पति की गर्लफ्रेंड:राशि हैरान थी कि घर से दूर अकेले एक कमरे में साथ होते हुए भी दिव्यांश को उसमें कोई रुचि नहीं

2 महीने पहले
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लगता है बारिश से उसका कोई गहरा रिश्ता है। शायद अतीत से जुड़ी कोई याद, वरना इस तरह यहां भी खिड़की से बाहर झांकना, बारिश की एक-एक बूंद को प्यार से देखना और हथेली पसरा कर उन बूंदों को अपनी अंजुरी में भरना। मानती हूं बारिश को देखना एक सुखद एहसास है। मुझे खुद भी अच्छी लगती है बारिश की झिलमिलाहट, लेकिन एक हद तक। उसके बाद जब पानी गड्ढों की सतह को पार कर सड़कों तक पहुंच जाए और चलना तक मुश्किल हो जाए, और घर से बाहर न निकलना एक मजबूरी बन जाए खासकर तब जब आप किसी दूसरे शहर में घूमने आए हों।

खाना कमरे में ही मंगा लिया था। होटल ब्यॉय खाना रखकर चला गया, पर दिव्यांश का ध्यान नहीं गया। थोड़ी खीझ हुई मुझे। आखिर ऐसा क्या है इस बारिश में! घूमने का सारा प्रोग्राम चौपट हो गया। जानबूझकर उसने चम्मच जमीन पर पटका। यह भी कोई बात हुई कि यहां घूमने आने पर भी वह अपने आप में खोया हुआ है।

जॉइंट फैमिली होने के कारण दोनों को कहां ठीक से एकांत नसीब हो पाता था। सोचा था कि यहां दिव्यांश की बांहों में कैद होकर सारा समय बिताएगी। शादी को अभी तीन महीने ही हुए हैं। कितनी अनकही बातें, उमड़ती हुई भावनाएं उसके अंदर अभी भी हिलोरें ले रही हैं। यहां पहुंचते ही बारिश शुरू हो गई और सारा मजा किरकिरा हो गया।

“खाना ठंडा हो रहा है,” दिव्यांश के कंधों को छूते हुए मैंने झिंझोड़ा उसे।

“चुप्पी इस माहौल में बहुत अखर रही है दिव्यांश।”

“तो बात करो न!” दिव्यांश बोला। उसे देखकर लग रहा था जैसे अभी वह अपनी ही बनाई हुई दुनिया के भीतर हो और वहां खलल डाल कर मैं उसे परेशान कर रही थी।

“किससे?” मेरा धैर्य टूट रहा था।

“मतलब?” दिव्यांश थोड़ा चौंका। उसे लगा कि वह राशि के साथ अन्याय कर रहा है। ठीक भी तो है, अपने को यूं ही समेट लेना क्या सही है। लेकिन वह भी क्या करे? बारिश से इस कदर जुड़ा है कि अपने को अलग करना मुश्किल हो जाता है उसके लिए।

“कोई बीती बात है, जिसकी वजह से बारिश आते ही तुम बिल्कुल बदल जाते हो?”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बस टपकती बूंदों का तारतम्य देखने में डूब जाता हूं,” दिव्यांश सहज होने की पूरी कोशिश कर रहा था।

“इतना डूब जाते हो कि मैं तुम्हारे पास हूं यह भी भूल जाते हो?”

“तुम्हें कैसे भूल सकता हूं?” उसकी बांहों में कैद होते ही मैंने महसूस किया कि दिव्यांश के प्यार पर वह शक नहीं कर सकती। इन तीन महीनों में उसने अपने प्यार से सराबोर जो कर दिया था।

“मैं तुमको और अच्छी तरह से जानना चाहती हूं।”

“मुझे?” खिलखिला कर हंस पड़ा वह। “मुझमें ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसे जानने की उत्सुकता हो और अगर अभी से सब कुछ जान लिया तो पूरा जीवन कैसे बिताओगी? थोड़ा-थोड़ा कर हम एक-दूसरे को जानेंगे तो नीरसता नहीं आएगी जिंदगी में।”

“रहने दो। तुम से तो बातों में जीतना मुश्किल है। प्रोफेसर ठहरे, तुम्हारे मन को जानना कठिन तो होगा ही। नहीं बताना तो मत बताओ। लेकिन इतना जान लो कि अब इस बारिश के पीछे मुझे नजरअंदाज किया तो तुम्हें छोड़ कर चली जाऊंगी।” मैंने रूठने का नाटक करते हुए कहा।

“हो सकता है यह बात जानकर तुम्हें बुरा लगे।”

“नहीं लगेगा। कहकर तो देखो।”

“कॉलेज के दिनों की बात है। घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं था कि मैं और लड़कों की तरह यहां-वहां घूमने में समय बर्बाद करता। बस कॉलेज जाना और सीधे घर आना। रात-दिन पढ़ाई के सिवाय कुछ सोचता ही नहीं था।

उस दिन घर जाने के लिए बस स्टैंड पर खड़ा था कि झमाझम बारिश शुरू हो गई। दो-चार बसों में चढ़ने की कोशिश भी की, लेकिन भरी होने के कारण चढ़ नहीं पाया।

