हॉल खचाखच भरा हुआ था। बेशक यह सेमिनार कॉलेज के छात्रों के लिए था, लेकिन आमंत्रित दर्शकों में समाज के हर वर्ग के लोग थे। बुद्धिजीवी जहां एक तरफ कुर्सियों में धंसे हुए थे, वहीं दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के लोग भी विराजमान थे। शिक्षाविद्, प्रोफेसर, यहां तक कि कुछ व्यवसायी भी नजर आ रहे थे। कुछ सेमिनार में बोले जाने वाले विषय की वजह से एकत्र हुए थे, तो कुछ वक्ता की लोकप्रियता के कारण।
हालांकि वक्ता जो स्वयं दिल्ली के एक कॉलेज की प्रिंसिपल दूसरे शहर से इस कॉलेज में विषय पर बोलने आई थीं। फिर भी इस शहर के लोगों को उन्हें सुनने में दिलचस्पी थी। छात्रों में ही नहीं, वहां आए लोगों में भी उत्सुकता थी उन्हें सुनने की, उन्हें देखने की और उनके बारे में जानने की।
कोई व्यक्ति समाज में तभी लोकप्रियता हासिल करता है जब उसमें कुछ खास बात हो। यह लोकप्रियता किसी के बुरे होने के कारण भी हो सकती है और किसी के अच्छे व गुणी होने की वजह से भी। नीरा द्वारा किए कार्यों से काफी लोग परिचित थे। उनके बारे में उनके शहर में ही नहीं, दूसरे स्थानीय समाचार पत्रों में भी छपता रहता था। उनके कॉलेज के छात्र व प्रोफेसर उनका बहुत सम्मान करते थे और अन्य कॉलेज के कुलपति आदि भी उनकी योग्यता का डंका पीटा करते थे। सब जानते थे कि नीरा अपनी मेहनत के बल पर आगे बढ़ी हैं।
उनकी प्रोफेशनल लाइफ जितनी खुली किताब थी, उतनी ही उनकी निजी जिंदगी एक बिना पढ़ा गया अध्याय थी। किसी मिस्ट्री से कम नहीं थी नीरा लोगों के लिए। अच्छी लेखिका भी थी और उनकी किताबें चर्चा में रहती थीं, लेकिन वह खुद अपने बारे में कभी किसी से बात नहीं करती थीं।
‘फेमिनिज्म क्या पुरुष विरोधी है,’ नीरा लगातार इस विषय पर बोल रही थीं और हॉल में बैठे लोग उनके एक-एक शब्द को गौर से सुन रहे थे। लोगों को बांध लेने की उनमें गजब की क्षमता थी। उनके चेहरे पर हमेशा छाई रहने वाली सौम्यता और दृढ़ता, नई पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा थी और रूप व देहयष्टि का सौंदर्य जो गरिमामय होने के बावजूद पुरुषों को लुभाता था। शिल्पकार की बेहतरीन कृति नीरा के प्रति आकर्षण की एक लहर उठती देखी जा सकती थी। इस समय भी वह कलफ लगी सूती साड़ी में अपने शब्दों से ही नहीं, अपने व्यक्तित्व से भी लोगों को मंत्रमुग्ध कर रही थीं।
वक्तव्य खत्म होने के बाद सब उन्हें बधाई देने के लिए उनके पास जमा होने लगे। कॉलेज के परिसर में लंच का आयोजन किया गया था। नीरा एक कोने में खड़ी छात्रों और कुलपति से बात कर रही थीं। वह भीड़-भाड़ से दूर रहना ही पसंद करती थीं। किसी परिचित को देख बस मुस्करा कर दूर से ही हाथ जोड़ देतीं या कोई अनजान उनसे बात करना चाहता तो वह शालीनता से ‘एक्स्क्यूज मी’ कह एक कोने में सरक जातीं।
‘‘यार, क्या बोलती हैं मैम,’’ ‘‘मैं तो इनकी लेखनी का भी दीवाना हूं,’’ ‘‘लेकिन इनके बारे में कि यह प्रिंसिपल हैं और लेखिका, कोई और कुछ नहीं जानता,’’ ‘‘किसी को पता है कि यह विवाहित हैं या कुंआरी। हालांकि उम्र के हिसाब से तो शादीशुदा ही होंगी। पर कभी इनके साथ इनके पति को नहीं देखा। हर जगह अकेले ही आती-जाती हैं।’’ ‘‘हो सकता है तलाकशुदा हों…’’ खाना खाते हुए माहौल में न जाने कितनी फुसफुसाहटें तैर रही थीं। जब कोई केंद्रबिंदु होता है तो उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने की उत्सुकता बनी रहती है।
नीलेश भी हाथ में प्लेट थामे खाना खाते हुए नीरा को देख लेता था।
उसकी लिखी रचनाएं पढ़ता रहता है वह। फेसबुक पर जुड़ने की कोशिश की थी, पर नीरा ने फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट नहीं की। बहुत कुछ जाने बिना उसके प्रति न जाने कैसा-सा आकर्षण महसूस करता था वह। शायद उसकी सटीक सोच और विषयों पर निष्पक्ष विचारों के कारण या उसके वशीभूत करने वाले सौंदर्य के कारण। वह नीरा का चाहने वाला था, यह कहना गलत नहीं होगा। नीलेश नहीं जानता था कि उसे चाहने वालों की लिस्ट में केवल उसी का नाम नहीं है, युवा लड़कों से लेकर अधेड़ उम्र के पुरुष उसे पसंद करते थे। कुछ पाने की चाह भी रखते थे, पर चूंकि नीरा बेहद नपे-तुले शब्दों में और गंभीरता से बात करती थी, इसलिए किसी की उससे दिल की बात कहने की न तो हिम्मत होती, न ही वह उन्हें कभी मिलने या बात करने का समय देती।
‘‘नीरा जी, इन्हें तो जानती ही होंगी? जाने-माने उद्योगपति होने के साथ-साथ हमारे कॉलेज के ट्रस्टी भी हैं। अच्छे चित्रकार भी हैं। अगले महीने दिल्ली में ही इनकी पेंटिंग की एक्जीबिशन है। आप जरूर देखिएगा,’’ कॉलेज के चेयरमैन मिस्टर दत्त ने नीरा का परिचय नीलेश से कराते हुए कहा।
‘‘जी थोड़ा-बहुत जानती हूं,’’ हिचकिचाते हुए नीरा बोली। नीलेश की आंखों में ऐसा कुछ था जिससे वह स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रही थी। वह कैसे कहती कि उसने तो इन महाशय का नाम तक नहीं सुना है। इससे तो मिस्टर दत्त को भी शर्मिंदगी उठानी पड़ती।
‘‘अगर आप अपना नंबर दे दें तो खुद आऊंगा एक्जीबिशन का निमंत्रण देने,’’ नीलेश एकदम से बोला। वह इस मौके को चूकना नहीं चाहता था। मिस्टर दत्त के सामने इनकार करना संभव नहीं था, इसलिए उसे अपना कार्ड देना ही पड़ा। नीलेश ने कार्ड पर लिखे उसके नाम पर इस तरह हाथ फेरा मानो उसी को सहला रहो। सिर्फ नीरा ही लिखा था कार्ड पर!
