कल आधी रात के बाद बारिश के तेवर थोड़े ढीले हुए थे। सुबह की धूप बहुत अच्छी लग रही थी, एकदम नई-नई सी। आसमान धुलकर एकदम चमक रहा था। सूरज भी कई दिनों बाद झांका था। धूप का एक टुकड़ा खिड़की से कूदकर पलंग पर उछला तो वो धूप को ओढ़कर बिस्तर पर पैर फैला कर बैठ गईं।
वो यानी कंचन मणि… शहर के जाने माने एकमात्र गर्ल्स कॉलेज के हॉस्टल की कड़क वॉर्डन। पिछले बीस वर्षों से यही नाम सभी की जुबान पर चढ़ा हुआ था।
दस-बीस बार पढ़ चुकने के बावजूद अपना आई पैड दोबारा खोलकर पिता का मेल पढ़ा। फिर न जाने क्या सोचकर उन्होंने आई पैड को बंद किया और छोटे तौलिए से शीशे और खिड़की की सलाखें साफ कीं। सभी पर बरसात की नमी जम गयी थी।
तभी एक प्रश्न उनके मन में उभरा,“क्या कोई नमी पोंछने से छूट जाती है?”
कितने दिन, महीने, साल बीत गए… छोटे-छोटे गांव, नगर, भीड़ भरे शहर… और अब बीस वर्षों से यहां, इन सर्पाकार घाटियों के बीच एक वॉर्डन की हैसियत से… यहां से कहां जाना होगा?
एक साल बाद वो रिटायर हो जाएंगी। तब पांव के नीचे कौन सी पगडंडी, कौन सा रास्ता होगा!
उन्होंने महसूस किया, टाइप किए शब्दों के पीछे श्रीधर सामने आकर खड़े हो गए हैं, और कह रहे हैं, “जब सारे दायित्वों से तुम्हें मुक्ति मिल जाए और हर सवाल, संशय तथा संकुचित सोच तुम्हारी जिंदगी के दायरे से अलग हो जाए, तब ऐसे ही तुम्हें आना है मेरे पास जैसे अंधकार भरी आंधी के बाद, खुले खुशनुमा वातावरण को पाकर पंख फैलाकर पक्षी खुश होकर अपने-अपने नीड़ों की तरफ उड़ते हैं।”
कुछ शोर सा उठा। ये सत्र समाप्त हो गया है। नया सत्र शुरू होने में डेढ़-पौने दो महीने का समय बाकी है। सब अपने अपने घर जाने और यहां की बंदिशों से आजाद होने की खुशी में चहक रही हैं। लड़कियों का मन उदास भी है। एक साथ रहे अंतरंग ग्रुप्स, सारे बिखर जाएंगे, इनकी जिंदगी के कैनवास भी अपनी-अपनी तरह के होंगे। पहले बस स्टैंड, स्टेशन, यहां से घरों के सुरक्षित अहाते, फिर ऑफिस… काश! इन्हीं रास्तों पर अनेक श्रीधरों को किसी कंचन मणि का इंतजार न करना पड़े।
तभी खिड़की पर हंसी-मजाक की आवाजें सुनाई दी। कमरों, बरामदों में खुशियों के इंद्रधनुष खिंच रहे थे। ये मखमली एहसास, ये हंसती पलकें, मोरपंखी सुहाने सपने… बस यूं ही बने रहें।
उनकी झोली में भी तो इतने ही खूबसूरत और नशीले सपने थे जिन्हें हर दिन बिना भूले श्रीधर ओस में भीगे गुलाब से महकाया करते थे।
कंचनमणि के चेहरे पर चढ़ा हुआ कठोर मुलम्मा धीरे-धीरे पिघलने लगा। चालीस साल पहले की कंचनमणि के दिल पर भी एक लंबी कैद से मुक्ति की खुशी संतूर की तरह बजने लगी।
तभी पिता के पत्र के शब्द आंखों में लहराए-
