“एक तो समस्या जैसी समस्या नहीं, उस पर तुम्हारा ये बर्ताव, कैसे काम चलेगा बोलो। कुल इतनी सी ही बात है न कि उस घर में तुम्हारे संगीत के लिए कोई जगह नहीं है, तुम्हें अपना प्रोफेशन छोड़ना पड़ा… ये तो बहुत छोटी सी बात है, तुम्हें इसे स्वीकार करना होगा।”
सीढ़ियां चढ़ती भाभी को एकटक देखती रह गई नेहा। मन उलझ कर रह गया। संगीत तो उसके व्यक्तित्व का हिस्सा है, उसे वो कैसे छोड़ दे। ये लोग क्यों नहीं समझते कि संगीत छोड़ना नेहा का नेहा को छोड़ना है। दो साल पहले का दृश्य उसके आंखों के सामने आ गया। शादी के चार-पांच साल बाद उसने अपने घर से तानपुरा और तबला मंगवाया था।
उसे देखते ही हिमेश के पापा फट पड़े, “इस घर की बहू नाचे-गाए ये मैं हर्गिज बर्दाश्त नहीं कर सकता।”
डर से नेहा का शरीर कांपने लगा, शायद हिमेश कुछ मदद करें। मन में जब ये ख्याल आया तो कुछ तसल्ली सी हुई।
रात को जब हिमेश घर लौटे तो नेहा ने उनकी बांह पकड़ते हुए कहा, “हिमेश, क्या इस तरह किसी की रुचियों पर पाबंदी लगाना उचित है?”
“देखो नेहा, खानदान की परंपरा और प्रतिष्ठा के सामने व्यक्तिगत रुचियों और इच्छाओं का कोई महत्व नहीं। तुम्हें खुद को बदलना होगा।”
“संगीत मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है। कम से कम आप तो मेरी भावनाओं को समझिए,” नेहा लगभग रो दी।
“उफ… फिर वही सेंटिमेंट्स की बातें! दुनिया की कौन सी सुख-सुविधा तुम्हारे पास नहीं है जो तुम इस तरह बहस कर रही हो। क्या नहीं दिया हमने तुम्हें?”
घूरती आंखों में गुरूर साफ झलक रहा था और रोष भी। उसके संस्कारों ने उसे फिर आगे बोलने की अनुमति नहीं दी, लेकिन मन भीतर ही भीतर चीत्कार कर रहा था।
“बस एक चीज आप मुझे नहीं दे सकते, मुझे मेरा स्वतंत्र अस्तित्व। मैं जानती हूं, हर वो चीज जो पैसे से खरीदी जा सकती है, मेरे एक बार कहने पर मुझे मिल जाएगी, लेकिन इसलिए नहीं कि मेरी रुचियां-इच्छाएं आपको प्रिय हैं, बल्कि इसलिए कि पैसे से कुछ भी खरीद लेना आपके लिए सामान्य सी बात है…”
बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि हिमेश ने अपना हाथ छुड़ाया और तेजी से कमरे से बाहर निकल गए। वो रात नेहा ने अकेले ही काटी। ऐसी कई रातें उसकी तीन साल की शादीशुदा जिंदगी में आईं और गईं, लेकिन सब कुछ वैसा ही रहा।
नेहा कभी-कभी सोचती, गिरीश ऐसे नीरस और बेजान क्यों हैं? होंठों पर कहकहे देखने के लिए तो इंसान तरस जाए, उनका हर कदम बटन दबाने की तरह होता है, मुंह से शब्द निकला नहीं कि नेहा तुरंत मान ले। लेकिन उनका ये रुआब औरों पर क्यों नहीं चलता, हर उम्मीद उसी से क्यों की जाति है?
फिर अगले ही पल सोचती, ‘ हिमेश की अपनी परेशनियां भी तो हैं जिन में वो उलझे रहते होंगे! ऑफिस की ही भागदौड़ क्या कम है, सेल्स ऑफिसर हैं, आज ये समस्या तो कल कोई दूसरी परेशानी। फिर उसे ये तर्क भी बेकार लगता कि एक हिमेश ही तो सेल्स ऑफिसर नहीं हैं। हजारों होंगे। क्या सभी अपनी पत्नियों के साथ ऐसा ही व्यवहार करते होंगे?’
