कभी पालतू जानवर काट खाए तो आश्चर्य नहीं होता, लेकिन जब कोई इंसान किए हुए उपकारों को इस तरह भुला दे जैसे बाबा कर रहे थे, तो बहुत दुख हो रहा था। विश्वास ही नहीं हो रहा था सीधे-सादे से दिखने वाले बाबा इस तरह गिरगिट की तरह रंग बदल लेंगे।
यही बाबा थे जो पांच साल पहले आरुषि के पिता की चौखट पर अपना माथा टेककर अपनी गरीबी का रोना रो रहे थे, “गिरधर, प्रमोद ने अपने कॉलेज में टॉप किया है।”
“प्रमोद ने अपने कॉलेज में ही नहीं पूरे स्टेट में भी टॉप किया है।” गिरधर चाचा ने प्रफुल्लित मन से बाबा को बधाई देते हुए कहा था, “अब आगे क्या सोचा है?”
“बमुश्किल प्रमोद को इंटर तक पढ़ा दिया, इतना ही मेरे जैसे गरीब के लिए काफी है। इसके आगे जहां इसकी किस्मत ले जाए,” बाबा का स्वर आर्द्र हो उठा।
“जिंदगी की राह इतनी भी मुश्किल नहीं है कि कोई राह न सूझे। मन में इच्छा और कर्मठता की भावना होनी चाहिए, फिर कुछ भी नामुमकिन नहीं रहता। तुम प्रमोद को लेकर कानपुर आ जाओ। एक साल मेरे कोचिंग सेंटर में कोचिंग लेने के बाद किसी प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिलना आसान हो जाता है प्रमोद जैसे होनहार स्टूडेंट्स के लिए।”
“मेरे पास ट्रेन के किराए तक के लिए पैसे नहीं हैं, तेरे कोचिंग सेंटर की फीस का जुगाड़ कहां से करूंगा।”
दो दिन बाद गिरधर चाचा ने ट्रेन की दो टिकट कोरियर से भेज दीं, टिकट के साथ उनके कोचिंग सेंटर का पेमफ्रेट भी अटैच्ड था।
गिरधर चाचा जितने विनम्र थे। उनकी पत्नी प्रोफेसर विनीता जी उतनी ही सह्रदयी। न जाने कितने गरीब स्टूडेंट्स को दोनों पति-पत्नी ने अपने कोचिंग सेंटर में मुफ्त ट्यूशन दिलवाकर इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन दिलवाया था। मेरी योग्यता और कर्मठता को देखते हुए उन्होंने मेरे रहने, सुबह के नाश्ते और रात के भोजन का प्रबंध भी करवा दिया था।
मैं मन लगा कर पढ़ने लगा था। मेरी कुशाग्रता और पढ़ाई के प्रति निष्ठा को देखकर गिरधर चाचा मुझ पर विशेष ध्यान देने लगे थे।
“आरुषि, दिनेश अंकल याद हैं तुम्हें। मेरे बचपन के दोस्त, जिनके घर हम मंडला में रुके भी थे। प्रमोद उनका ही बेटा है। बारहवीं में पूरे स्टेट में टॉप किया है। अब तुम दोनों एक साथ बैठकर प्रतियोगिता की तैयारी करोगे।”
गिरधर चाचा ने अपनी बेटी से मेरा परिचय करवाया था। आरुषि उनकी इकलौती बेटी थी। मेरे साथ-साथ वो भी इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी।
आरुषि कमरा छोड़ कर गयी तो मैं उसके खयालों में खो गया। पहली ही नजर में वो लड़की मुझे भा गयी थी। हम दोनों घंटों एक साथ बैठकर पढ़ते, प्रोजेक्ट तैयार करते।
ब्यूटी विद ब्रेन का इतना अच्छा कॉम्बिनेशन मैंने पहली बार देखा था। कितना आत्मविश्वास था उसमें। हर विषय पर कितनी अच्छी पकड़ थी। एकाध बार तो मैं ही उसके सामने निरुत्तर हो गया था, पर आरुषि ने मुझे ऐसा कभी भी महसूस नहीं होने दिया था।
मैं जितना उसकी तरफ से ध्यान हटाने की कोशिश करता वो उतनी ही मेरे सामने आ खड़ी होती। आज तक किसी ने मेरे दिल को इस तरह छुआ ही नहीं था, पर आरुषि… उसकी तो बात ही अलग थी।
‘मुझे उससे प्यार तो नहीं हो गया?’ मैं अपने आप से सवाल करता, ‘जरा देर के लिए साथ रहती है तो ये हाल हो जाता है, कॉलेज में घंटों एक साथ रहेगी तब तो मैं तो पागल ही हो जाऊँगा।’
लेकिन कुछ भी ऐसा नहीं हुआ। मुझे कंप्यूटर्स और आरुषि को इलेक्ट्रिकल ब्रांच मिली। एडमिशन के समय बाबा के सामने आर्थिक समस्या फिर से मुंह उठाकर खड़ी हो गयी, पर गिरधारी चाचा की पहुंच ऊपर तक थी। किसी तरह प्रबंधक कमेटी से बात करके उन्होंने मेरी फीस तो माफ करवा ही दी वजीफे का प्रबंध भी कर दिया था।
मेरी रिपोर्ट देखकर बाबा भी बहुत खुश होते थे। उनकी मन मांगी मुराद पूरी हो रही थी। बेटा सफलता के सोपान चढ़ता जा रहा था, वजीफे के पैसे से थोड़ा-बहुत गृहस्थी का आंशिक खर्च भी चल जाता था।
फिर अचानक वो हादसा हुआ, आरुषि की मां की एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी।