‘बेटी कंचन, मेरी जैसी बेइज्जती नरेश के घर में हो रही है, ऐसी किसी दुश्मन की भी न हो। दोनों बड़े भाईयों को तूने अपनी खुशियां हवन करके और उम्र की बूंद-बूंद स्वाहा करके डॉक्टर, इंजीनियर बनाया। आज कारों, कोठियों और नौकरों के बीच आराम से जीवन जी रहे हैं। न मिलने आते हैं, न बुलाते हैं। खुद मिलने चला जाता हूं तो ऐसी बेरुखाई और तिरस्कार मिलता है कि नौकर भी अगल-बगल हंसने मुस्कुराने लगते हैं।
छोटा नरेश तो पढ़ाई-नौकरी में शुरू से ही ढीला रह। गरीब लड़की से इसीलिए ब्याह करवाया कि आदर से दो रोटी देगी। तुमने तो मना भी किया था, फिर भी मैंने अपने गांव वाला मकान बेचकर इसके लिए घर बनवा दिया, घर में जरूरत की सारी चीजें जुटायीं, पूरी पेंशन देता हूं, लेकिन इसकी बीबी ने भी मेरा जीना मुहाल कर दिया है। सारा काम मुझसे करवाती है, उसके बाद दो-तीन रोटियां ऐसे फेंकती है जैसे मैं कोई भिखारी हूं। दुख होता है कि इन कपूतों के घमंड में हमने तुम्हारी जैसी बुद्धिशीला और मेहनती बेटी की कद्र नहीं की। अब तुम रिटायर हो रही हो, मुझे अपने पास ही रखना, ताकि मेरी मिट्टी खराब न हो।”
कंचनमणि के चेहरे पर उदासी छा गई। वो समझ गई थीं की एक कुशल बहेलिये की तरह पिता उन्हें अपने जाल में घेरने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। शोषण करने की भी सीमा होती है। ये पिता न अच्छे प्रधानाचार्य रहे और न घर के अच्छे व्यवस्थापक ही रहे। जगह-जगह ट्रांसफर होता रहा, अभावों से ग्रस्त कुनबा भी साथ साथ ही घिसटता रहा।
मां जो भी पैसे बचातीं, पिता के नशे की लत में होम हो जाते। अभावों के साथ घर में हर समय कोहराम मचा रहता।
एक दिन नशे में धुत्त वो किसी नाली पर सड़क के किनारे पड़े थे। तीनों बेटे नाक भौं चढ़ाए पास खड़े थे। मां माथा पीट पीट कर चीख रही थीं। दूसरे दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
फिर तो भूख-प्यास के जंगल पाटने के लिए वो सारी उम्र तन-मन के रेगिस्तान में भंवर सी दौड़तीं भटकतीं रहीं, सबके लिए आहुति बनती रहीं। भाईयों को ऊंची शिक्षा दिलाने के लिए, अतिरिक्त कमाई के चक्रवातों में पिसती रहीं।
साथ पढ़ी लड़कियों की शादियां होती रहीं और वो भीतर ही भीतर किर्च किर्च होती रहीं, खुरदुरी पगडंडियों पर जिंदगी को दौड़ाती रहीं, हर मौसम को गुजरता देखती रहीं।
उन्होंने सुना था कि एक खास उम्र पर मन में कोयल कुहक उठती है, पलकों पर वसंत झुक आता है और चाल में रंगीन रंग लहराने लगते हैं… उन्हें सब मजाक लगता। उन्हें तो बस इतना याद है कि उनकी उम्र कहीं ठहर गयी है, इन पहाड़ियों पर जमी बर्फ की तरह।
तभी ठंडी बयार सी धीमी-धीमी खुशबू लिए प्रोफेसर श्रीधर उनके सामने आकर खड़े हो गए। उन्हें देखकर सूखे सरोवर में जैसे मीठे जल के सोते बहने लगे।
“श्रीधर, तुम एक मधुर कविता हो, गीत हो, है ना..!”