ऐसे में शुभेंदु का हंसता हुआ चेहरा उसके मानस पटल पर साकार हो उठता। टीनएज का एक बहुत ही सुंदर सपना- प्यार को पाने, भोगने और हालात के कारण पीछे हट जाना… यादों को सीने में समेट कर जीने, तड़पने और जीते जी मर-मर कर जीने की प्रेम कहानी थी उसकी।
ऐसा नहीं कि यूनिवर्सिटी में खूबसूरत और स्मार्ट लड़कों की कमी थी। कईयों ने अपने पापा की इम्पोर्टेड कार से गुजरते हुए फ्लाइंग किस और गुलाब के फूल उस पर फेंके थे।
नेहा की सहेलियां उसे उकसातीं, “इसे देख, क्या क्रिकेटयर है, क्या टेनिस का खिलाड़ी है…” लेकिन नेहा का मन शुभेंदु के लिए ही तरसता था।
दोनों के घर बहुत पास थे। घरों की दीवारें ही नहीं मन भी जुड़े थे। एक दूसरे से कच्ची सब्जियां मांगी जाती थीं। शुभेंदु के पिता से नेहा शास्त्रीय संगीत सीखती, शुभेंदु उसे कंप्यूटर के बेसिक्स सिखाता।
सुबह होते ही शुभेंदु के पिता तानपुरा उठाते तो दोनों घरों के दरोदीवार राग भैरवी और तिलक कामोद की स्वरलहरी, तबले पर तीनताल और दादरा की गूंज से गूंज उठते। नेहा कोई नई धुन बनाती तो शुभेंदु के पिता का आशीर्वाद हमेशा अपेक्षित रहता। शुभ एवं मांगलिक अवसरों पर लोकगीत गाए जाते।
शुभेंदु का घर कायस्थों का घर था, जहां मांस-मछली, प्याज, लहसुन सभी कुछ पकता था, वहीं नेहा के घरवाले घोर सनातनी ब्राह्मण। फिर भी अक्सर वो शुभेंदु के घर से प्याज, लहसुन की खुशबू सूंघती अक्सर उनकी रसोई में जीमने पहुंच ही जाया करती।
किसी को कानों कान खबर नहीं थी कि नेहा और शुभेंदु का रिश्ता दोस्ती और पड़ोसी से कहीं अलग होकर सरहदें पार कर चुका है। शुभेंदु को नेहा, सत्यजीत की नायिका सरीखी लगती। नेहा से मिलकर उसे महसूस होता कि उसके साथ वो पूरी जिंदगी बिता सकता है।
शुभेंदु के हॉस्टल जाने के एक दिन पहले की घटना थी वो। उसे छोड़कर सारे घरवाले किसी रिश्तेदार की शादी में गए थे। नेहा गुमसुम सी आसमान देख रही थी, मानो चांद से कुछ कहना चाह रही थी। तभी एकांत में जाने किस पल शुभेंदु उसके करीब आकर उससे सटकर बैठ गया। पूर्णिमा की चांदनी में उसका सलोना सा रूप आज भी उसके मन में सजीव हो उठा था। उस के बालों और शरीर की खुशबू ने शुभेंदु को पागल बना दिया था। उसने नेहा को कसकर गले लगा लिया। नेहा की आंखों में आंसू थे और होंठों पर अधूरी प्यास। वो मुस्कुराने की असफल कोशिश कर रही थी।
शुभेंदु उसके मन का हाल समझ रहा था। उसने दिलासा देते हुए कहा, “नेहा, मुझे थोड़ा समय दो, नौकरी लगते ही मैं तुम्हारे बाबूजी से तुम्हारा हाथ मांगूंगा।”
शुभेंदु दूर जाने के बाद लगातार सोचता रहा कि नेहा उसका इंतजार करेगी, लेकिन एक साल के भीतर जब वो बड़ी बहन की शादी पर वापस लौटा तो नेहा का ब्याह तय हो गया था। शुभेंदु पर जैसे गाज गिरी, उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह सच भी हो सकता है। वो समझ नहीं पाया कि यदि नेहा इंतजार करने में असमर्थ थी तो कम से कम एक खत ही डाल देती, वो किसी भी तरह शादी रुकवा देता।
अचानक स्पर्श से नेहा की तंद्रा टूटी।
भाभी थीं, “देख नेहा, हम अब कुछ भी कर सकने की स्तिथि में नहीं हैं, इसलिए नहीं कि हम कुछ कर नहीं सकते, बल्कि इसलिए कि हमारे किसी भी हस्तक्षेप से तुम्हारे संबंधों में खटास आएगी, तनाव और बढ़ेगा।” भाभी द्वारा बताया ये सच नेहा को आरोप सा लगा, जिसमें ये भावना नजर आ रही थी अब हम से क्या मतलब?
नेहा झटके से उठी और उस कमरे की ओर मुड़ गई, जिसे शादी के पहले उसका कमरा कहा जाता था। कमरे की एक अलमारी में नेहा का सारा सामान समेटकर रख दिया गया था।
अचानक हाथों में एक छोटी सी डायरी आ गई। किसकी दी हुई है? जब उसे झाड़ा तो यादों के तार झनझना उठे। हिचकिचाते हुए डायरी को खोला तो मुख्य प्रष्ठ पर ‘शुभेंदु’ लिखा था। नेहा पल भर को मौन हो गई, फिर उसने पढ़ना शुरू किया,
‘तुम्हारे स्वर में कुदरत का एक मधुर जादू समाया हुआ है जो तुम्हें सामान्य से विशिष्ट बनाता है। तुम्हारे सुरों का इंद्रजाल तुम्हारी छवि को इतना सुंदर बनाता है कि एक-एक कतरा उसमें खो जाता है। तुम्हारे सुरों में प्राणों का कंपन है, गीतों में हृदय की अनुगूंज है। यदि सभी बाधाओं को दरकिनार कर ऐसे ही साधना करती रहीं तो एक दिन तुम शिखर को छूओगी।’
नेहा ने नम आंखों से डायरी को देखा, फिर खुद को संयत कर सोचने लगी, ‘शायद सारा कसूर उसी का है। जिस आत्मविश्वास के साथ वो हिमेश के सामने अपनी बात रखती है, उसी आत्मविश्वास, उसी मजबूती के साथ अपनी बातों-तर्कों पर अमल क्यों नहीं करती? नहीं करती, क्योंकि वो नहीं कर पाती। आखिर वो हिमेश की इजाजत की आकांक्षी क्यों हो जाती है? पता नहीं क्यों? शायद मन में छिपा डर का एक छोटा सा कतरा कोई कदम उठाते समय फैलकर आत्मशक्ति को कुंठित कर देता है या फिर संस्कारगत दब्बूपना जागृत होकर उसकी सारी बौद्धिक सक्रियता को रोक देता है या फिर…’
उसने सहेज कर डायरी को अलमारी में रखा और मेन गेट पर पहुंच गई।
भाभी मिल गईं गयीं। बोलीं, “आज तो रुकना था न नेहा? कहां जा रही हो?”
“अपना रास्ता खुद बनाने,” उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया और बाहर निकल गई।
- पुष्पा भाटिया
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