फेसबुक खोलते ही पलाश को अपनी गलती का एहसास हुआ। “सोनम..? सोनम ने शादी कर ली?”
कायदे से अपना आईपैड बंद कर के उसे पहले ही समझ जाना चाहिए था कि जिस मोड़ पर उसने अपनी अलग राह पकड़ी थी, वहां खड़ी सोनम आज भी उसकी राह थोड़े ही तक रही होगी।
लेकिन मन तो मन है अड़ियल तुरंग की तरह पिछले पैरों पर अटक कर खड़ा हो गया।
“सोनम से शादी किसने की होगी? जरूर उसने अपनी बीमारी का खुलासा अपने भावी पति से किया ही नहीं होगा, वरना जानबूझकर तो कोई भी लड़का किसी कैंसर पेशेंट से शादी करने से रहा।”
लाख कोशिशों के बावजूद भी वो अपने मन की अधीरता को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था।
मन के एक कोने से पुरजोर स्वर उभरा, “एक बार मिल क्यों नहीं लेते सोनम से?”
तभी दूसरे कोने ने उसे आगाह किया, “एक बार सोच ले, सोनम तुझ से मिलना चाहेगी भी या नहीं?”
न जाने क्या सोचकर उसने फेसबुक पर दिए हुए नंबर पर फोन मिला दिया।
“हेलो..?” के प्रश्नात्मक स्वर के साथ ही कमरे में शब्दों का संचार हो उठा। पर बदले में सामने की तरफ से कोई जवाब न पा कर वो फोन रखने ही जा रहा था कि सांसों की मद्धिम हवा उसके कणों में जीवन मंत्र फूंक गई।
“पलाश!” धीरे से उसके मुंह से अपना नाम सुनकर जैसे उसकी वर्षों की थकान मिट गई।
“सोनम, आखिर इतने दिनों बाद भी तुमने मुझे पहचान लिया?”
“मैं तुम्हें भूली ही कब थी, जो पहचान न पाऊं।”
कहना चाह रही थी पर कह नहीं पायी, जवाब में सिर्फ हल्की सी हामी भर दी, “हम्मम।”
“कैसी हो?” फिर वो आवाज आई जिसने बरसों पहले सोनम के दिल की तारों में एक धुन छेड़ी थी।
“अच्छी हूं! और तुम?” जानते बूझते हुए भी कि वो अपनी पत्नी के साथ सुखद वैवाहिक जीवन जी रहा होगा उसने औपचारिकता के तौर पर पलांश का हाल पूछा।
“अच्छा हूं, यह कहना शायद झूठ होगा। सुख-सम्रद्धि है, पर कोई अपना नहीं है, जो मेरा हाल पूछे, मेरे जीवन के सफर का हमसफर बने।”
पलाश की आवाज में एक पीड़ा थी। उसकी आवाज में छिपा एकाकीपन सोनम से छिप नहीं सका।
“और तुम?”
सोनम के होंठों पर अजीब सी मुस्कान खिल उठी, “मैं! एकदम बढ़िया, अपने छोटे से संसार में खुश हूं।”
पलाश समझ नहीं पा रहा था कि सोनम के मुंह से इस तरह जीवन में खुशी का इजहार सुनकर खुशी महसूस करे या दुखी हो। उसके अलावा भी कोई है जो सोनम को खुशी देना चाहता है, यह जानकर उसे न जाने क्यों अच्छा नहीं लग रहा था।
“तो आजकल क्या चल रहा है?” पलाश ने बात जारी रखने के प्रयास में पूछा। वो उसकी आवाज सुनते रहना चाहता था।
“तुम तो जानते हो, जिंदगी से मैंने ज्यादा उम्मीद कभी की ही नहीं। बस मैं, मेरी स्कूल की छोटी सी नौकरी, मेरे बच्चे और मेरे हमसफर ने मेरी दुनिया आलोकित कर रखी है।”
उसकी आवाज में एक संतुष्टि थी, शांति, संतोष, खुशी थी।
“कितने बच्चे हैं?”
“60-70 के करीब।”
सोनम के जवाब ने पलाश को हिला दिया। “60-70 बच्चे?”