दिल्ली वापस आकर नीरा पहले की तरह अपने काम में व्यस्त हो गई। नीलेश और उसके एक्जीबिशन के बारे में उसे कुछ ध्यान नहीं रहा। वैसे भी वह किस-किसको याद रख सकती है।
‘‘क्या आज शाम आपसे मिल सकता हूं?’’ फोन पर नीलेश का नाम सुन क्षण भर तो वह सोचती रही कि उससे कहां मुलाकात हुई थी। फिर जब बात एक्जीबिशन की हुई तो वह बोली, ‘‘जी मिल लेते हैं।’’
‘‘खान मार्केट के बरिस्ता में मिलें?’’
‘‘आप घर आ सकते हैं,’’ नीरा ने संक्षिप्त शब्दों में कहा।
एक्जीबिशन का थीम था ‘एक पहेली।’ पढ़कर नीरा के होंठों पर मुस्कान तैर गई।
‘‘किस पहेली को सुलझाना चाहते हैं आप?’’ कुछ बात तो करनी है, सोचकर उसने पूछा। नीलेश उसे एकटक देख रहा था।
‘‘देखिए नीरा जी, दुनिया किसी पहेली से कम नहीं, फिलहाल तो आपको जानना चाहता हूं। आप क्या किसी पहेली से कम हैं?’’
‘‘क्या जानना चाहते हैं?’’
‘‘आप क्या शादीशुदा हैं?’’ हिचकते हुए उसने पूछा।
‘‘पता नहीं, मेरे मैरिटल स्टेटस को लेकर लोगों में इतनी उत्सुकता क्यों है? क्या मेरी निजी पहचान होना काफी नहीं है? खैर, आपने सीधे-सीधे पूछा है तो बताती हूं कि मैं न तो शादीशुदा हूं, न कुंवारी हूं, मैं तलाकशुदा हूं। लेकिन इन सबसे पहले मैं एक स्त्री हूं। और इन सबसे बढ़कर मैं एक मां हूं। मां होना ही मेरा स्टेटस है और गर्व भी।”
फिर बेटी को बुलाते हुए नीरा ने कहा, “मीरा, बाहर आओ,’’ बेटी का नाम लेते ही नीरा की आंखें चमकने लगीं।
‘‘यह है मेरी बेटी मीरा, मेरा गुरूर, जिसने मुझे मां बनने का सुख दिया। नीलेश जी, मैं एक मां हूं, कोई पहेली नहीं।’’
"तुम मां हो इस बात पर किसी को भी नाज हो सकता है। यह रिश्ता सबसे बड़ा भी है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि मां हो जाने से एक स्त्री किसी को चाह नहीं सकती। किसी और रिश्ते से जुड़ नहीं सकती।"
"क्या कहना चाहते हैं आप?"
"मुझे तो लगा था कि आप मेरी आंखें पढ़ सकती हैं। स्पष्ट शब्दों में कहूं तो मैं आपको पसंद करता हूं, लेकिन अपने आपको आप पर थोपना नहीं चाहता। बस इतना ही चाहता हूं कि आप खुद इस बात का निर्णय लें कि क्या किसी रिश्ते से जुड़ सकती हैं। एक मां को एक्सेप्ट करना शायद सबसे बड़ी बात होगी मेरे लिए। मैं फैसला आप पर छोड़ता हूं," नीलेश जाते-जाते बोला।
उसे लगा इस समय और रुकना ठीक नहीं है। नीरा को समय देना चाहिए।
"मां आपको भी हक है अपनी जिंदगी जीने का। पापा के जाने के बाद किसी साथी की जरूरत आपको भी महसूस होती होगी। लेकिन यह सोच कर कि मुझे अच्छा नहीं लगेगा आप ने आज तक किसी और को अपनी जिंदगी में आने नहीं दिया है। नीलेश अंकल बहुत सुलझे हुए इंसान हैं, उन्हें अपनी जिंदगी में आने दें," मीरा भी यही चाहती थी कि उसकी मां शादी कर ले।
नीरा टकटकी लगाए बेटी को देखती रही। एक बार फिर गुरूर हुआ उसे अपने मां होने पर।
- सुमना. बी
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