बत्तीस साल का मोहित जब काफी परेशान हो जाता है तो लाइब्रेरी चला जाता है। वहां की किताबें तो उसकी मित्र हैं ही, उनके साथ वहां के लाइब्रेरियन चौंसठ वर्षीय मिस्टर माथुर भी मोहित के अच्छे मित्र हैं। वहां लाइब्रेरी कैम्पस में मिस्टर माथुर का छोटा सा घर भी है, जहां वे अकेले रहते हैं। मोहित के लिए मिस्टर माथुर उस सांता की तरह हैं जिसके पास उसकी हर परेशानी का समाधान होता है। उस दिन भी मिस्टर माथुर जान गए थे कि मोहित कुछ डिस्टर्ब है।
“क्या हुआ बरखुरदार?” उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में पूछा।
“सिल्विया लंदन से इंडिया आई है, मां से मिलने। हम दोनों शादी करना चाहते है। मां पता नहीं कैसे रियेक्ट करेंगी सिल्विया को लेकर। मैं बहुत उलझन में हूं। हमारे कट्टर हिंदू परिवार में सिल्विया जैसी लड़की को मां स्वीकार भी करेगी या नहीं। मैं बहुत उलझन में हूं। सिल्विया मेरी परेशानी समझ रही है। अगर मां ने मना भी कर दिया तो वो बिना किसी शिकायत के वापस लौट जाएगी। लेकिन फिर मेरा क्या होगा?” मोहित के चेहरे पर चिंता की रेखाएं साफ दिख रही थीं।
मिस्टर माथुर कुछ सोचने लगे थे।
“जानते हो मोहित, मैंने जीवन भर शादी क्यों नहीं की?” उनके स्वर का भीगापन पहचान कर मोहित ने उनकी तरफ देखा। हमेशा मुस्कराते रहने वाले मिस्टर माथुर का पारदर्शी चेहरा इस समय गंभीर हो आया था। “एक लड़की थी शुभ्रा। मेरा और शुभ्रा का ब्याह बचपन में ही तय कर दिया गया था। शुभ्रा मेरी मां की सहेली की बेटी थी और हमारी गली के अंतिम छोर पर उसका मकान था। जब तक बचपन था, स्कूल से लौट कर हम लड़के-लड़कियां साथ मिलकर ही खेला करते थे। कभी गिल्ली डंडा, कभी कंचे, कभी गेंद तड़ी, कभी पिठ्ठू गरम। उन दिनों मैं बारह बरस का था और शुभ्रा शायद आठ या नौ बरस की रही होगी। जब साथ के बच्चों को पता चला कि हम दोनों का ब्याह तय कर दिया गया है तो उन्होंने हमें चिढ़ाना शुरू कर दिया। मैं हंस रहा था। शुभ्रा की नाक बह रही थी और फ्रॉक के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। उस समय चिढ़ कर उसने मुझे ‘साला बेशरम’ कह कर गाली दे दी थी और मुझे मारने दौड़ी थी। तब भी मैं हंसता ही रहा था। साथ खेलते-पढ़ते हम लोग बड़े भी हो गए।
शुभ्रा लड़कपन से अब तक एक समझदार, अभिजात्य से परिपूर्ण सुंदर युवती बन चुकी थी। एक खास उम्र की ताजगी और भोलापन जो लड़कियों में दिखता है, वो शुभ्रा में था। वो चपल उम्र में भी गंभीर और शांत थी। संयमित, संतुलित, नापतोल कर बातें करने वाली। मैं ही अब तक नाकारा, बिना नौकरी का घूमता था। शुभ्रा मुझसे सहज मित्र भाव से हंसती-बोलती थी। मुझसे पहले बहन की शादी हुई और उसके बाद मां ने बीमारी में दम तोड़ दिया। जल्दी ही पिता जी भी दुनिया छोड़ गए। मेरी नौकरी, शादी, गृहस्थी देखे बिना ही। इस बेगानी दुनिया में मैं निपट अकेला सा छूट गया।
फिर एक अच्छी नौकरी लगी, लेकिन तब भी मैं शुभ्रा के लिए गंभीर नहीं हुआ। सोचा शुभ्रा से इतर दूसरी लड़कियां भी देख-परख लूं, वरना शुभ्रा तो है ही मेरे लिए। मैं एक के बाद दूसरी लड़कियों में ताक-झांक करता रहा। उन्हें मिलता रहा, उन्हें छोड़ता रहा। दरअसल मुझे काफी देर में पता चला कि उन सभी लड़कियों में मैं शुभ्रा को ही ढूंढ रहा था। किसी में शुभ्रा की हंसी, किसी में उसकी आंखें, किसी में उसका भोलापन और किसी में उसकी बातें। इस चक्कर में मेरे कई प्रेम प्रसंग हुए, कई ब्रेकअप्स भी हुए।
मेरी ताकझांकी की खबर शुभ्रा के घरवालों तक भी जरूर पहुंची होगी। मुझे आभास होने लगा था। तभी तो जिस दिन मैं स्वयं विवाह का प्रस्ताव लेकर शुभ्रा के घर पहुंचा, तो मेरे कुछ कहने से पहले ही उसके पिताजी ने वहीं पर मिठाई के साथ उसके विवाह का कार्ड भी मुझे थमा दिया। एक झटके के साथ मुझे लगा कि मेरी पूरी दुनिया उजड़ गई है। मैं हैरान, परेशान हो चुका था। किस तरह मैंने खुद को संभाला, नहीं बता सकता। कोई बहुत प्यारी चीज जब छिन जाती है तब आप शिद्दत से महसूस करते हैं कि आपने क्या खो दिया। हाथ में शुभ्रा के विवाह का कार्ड लिए देर तक उलटता-पलटता रहा। काफी देर तक नहीं समझ आया कि ये क्या हो गया? खैर, फिर संतुलित हुआ और फौरन ही मेरी व्यावहारिक बुद्धि ने समझा दिया कि जब मैंने आगे बढ़ कर उसके लिए कोई प्रस्ताव ही नहीं रखा, तो वो मेरे लिए क्यों रूकती? जहां घरवालों ने कहा, उसने हां कर दी। मैंने ह्रदय से कामना करी कि शुभ्रा सुखी रहे।
