दिल्ली से मनाली तक का सफर तय करने बाद जब वह होटल पहुंची तो थकान उसके पूरे शरीर में पसरी हुई थी। फ्रेश होकर वह टहलने निकल गई। ठंडी हवा के झोंकों से उसे राहत भी मिलने लगी। ऊंचे-ऊंचे विशालकाय छाती ताने पहाड़ों और पेड़ों को देख उसे ख्याल आया कि कब हारती हैं पर्वतों की ये गगनचुंबी चोटियां, कहां झुकते हैं ये विशालकाय, जड़ें फैलाए पेड़ और कहां रुकता है नदी का चलायमान पानी।
प्रकृति अपने हर रूप में हमें जिंदगी को खूबसूरती और सम्मान से जीने का संदेश देती है। जबकि इंसान का संघर्ष उसे तोड़ता है। वह भी तो कितनी बार हारी है, टूटी है, हालांकि उतनी ही बार उसने खुद को फिर से उठाने की कोशिश भी की है। पहाड़ों का असीम विस्तार, उसके ऊपर से तैरते नीले-सफेद अनगिनत आकारों वाले बादल, पहाड़ों की कोख से फूटती नदियां, चोटियों पर जमी बर्फ, चीड़ और देवदार के सीधे खड़े पेड़ों को देख अनायास ही सोनाली जिंदगी के गूढ़ रहस्यों का विश्लेषण करने लगी थी।
चाय की एक टपरी सी बनी थी रास्ते में। छोटी-छोटी कचौड़ियां और रस भी रखे थे, शीशों के जार में।
“मैडम जी, बारिश हो सकती है। जितनी जल्दी हो वापस अपने होटल चली जाइए” मिट्टी के कुल्हड़ में चाय पकड़ाते हुए एक लड़के ने कहा। जिसकी उम्र 15-16 साल की होगी।
उसे देख शायद समझ गया था कि वह वहां की स्थानीय निवासी नहीं है, इसीलिए उसने अनुमान लगा लिया होगा कि किसी होटल में ही ठहरी होंगी। चाय इतनी स्वाद थी कि लड़के की चेतावनी के बावजूद घूंट-घूंट भर उसने आराम से पी।
दो दिन के लिए ही वह मनाली आई थी, एक कान्फ्रेंस में हिस्सा लेने। वह तो पहाड़ों पर आना ही नहीं चाहती, पर नौकरी की बाध्यता थी। वैसे भी आजकल वह बहुत ज्यादा दिनों तक कहीं स्थिर नहीं रह पाती है। मन उखड़ जाता है-कोई बीच राह ही में एकदम अकेला छोड़ दे तो लगता है कि छले गए हैं। तब कहां रह पाती है कुछ कर पाने की चाह…
बारिश शुरू हो गई थी। कमरे की खिड़की से बूंदों का गिरना उसके मन की भीतरी तहों को भी भिगो रहा था। दुनिया में कितनी भीड़ है, फिर भी एक इंसान के यों चुप हो जाने से अकेलापन भर जाता है… ऐसा नहीं है कि उसे पहाड़ अच्छे नहीं लगते थे। एक समय था जब उसे पहाड़ सम्मोहित करते थे। जब भी वह उन्हें देखती, सिर उठाकर चलने की इच्छा प्रबल हो जाती। वे उसे विश्वास देते, उससे कहते कि भावुकता बाधा बन सकती है, पर उसे तो भावनाओं में बह जाने की जैसे आदत थी। बचपन में भी सब उसे सेंटीमेंट्स फूल कहते थे। ईमानदारी का भूत उस पर सवार था। नौकरी शुरू की थी तो मन में एक ही चाह थी कि मेहनत करके आगे जाना है। बॉस बड़ी उम्र का था, उससे बेटी जैसा स्नेह रखता था, उसे समझाता, “प्रोफेशनल लाइफ में सेंटीमेंट्स बाधा ही पैदा करते हैं। लोग तुम्हें पीछे धकेल खुद आगे बढ़ जाएंगे। तुम छली जाओगी, लर्न टू बी प्रैक्टिकल, बी डिप्लोमेट।” वह हंसी में उनकी बात उड़ा देती, “सर मैं जैसी हूं, खुश हूं। अब अपने नेचर को तो नहीं बदल सकती।”
सोनाली नहीं समझी और बार-बार छली गई। काम में परफेक्शन होने के कारण किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं होती। उसकी भावनाओं को झकझोर कर उसे छला जा सकता है, इस बात का लोग फायदा उठाते, तब उसके भीतर का कोई हिस्सा चटक जाता।
जब-तब मनन उसकी चटकन पर फाहा लगा उसे भर देता, पर अब तो…स्पष्टता से बात कहने के चलते नौकरी नहीं कर पाई। काम की जगह जहां चापलूसी के प्रतिशत को आंका जाता है, वहां काम करने का कोई फायदा नहीं। नहीं करनी उसे किसी की गुलामी, इसलिए स्वतंत्र लेखन ही सही लगा उसे। पर थोड़े दिनों बाद जब एक ऑफर आया तो मना नहीं कर पाई। पर माहौल तो हर जगह एक जैसा ही होता है। लेकिन इस बार काफी साल निकाले उसने। फिर जब भीतरी छटपटाहट हद से ज्यादा बढ़ गई और वह अपने काम का क्रेडिट दूसरों को देते-देते उकता गई, तो वहां से निकल आई।