म्रत्यु! एक रुदन! एक स्याह कोठरी! लेकिन इस कोठरी में न तो दरवाजा था, न खिड़कियां और न ही रोशनदान। विनीता आंटी की रूह इस कोठरी के बाहर सूनी दीवार में दरवाजा तलाश ही रही थी और उनका मृत शरीर अपने आत्मीयों से अंतिम बिदा ही ले रहा था कि गिरधर चाचा को भयंकर हार्टअटैक आया। शांत, सौम्य सी आरुषि तो पत्थर हो गयी थी। एक यंत्र सी लोगों के प्रश्नों के उत्तर दे रही थी।
हादसे की सूचना बाबा तक पहुंची तो औपचारिकता निभाने के लिए वो गांव से आए जरूर, लेकिन उनकी आंखों में न आंसू थे, न ही चेहरे पर दर्द की चिलमन। बाबा की तटस्थता मेरे लिए अप्रत्याशित थी। आज उनके बेटे के करियर की इमारत जिस इंसान के प्रयासों की नींव पर खड़ी थी, उसका आभारी होने के बजाय, “यों करते तो ऐसा होता” जैसे सुझावों के अवरोध लगाने से ही फुर्सत नहीं थी उन्हें।
तभी एंबुलेंस दरवाजे पर पहुंची। एक फुसफुसाहट ही हुई और आरुषि जोर से चीख पड़ी, “मां चली गईं!” चारों ओर एकत्रित भीड़ और गिरधर चाचा जैसे महाज्ञानी का समस्त अनुभव भी उस पक्षी को उड़ने से नहीं रोक पाया। विनीता आंटी का मृत शरीर अपने आत्मीयों से विदा ले रहा था और आरुषि मेरा कंधा भिगो रही थी।
विनीता आंटी के जाते ही पूरे परिवार पर विपत्तियों का जैसे पहाड़ सा टूट पड़ा। गिरधर चाचा ने एक बार बिस्तर पकड़ा तो फिर छोड़ा ही नहीं। कोचिंग सेंटर लगभग बंद सा हो गया। आरुषि की दिनचर्या पिता की परिचर्या में बदलने के बाद उसमें हीनभावना भरने लगी थी। मैं रोज जाकर उसका हौसला बढ़ाता। उसे समझाता कि वो अपने बने बनाए करियर को इस तरह खत्म न करे।
कहते हैं- ‘टाइम इज द बेस्ट हीलर’। मेडिटेशन, सत्संग,और कई प्रबुद्ध व्यक्तियों के उदाहरण और ऑडियो-वीडियो कैसेट सुनकर और देखकर आरुषि में कई बदलाव आए। वो मन लगाकर पढ़ाई करने लगी। मैं और आरुषि दोनों इंजीनियर बन गए। फिर मैंने विदेश से और आरुषि ने IIM से एमबीए भी कर लिया।
सात साल उपजा प्रेम अब विवाह की दहलीज पर आ पहुंचा था। हम दोनों विवाह सूत्र में बंधकर अपने जीवन को एक नयी दिशा देने की पहल करने लगे थे।
आरुषि खुश थी, बेहद खुश, लेकिन एक दुख उसकी खुशी पर भारी था कि शादी के बाद उसके पिता अकेले रह जाएंगे। मां तो पहले ही इस दुनिया से जा चुकी है और कोई भाई-बहन भी थे नहीं।
उधर बाबा मेरी शादी बिना दहेज के करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे।
हैरान रह गया था मैं बाबा की सोच पर। जिस पल उन्हें शांत होकर आरुषि की पीड़ा को समझना चाहिए था वो बेतुके प्रश्नों के खंजर चुभो-चुभो कर उस पर वार करने का प्रयास कर रहे थे। हम दोनों का प्रेम भंवरे और फूल का प्रेम नहीं था, नदी और सागर का प्रेम था- सदा अनुरक्त, एकनिष्ठ, समर्पित। आरुषि और प्रमोद मानो एक दूसरे के लिए ही बने थे।
आखिर शादी का दिन आ पहुंचा। आरुषि सोलह शृंगार कर मुस्कुराती हुई मेरे सामने आयी तो मैंने एक भरपूर नजर उसे देखा। फिर उसका हाथ थामकर बजाय विवाह-वेदी पर बैठने के गिरधर चाचा के सामने जा पहुंचा। सब लोग चकित, पंडित जी हैरान और आरुषि अवाक।
मैंने उन्हें प्रणाम कर कहा, “मुझे दहेज चाहिए।” मेरी बात सुनकर आरुषि शर्म से गड़ गयी। इस लालची के साथ विवाह करने के लिए उसने सारी मर्यादाएं ताक पर रखकर पिता से वचन लिया था और उन्होंने भी पुत्री स्नेह के वशीभूत होकर तुरंत ‘हां’ भी कर दी थी। और ये अब पता नहीं क्या मांगने वाला है। हे भगवान, कितनी बड़ी भूल हो गयी।
आरुषि के भय से कांपते मन ने तभी प्रमोद के मुख से ये शब्द सुने,“पापा, मुझे दहेज में आप चाहिए ताकि आरुषि कोई दुख लेकर मेरे साथ न जाए और मेरा परिवार अपनी पूर्णता पा सके। प्लीज पापा, मैं अधूरी जिंदगी नहीं जीना चाहता। आप हमारे साथ चलिए।”
खुशी और गर्व से आरुषि की आंखों से आंसू निकल आए। प्रमोद ने उसे एक नजर देखकर ही उसकी मुस्कान में छिपे दर्द को पहचान लिया था। सप्तपदी और मंत्रोच्चारों के बीच उस दिन एक परिवार के साथ प्रेम ने भी मानो पूर्णता पा ली थी।
- पुष्पा भाटिया
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