉल से ही खेला गया। पहले चार वर्ल्ड कप (1975, 1979, 1983 और 1987) लाल गेंद से ही हुए। डे-नाइट क्रिकेट शुरू होने के बाद व्हाइट बॉल की एंट्री हुई। पिछले कुछ साल से डे-नाइट टेस्ट ज्यादा होने लगे तो पिंक बॉल का इस्तेमाल शुरू हुआ।
बदलता रहता है एटमॉस्फियर का कलर कॉम्बिनेशन
अलग-अलग समय पर खेल के दौरान हमारे आस-पास लाइट का कम्पोजिशन भी बदलता रहता है। दोपहर तक प्राकृतिक रोशनी हल्का पीलापन लिए रहती है। वहीं, शाम के समय आसमान में हल्की लालिमा होती है। फ्लड लाइट्स ऑन होने के बाद लाइट कम्पोजिशन पूरी तरह बदल जाता है। इन सभी परिस्थितियों में अलग-अलग कलर की गेंद हमारे लिए ज्यादा विजिबल होती हैं।
आदर्श स्थिति में दिन में लाल गेंद और रात में सफेद गेंद सबसे अच्छे तरीके से दिखाई देती है। इसलिए डे क्रिकेट के लिए रेड बॉल और डे-नाइट क्रिकेट के लिए सफेद बॉल अच्छी मानी गई। यही कारण है कि फर्स्ट क्लास (टेस्ट सहित) के लिए रेड बॉल और लिस्ट ए (वनडे इंटरनेशनल सहित) और टी20 के लिए व्हाइट बॉल का इस्तेमाल होता है।
फिर सफेद गेंद से डे-नाइट टेस्ट मैच क्यों नहीं होते?
रात में फ्लड लाइट की रोशनी में सफेद गेंद बेहतर दिखती है, लेकिन सफेद गेंद के साथ टेस्ट मैच नहीं कराए जाते हैं। इसके पीछे सफेद गेंद पर मौजूद सफेदी का जल्द उतरना बड़ा कारण है। लाल गेंद पर रंग डाई के जरिए आता है। लेदर लाल रंग को एब्जॉर्ब कर लेता है। इसलिए जब गेंद पुरानी भी पड़ती है तो उसका रंग लाल ही रहता है।
सफेद गेंद के साथ ऐसा नहीं होता है। गेंद पर सफेद रंग कोटिंग के जरिए चढ़ाया जाता है। यह कोटिंग 30 ओवर के आस-पास उतरने लगती है। इस कारण विजिबिलिटी कम हो जाती है। वनडे में दोनों छोर से अलग-अलग गेंद इस्तेमाल करने के कारण दिक्कत नहीं होती। टी20 में एक पारी 20 ओवर ही चलती है, इसलिए परेशानी नहीं आती।
इसके उलट टेस्ट में एक गेंद को 80 ओवर के बाद ही बदला जा सकता है। इसलिए सफेद गेंद से खेल संभव नहीं है। इसके अलावा टेस्ट में खिलाड़ियों की जर्सी सफेद ही रखी जाती है। सफेद जर्सी में सफेद गेंद को देख पाना काफी मुश्किल है। इन दो पहलुओं की वजह से टेस्ट में सफेद गेंद इस्तेमाल नहीं होती है।
पिंक कलर को ही क्यों चुना गया, ऑरेंज क्यों नहीं?
फ्लड लाइट की रोशनी में ऑरेंज बॉल पिंक बॉल से ज्यादा विजिबल होती है, लेकिन इसमें एक समस्या है। ऑरेंज कलर ब्रॉडकास्टिंग के लिहाज से अच्छा नहीं माना जाता है। प्रसारण के दौरान ऑरेंज बॉल टीवी दर्शकों को ब्लर (धुंधली) नजर आती है। इसलिए ऑरेंज की जगह पिंक कलर को चुना गया। हालांकि पिंक कलर को भी लेदर पर डाई नहीं किया जा सकता है। इसे भी कोटिंग के जरिए चढ़ाया जाता है।
क्यों डाई नहीं किए जा सकते पिंक और व्हाइट कलर?
पिंक और व्हाइट कलर रेड की तुलना में हल्के होते हैं। इसलिए लेदर इसे ठीक से एब्जॉर्ब नहीं कर पाता है। ऐसे में कोटिंग यानी ऊपर से परत चढ़ाना ही विकल्प रह जाता है। व्हाइट बॉल की तरह पिंक बॉल भी जल्द रंग न खो दे, इसके लिए गेंद पर डबल कोटिंग की जाती है।
पिंक बॉल लंबे समय तक स्विंग क्यों करती है?
डबल कोटिंग के कारण पिंक बॉल लंबे समय तक चमक बरकरार रखती है। लिहाजा यह लंबे समय तक स्विंग बॉलिंग को सपोर्ट करती है। साथ ही पिंक बॉल की चमक को ज्यादा देर तक कायम रखने के लिए पिच पर घास भी छोड़ी जाती है। इससे सीम मूवमेंट बढ़ जाती है। स्विंग और सीम मूवमेंट बढ़ने से पिंक बॉल तेज गेंदबाजों के लिए ज्यादा मददगार होती है।
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