“बस बहुत हुआ मनन, अब मैं तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं। देखो न बालों से सफेदी झांकने लगी है, फिर मत कहना कि एक बूढ़ी पल्ले पड़ गई”
तब कितना हंसा था मनन। तब कहां पता था कि एक बार फिर से छली जाएगी। इन पहाड़ों ने भी उसे छला। उसकी खुशियां इन पहाड़ों ने ही तो छीनी हैं उससे। वह एक वर्कशॉप में भाग लेने सोलन गई थी। मनन ने कहा वह भी साथ चलता है, इस तरह घूमना भी हो जाएगा और साथ वक्त बिताने का मौका भी मिल जाएगा। उसने छेड़ा था सोलन में ही शादी की प्लानिंग भी कर लेंगे। वह तो ज्यादातर वर्कशॉप में ही बिजी रहती, पर मनन घूमने निकल जाता। उस दिन जल्दी खत्म होने वाली थी वर्कशॉप। वह भी आखिरी दिन मनन के साथ समय बिताना चाहती थी। सुबह से बूंदा-बांदी हो रही थी और मनन तो घूमने निकला हुआ था। न जाने कैसे उसका पैर फिसला और उसके संभालने से पहले ही एक पत्थर लुढ़कता हुआ आया और उसे भी अपने साथ बहुत नीचे ले गया…
सोनाली संवेदना शून्य हो गई। फिर छली गई थी वह। मनन की दोनों टांगें उस हादसे में कुचली गईं। रीढ़ की हड्डी में भी गहरी चोट आई थी। एक साल हो गया है उस हादसे को घटे और मनन को बिस्तर पर लेटे-लेटे। कहता कुछ नहीं है। पैरालाइज्ड शरीर ही नहीं मन भी हो गया है। कैसे एक हमेशा हंसने वाला, अपनी बातों से मन मोह लेने वाला इंसान इतना खामोश हो सकता है। बस शून्य में ताकता रहता है। उसका आश्वासन, उसका प्यार भी उसे उस चुप्पी से बाहर नहीं ला पा रहा है।
जिंदगी चल रही है और उसके साथ वह भी चल रही है। उसने फिर से नौकरी कर ली है। हर स्थिति में वह खुद को ढालना सीख गई है। अब वह आसानी से हार नहीं मानती, लड़ती है आपने हक के लिए। सेंटीमेंट्स को अब वह अपने आड़े नहीं आने देती।
पहाड़ों सी दृढ़ता बेशक अभी उसमें नहीं है, पर उन गगनचुंबी चोटियों की तरह वह तैयार हो चुकी है, संघर्षों का सामना करने के लिए। नहीं हारेगी वह, नहीं रुकने देगी अपने जीवन की धारा के बहाव को। मनन को उसकी जड़ता से बाहर लाकर ही रहेगी।
शायद वही हार रही थी, इसीलिए मनन को जीने की उम्मीद देने में असफल हो रही थी। हार उसने मान ली थी, तभी तो मनन को जिंदगी की रेस में आगे निकलने के लिए उसकी बैसाखी नहीं बन पाई। उत्साह और उमंग ही तो जीने की इच्छा पैदा करते हैं।
मनाली से वापस लौटी तो सीधे मनन से मिलने गई। ड्रिप लगी हुई थी उसे और ऑक्सीजन सिलेंडर भी रखा था।
“रात को अचानक मनन की तबीयत खराब हो गई थी, इसलिए ऑक्सीजन देना पड़ा। कुछ खा नहीं रहा था तो डॉक्टर ने ड्रिप लगाने की सलाह दी है। तबीयत नहीं संभली तो फिर अस्पताल ले जाना पड़ेगा” मनन की मम्मी ने अपने साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए कहा।
“संभाल ले सोनाली इसे, इसकी हिम्मत, इसका आत्मविश्वास तू ही वापस ला सकती है। मुझसे इसका यूं जड़ हो जाना देखा नहीं जाता”
कमरे से बाहर जाती मनन की मम्मी की चाल में लड़खड़ाहट थी। पति के गुजर जाने के बाद जिसकी सारी आस ही उसका बेटा हो, वह तो टूटे हुए कांच के किरचों पर ही रोज चलती है। सोनाली ने मनन के माथे पर हाथ रखा तो उसने आंखें खोलीं। अपने बेजान हाथों को हिलाने की व्यर्थ कोशिश की उसने। वह सोनाली को छूना चाहता था। सोनाली ने उसके हाथों पर अपना हाथ रख दिया। उसके माथे को चूमते हुए बोली,
“मनन, तुम्हें ठीक होना ही होगा। फिर से अपने भीतर जीवन का प्रवाह गतिमान करना होगा। हम फिर से जाएंगे उन पहाड़ों पर और इस बार हम उन्हें चुनौती देंगे। बस हमेशा की तरह इस बार भी तुम्हें मेरा साथ देना होगा”
सोनाली ने कसकर मनन का हाथ अपने हाथ में थाम लिया था। मनन उसे बस देख रहा था, मानो कह रहा हो, मैं हमेशा तुम्हारा साथ दूंगा। नहीं छली जाओगी तुम इस बार।
- सुमना.बी
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