शुभ्रा की शादी हो जाने के बाद मेरे मन में उसकी याद, उसका प्यार इतनी व्याकुलता से उपजता रहा कि मैं खुद को रोकते हुए भी नहीं रोक सका और उससे मिलने उसकी ससुराल जा पहुंचा। शुभ्रा के ब्याह को एक साल हो चुका था।
घंटी बजने पर एक बुज़ुर्ग बाहर निकले।
“शुभ्रा से मिलना था। मैं उसके पड़ोस में रहता हूं। उसकी शादी में शामिल नहीं हो पाया था, इसलिए...” मैं हकला गया था।
“बहू ...” उन्होंने आवाज दी। जब तक शुभ्रा आती, मैंने देखा उसकी बैठक की नक्काशीदार शेल्फ पर उसके ब्याह की तस्वीर थी, उसके पति के साथ। मांगलिक पुष्प मालाओं से सजी। इतनी सी देर में उसकी सास भी वहां आ कर बैठ गई थीं। ससुर तो पहले ही से थे। बातचीत और रखरखाव से पता चला कि उनका परिवार एक संयुक्त अमीर परिवार था। औरतों और बच्चों की भीड़ थी। शुभ्रा उसी भीड़ में खो कर रह गई थी। औरतों का संसार घर के भीतर था और मर्दों की दुनिया घर के बाहर थी। पत्नी की आवश्यकता केवल वंशवृद्धि के लिए थी उस परिवार में। शुभ्रा चूंकि सबसे छोटी बहू थी इसलिए उसे सभी बड़ों के अधीन रहना था।
कुछ देर इंतजार करने के बाद जब शुभ्रा आई तो एक झटका खा गया मैं। माथे तक ढंका घूंघट, हाथ भर चूड़ियां और गर्भभार से शिथिल उसका शरीर। आकर चुप बैठ गई। कुछ नहीं बोली। नहीं, ये वो शुभ्रा तो नहीं थी जिसे मैं जानता था। मुझे वहां घुटन महसूस होने लगी थी। जी उकता गया था। देख भर सका था शुभ्रा को। चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। पता नहीं कैसे वो मुझे बाहर तक छोड़ने आ गई। बस यही चंद पलों का एकांत था हमारे पास।
“खुश तो हो न शुभ्रा?” दर्द की एक लकीर मेरे भीतर कहीं फैलती चली गई। शुभ्रा ने मुझे देखा। उसकी आंखों में पीड़ा की गहरी परछाइयां थीं। बाहर धीमी गति से बौछारें पड़ रही थीं जैसे आसमान रो रहा हो। उसकी उदासी से मैं सहम गया था। मुझे आशंका थी कि वो मुझसे शिकायत करेगी, तोहमत लगाएगी, लेकिन वह बस मुझे देखती रही। फिर हल्के स्वर में बोली, “तुमने उस समय क्यों नहीं कहा कि तुम मुझसे प्यार करते हो। मुझसे शादी करना चाहते हो। भला मैं लड़की हो कर कैसे मन खोल कर कहती? तुमने कभी ये सोचा कि मेरा भी आत्मसम्मान हो सकता है?” उसकी आंखें डबडबा आई थीं। उसकी वो छवि आजतक मेरी आंखों में बसी है, कभी धुंधली नहीं पड़ी।
फिर सुना बच्ची को जन्म देते समय शुभ्रा दुनिया को अलविदा कह गई। एक बार शुभ्रा से मन की बात नहीं कह कर एक गलती करी थी। किसी और से शादी कर के दूसरी गलती नहीं करना चाहता था।” मिस्टर माथुर कहते-कहते रुक गए थे। खुद में ही खोये हुए, शांत। सहसा ही वर्तमान में वापस लौट आए, “मन की बात कह देनी चाहिए मोहित, वरना पछतावा ही शेष रह जाता है। मां से कह कर तो देखो एक बार।” मिस्टर माथुर का चेहरा गहरे दुख से भर गया था।
“एक बार फिर से सोचो मोहित, क्या बस सिल्विया ही...?” यह हल्का स्वर मां का था।
“हां मां, लेकिन तुम हां कहोगी तब ही, तुम एक बार मिलो तो उससे,” मोहित ने आग्रह किया।
मां ने ‘हां-ना’ कुछ नहीं कहा, बस बेटे को देखती रही।
अगले दिन मिस्टर माथुर की छोटी सी कॉटेज में मोहित मां को लेकर गया था।
गोरी, उजली सिल्विया ने परिपाटी से साड़ी पहन रखी थी। माथे पर सिंदूरी सूरज झिलमिल कर रहा था। झुक कर मां के पैर छू लिए उसने। मां चौंक पड़ी थीं। बांहों में भर कर ढेरों आशीष दे डाले अपनी बहू को।
मिस्टर माथुर ने आसमान में देखा, धुंध भरे बादलों के पार दो आंखें हंस रही थीं। शुभ्रा और सिल्विया, दो चेहरे मिलकर एक हो गए थे।
- आभा श्रीवास्तव
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