“और तुम लय-छंद सी, बांसुरी की मीठी धुन सी, लोक गीत सी सुरीली तान हो,” वो उनकी हथेलियों पर गुलाब सजा कर हंस पड़ते।
कभी कभी बच्चों की सी जिद करके पूछ बैठते, “कंचन, कब तक यूं ही विवश बनी रहोगी? खूब हंसा करो, खुश रहा करो। अगर मेरी कविता को, मेरे वजूद को जीवंत रखना चाहती हो तो सहजता के साथ निडर रहना सीखो। मैं तुम्हें जलती-सुलगती राख में हाथ मलते हुए नहीं देख सकता, न अकेला छोड़ सकता हूं।”
कंचनमणि सप्रयास श्रीधर के लिए हंसती, गाती, गुनगुनाती, उनके चित्रों की आकृति और कविताओं की प्रतिबिम्ब बनी रहीं, लेकिन उनकी बाहों के साहिलों में बंधकर वर्षों की थकान मिटाकर विश्राम न कर सकीं।
श्री समझाते, “सभी अपना अपना स्वार्थ साधकर चले जाएंगे, तब तुम अकेली खड़ी रह जाओगी। बहुत किया सब के लिए, अब खुद के लिए करो।”
“कैसे समझाऊँ तुम्हें श्री, तुमने अपने मन की डोर एक ऐसे नाम के साथ बांधी है जहां दुख, दर्द और अकेलापन है। क्या मैं नहीं जानती तुम्हारे मन की हलचल को? तुम्हारे त्याग को, लेकिन...”
“लेकिन क्या? मैं स्नेह और प्यार को पूजा का स्थान देता हूं। मैं तुम्हारी यात्रा को, तुम्हारे अकेलेपन को बांटने का सहयात्री बनना चाहता हूं। मैं जानता हूं, तुम मुझे अपना दर्द कभी नहीं बताओगी…”
“ऐसा नहीं है श्री! आज कहती हूं, जब अकेले बंजर जमीन पर चलते चलते थक जाउंगी, जब सारे स्वार्थों के ग्रहण मुझे आजाद कर देंगे, तो ये मेरा वादा है, तुम्हारे ही द्वार पर दस्तक दूंगी। हम दोनों की वीरान जिंदगी का टापू तुम्हारे दिए गुलाबों से महक उठेगा।”
और उनकी खामोशी में ये ‘कब’ आज तक गूंज रहा है। जैसे-जैसे रिटायरमेंट पास आ रहा है, वैसे-वैसे देवदार की तरह श्रीधर उनके सामने आकर खड़े हो जाते हैं, मन का हाहाकार दोगुना हो जाता है। वो सोचती हैं, ‘क्या सचमुच उन्हें आवाज देने का समय आ गया है? क्या मुरझाए गुलाब फिर से पूजा की आरती बन सकेंगे?’
अचानक उनके मोबाइल पर एक मैसेज उभरा। उनकी स्टूडेंट छोटी बहन सरीखी विनी थी, “दीदी, एक महीने पहले श्रीधर अचानक मिल गए थे। काफी कमजोर दिखायी दे रहे थे। नौकरी से रिटायर हो गए हैं। पीली चट्टान पर बहुत सुंदर घर बनवा लिया है, क्यारियों में कई किस्म के ढेरों गुलाब लगवाए हैं।
पूछा तो बोले, ‘कंचन को गुलाब बहुत पसंद हैं न। अचानक किसी दिन आ गयी तो…’ और फिर बच्चों की तरह कभी हंसने लगते, कभी रोने लगते। दीदी, मेरी मानो और अपना बोरी बिस्तर समेट कर श्रीधर के पास चली आओ।”
उनकी आंखों से न जाने कब दो गर्म बूंदें उनकी खुली हथेली पर टपक पड़ीं। कंचनमणि ने एक बार फिर विनी का मेल दोबारा पढ़ा, अपने आई पैड पर कुछ पंक्तियां टाइप कीं। फिर बड़े शांत भाव से मेज से सारे कागज और फाइलें एक ओर सरका दीं, मानो फटे पुराने संदर्भों को बुहार रही हों और नई राह के लिए निर्णय लेकर कोई संधि-पत्र लिख रही हों।
“श्री, तुम्हारे पास पापा का पत्र भेज रही हूं, बिना हिचकिचाए तुमसे मदद मांग रही हूं। मेल मिलते ही जाकर उन्हें ले आना। बेटा-बहू कुछ कहें तो कह देना कि कंचनमणि ने भेजा है। ये आखिरी दायित्व तुम्हारे साथ साझे में पूरा करना चाह रही हूं। श्री, दौड़ते-भागते बहुत थक गयी हूं। दरवाजे पर दस्तक नहीं दूंगी, सीधे आंगन में आकर तुम्हारा नाम पुकारूंगी, दरवाजा खुला रखना।”
- पुष्पा भाटिया
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