“हां, स्कूल में इन दिनों 60-70 बच्चों को पढ़ा रही हूं,” उसके इन शब्दों से पलाश को तसल्ली दी ।
“आजकल क्या लिख रहे हो?” इस सवाल का जवाब वो सच में जानना चाहती थी, क्योंकि इन दो वर्षों में उसने पलाश की कोई रचना सोशल मीडिया पर नहीं देखी थी।
“लिखना तो हमने उसी दिन छोड़ दिया जिस दिन हमने अपना कीमती श्रोता खोया था,” ऐसे जवाब की उम्मीद शायद सोनम को नहीं थी। यों इतने दिनों बाद अचानक उसकी आवाज सुनना, उसकी बातों में छिपी प्यार भारी शरारत, दबी जुबान में मोहब्बत जताना, उसकी सभी आदतें वही थीं जो पांच वर्ष पहले उसने कॉलेज के गलियारों में महसूस की थीं।
“पलाश, शब्दों के जादूगर होने का खिताब आज भी तुम्हारे पास वैसा ही है जैसा उस दिन था जब ओंकोलोजिस्ट डॉक्टर शर्मा की हर दलील को तुम्हारे माता-पिता ने झूठा सिद्ध कर दिया था, और तुमने भी उनका विरोध करने के बजाय चुप्पी साध ली थी,” उसने धीमे से अपने मन में दोहराया।
“सोनम इस सफरिंग फ्रॉम कार्सिनोमा,” सुनते ही पलाश की आंखें फटी की फटी रह गईं, आवाज कांपने लगी, “लेकिन आज के जमाने में कैंसर असाध्य रोग नहीं है।”
पलाश बीती बातों को याद कर एक बार फिर कांप गया, लेकिन तुरंत ही उसने खुद को संयत कर लिया।
“काश, तुमने करियर-नौकरी की दुहाई देने और अपने माता-पिता की बात सुनने के बजाय, मेरे हाथ को मजबूती से थामे रखा होता तो जिंदगी कितनी बेहतर होती, आज भी बेहतरीन है, पर उसमें खुशनुमा रंगों की कमी है” सोनम ने शिकायत की।
“और तुम्हारा हमसफर?” न चाहते हुए भी पलाश ने उससे आखिरी सवाल कर ही लिया।
“वो आज भी मेरा हाथ थामे मेरे संग जीवन के सफर पर साथ चल रहा है।”
शायद उसने सोनम का नंबर ढूंढने, उसे मिलने की हिम्मत जुटाने और यथार्थ को अपनाने में देर कर दी। तभी तो जहां से रोशनी की आशा थी वहां से मायूसी की निराशा के साथ हताशा हाथ लगी। शायद यह ऊपरवाले का ही लिखा था, प्रेम को अधूरा, बीच रास्ते में छोड़ने का यह परिणाम था कि आज वो उससे दूर कहीं अपनी एक दुनिया बसा चुकी थी।
दो हफ्ते का समय यूं ही बीत गया। एक दिन उसने व्हाट्सएप स्टेट्स खोला, तो लाल चुनरी ओढ़े, सोलह शृंगार किए, मांग टीके से झांकती लाल सिंदूर भरी मांग, पूजा की थाली और करवा लिए मेहंदी रचे दो हाथ दिखायी दिए। वो देर तक उसे निहारता रहा जो शायद उसकी थी और सदा के लिए उसकी बन सकती थी। देर तक फोटो देखने के बाद उसकी नजर आखिरी फोटो पर अटक गयी। छन्नी से झांकती तस्वीर का चेहरा उससे मिलता जुलता था। हां, ये चेहरा उसी का था।
नीचे लिखा था,
‘मांग में सिंदूर भरकर उनकी लंबी उम्र की कामना करती हूं, जीवन में आस भरकर उस परदेसी की राह ताकती हूं। लोग पूछते हैं किसके नाम का सिंदूर मांग में भरती हूं, अब उन्हें क्या बताऊँ कि मैं किस प्रिय की राह देखती हूं। हर रिश्ते का नाम नहीं होता, और हर नाम का रिश्ता नहीं होता। मैं तो उस बेनाम डोर से बंधी हूं जो मोहब्बत कहलाती है, प्यार के ताज के हकदार हैं हम इसीलिए सुहागिन कहलाते हैं।”
शब्दों का मोहजाल उसे बांध गया, कांपते हाथों से पलाश ने फिर वही फोन नंबर मिलाया, घंटी ज्यादा देर नहीं बजी।
“सोनम?” एक घंटी में ही सोनम ने फोन उठा लिया।
इस बार उसकी खुशी में आश्चर्य का भाव मिला हुआ था, “तुम्हारा वाट्सप्प स्टेटस..?”
पलाश के शब्द अधूरे ही रह गए। दूसरी ओर से सोनम ने कहा, “तुमने मेरा उस दिन हाथ छोड़ा था, मैंने तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा, मैं प्रेम की सुहागन हूं, जिसने एक बार यदि हमसफर का हाथ थामा, तो उसका साथ अंत तक निभाती है।”
वर्षों की दूरी को उसने इन चंद शब्दों में तय कर लिया था। पलाश का मन मयूर नाच उठा। वह खुश होकर बोला, “इंतजार के लम्हे खत्म हुए सोनम, मैं तुम्हारे पास आ रहा हूं।”
वर्षों से पलाश की राह देखती सोनम की आंखों में चमक आ गई। उसकी मांग का सिंदूर जगमगा उठा।
- पुष्पा भाटिया
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