तभी एक कार आकर रुकी और एक मधुर आवाज ने मुझे पुकारा, “आ जाइए। मैं छोड़ दूंगी। मेरा घर भी आपके रास्ते में ही पड़ता है।” वह मेरे कॉलेज में ही पढ़ती थी, शायद थर्ड ईयर की स्टूडेंट थी। इससे पहले न तो कभी उससे बात हुई थी न ही ऐसा परिचय था कि मैं उससे लिफ्ट ले लूं। चलते-फिरते कभी नजर पड़ी होगी, इसलिए इतना तो पता था कि वह हमारे कॉलेज में पढ़ती है।

“दिव्यांश, मैं तुम्हें खा नहीं जाऊंगी। एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं, इसी खातिर बैठ जाओ। बारिश जल्दी रुकने वाली नहीं है,” उसने फिर से गाड़ी में बैठने को कहा।

पहली बार किसी लड़की को इतने करीब से देखा था। झनकार सी बजती हंसी और बालों की झूलती लटें। कीमती, लेटेस्ट फैशन का सूट पहन हुआ था। कानों में हीरे के टॉप्स थे। वह बहुत सहज थी, पर मुझे सकुचाहट हो रही थी। हालांकि न जाने क्यों एक अनकहा-सा खिंचाव भी महसूस हो रहा था। लड़कियों से हमेशा मैंने एक दूरी बनाकर रखी थी। हैसियत ही कहां थी इतनी कि किसी लड़की को डेट पर ले जा सकूं। मैं कार में बैठ गया।

“आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?” मैंने हैरानी से पूछा था।

“नाम तो बहुत मामूली बात है। मैं तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानती हूं। बाय द वे मेरा नाम हर्षिता है।” बड़ी देर तक कार में उसकी हंसी गूंजती रही।

वह हमारी पहली मुलाकात थी। उसके बाद हर्षिता को देखने, उससे मिलने की इच्छा मेरे मन को उकसाने लगी। न जाने कैसे संकोच की दीवारें जो अब तक मेरे व्यक्तित्व के इर्दगिर्द पहरा दिए खड़ी थीं, धीरे-धीरे हटने लगीं। प्यार का यह पहला अंकुर था जो मेरे भीतर प्रस्फुटित हुआ था। मेरे मुकाबले हर तरह से श्रेष्ठ थी वह। उम्र में तो बड़ी थी ही, पैसे और रुतबे में भी मैं उसके सामने कुछ नहीं था।

एक दिन उसने कहा, “दिव्यांश, मुझे अच्छे लगते हो। दूसरे लड़कों से बिल्कुल अलग हो जो पैसेवाली लड़कियों को फंसाने के चक्कर में रहते हैं।” कोई आपको अपने दिल के सिंहासन पर बिठा दे तो एहसास अंगड़ाइयां लेने लगते हैं। मेरे साथ भी ऐसा हुआ।”

मैं एकटक दिव्यांश को देख रही थी।

“हर्षिता से मिलने के बाद से ही बारिश से मेरा नाता जुड़ गया। उसे भीगने में बहुत मजा आता था। जानबूझकर कार खराब होने का बहाना करके मुझे भी पैदल चलाती। उन बूंदों का स्पर्श और उसका साथ, मेरे मन-प्राण भीग जाते।

एक दिन वह बोली, “मुझे लगता है तुम मेरे कारण अपनी पढ़ाई पर ठीक से ध्यान नहीं दे रहे हो। तुम्हें कुछ बनना है। मेरा क्या है, बड़े बाप की बेटी हूं। दौलत से लड़का खरीदा जाएगा। पढ़ना तो समय बिताने के लिए भेजा गया है। तुम अच्छे लगे तो…”

मैंने कहा, “मैं भी तुम्हें पसंद करता हूं।”

वह मेरी बात को समझते हुए बोली, “अपने लक्ष्य से मत भटकना। मुझे तो न जाने कब किसी रईस बाप के बिगड़े बेटे से बांध दिया जाए। हमारे परिवार में शादियां बिजनेस के फायदे के हिसाब से तय होती हैं। यह तय है कि हम दोनों कभी एक नहीं हो सकते। मैं तुम्हें किसी भुलावे में नहीं रखना चाहती। बस तुम्हारी दोस्ती एक धरोहर के रूप में मेरे पास सदा सुरक्षित रहेगी।” उसके समझाने पर मैं फिर पढ़ाई में जुट गया।

“फिर ऐसी ही एक बारिश की रात थी जब उसकी कार का एक्सीडेंट हो गया। वह टूटे-फूटे शब्दों में इतना ही बोल पाई, “दिव्यांश, मैं तुम्हें कभी पा नहीं पाती। चलो अच्छा ही हुआ कि मैं जा रही हूं, पर तुम टूटना नहीं, बस अच्छे इंसान बने रहकर अपने जीवन में पूर्णता भरना। वही तुम्हारे प्यार की मेरे प्रति श्रद्धांजलि होगी।’”

मेरी आंखें भर आईं।

“हर्षिता मेरी प्रेरणा है। अब तुम जिस रूप में चाहो इस रिश्ते को परिभाषित कर सकती हो,” दिव्यांश ने मेरे हाथों को अपने हाथ में लेते हुए कहा।

“दिव्यांश, बारिश फिर से होने लगी है। ये बूंदें कैसा संगीत पैदा कर रही हैं मानो किसी की झनकार-सी बजती हंसी हो।” मैं उसे खींचते हुए खिड़की के पास ले गई और उसके साथ-साथ अपनी हथेलियां भी खिड़की के बाहर फैला दीं।

- सुमना. बी

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