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निमोनिया में फेफड़ों से बजती है सीटी:1 मिनट में 22 बार सांस ले रहे तो स्थिति गंभीर; डायबिटीज-कैंसर मरीजों के लिए जानलेवा

नई दिल्ली5 महीने पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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निमोनिया। यह कैंसर या एड्स की तरह जानलेवा तो नहीं पर इसे बीमारियों की दुनिया का बच्चा समझने की भूल कभी न करें। हमने अक्सर छोटे बच्चों खासकर नवजातों को निमोनिया होने के बारे में सुना है, लेकिन बुजुर्ग और युवा भी इस बीमारी की चपेट में आकर जान गंवा सकते हैं।

खासकर दिल्ली जैसे महानगरों में रहनेवाले लोग प्रदूषण के कारण निमोनिया से पीड़ित हो सकते हैं। मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनकी बहू ऐश्वर्या राय को भी निमोनिया हो चुका है। अमिताभ की कई फिल्मों में को-स्टार रहे शशि कपूर भी अपने अंतिम समय में कई गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे, निमोनिया भी उसमें से एक था। स्वर कोकिला लता मंगेशकर का निधन हुआ तो वह भी निमोनिया से ही पीड़ित थीं। लंबे समय तक उनका निमोनिया का इलाज चला था। उम्र के साथ होने वाली बीमारियां जब बिगड़ती हैं तो अक्सर निमोनिया की शक्ल ले लेती हैं।

बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को होने वाली ये बीमारी निमोनिया है क्या। यह जानने से पहले ग्राफिक के जरिए समझते हैं कि भारत और दुनिया में निमोनिया कैसे कहर बरसा रहा है।

फेफड़ों का इंफेक्शन ही निमोनिया है

निमोनिया (PNEUMONIA) ग्रीक शब्द न्यूमॉन से निकला है। न्यूमॉन का मतलब है फेफड़े यानी लंग्स। इसलिए जब हम निमोनिया बोलते हैं तो इसका मतलब फेफड़े की बीमारी होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो फेफड़ों में इन्फेक्शन या सूजन आना ही निमोनिया है।

क्या फेफड़ों में पानी भरना निमोनिया है?

फेफड़ों में पानी भरना निमोनिया नहीं है। निमोनिया या फेफड़े की दूसरी बीमारियों के कारण फेफड़ों में फ्लूड जमा हो सकता है इस मेडिकल कंडीशन को पलमनरी एडेमा कहा जाता है। महाराष्ट्र के वर्धा स्थित दत्ता मेघे इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के प्रोफेसर डॉ. बाबा जी घेवाड़े बताते हैं कि फेफड़े के एलेवेली (बैलून जैसी संरचना जिसमें हवा भरी होती है) में फ्लूड भरने लगता है। इससे ब्लड में ऑक्सीजन की सप्लाई ठीक से नहीं हो पाती और न ही कार्बन डाई ऑक्साइड शरीर से बाहर हो पाता है। ऐसे में रेस्पेरेटरी फेल्योर होने की आशंका बढ़ जाती है। फेफड़ों में पानी भरने के और भी कई कारण हो सकते हैं जैसे किडनी फेल होना, हार्ट का ठीक से ब्लड पंप नहीं करना, लिवर सिरोसिस, खून में इंफेक्शन, दवाइयों का रिएक्शन आदि।

गुब्बारे की तरह फूलते-सिकुड़ते हैं लंग्स, निमोनिया में हो जाते हैं सख्त

जब हम सांस लेते हैं तो हमारे लंग्स गुब्बारे की तरह फूलते हैं और सांस छोड़ने पर लंग्स सिकुड़ते हैं। सामान्य रूप से फेफड़े सॉफ्ट स्ट्रक्चर के होते हैं। लेकिन निमोनिया होने पर फेफड़ों की हालत फूले हुए गुब्बारे में बालू भरने जैसी हो जाती है। यानी वे न फैलेंगे और न ही सिकुड़ेंगे। इस स्थिति में फेफड़े सॉफ्ट न रहकर रिजिड स्ट्रक्चर के हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन्फेक्शन की वजह से फेफड़े सख्त हो जाते हैं और हमें सांस लेने में तकलीफ होती है।

निमोनिया में खांसी से निकलने वाले पस को कफ समझना सबसे बड़ी गलती

दिल्ली के RKLC मेट्रो हॉस्पिटल के पल्मनोलॉजिस्ट डॉ. राकेश कुमार यादव बताते हैं कि फेफड़ों का काम है ऑक्सीजन लेना और कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ना। लेकिन जब व्यक्ति निमोनिया से पीड़ित होता है तो फेफड़ों में इन्फेक्शन हो जाता है। इससे मवाद भर जाता है, जिससे गैस एक्सचेंज का काम रुक जाता है। यानी ऑक्सीजन अंदर डिफ्यूज नहीं होती, न ही कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलती है। ऐसे में मरीज को लगातार खांसी आती है। खांसी के जरिए ही ये पस बाहर निकलता है। मरीज यह नहीं जान पाता कि यह कफ है या पस।

पॉल्यूशन के पार्टिकल्स को रोकने के लिए लंग्स करते हैं मशक्कत

पॉल्यूशन की वजह से जो कफ या बलगम बनता है उसे ‘एक्यूट ब्रॉन्काइटिस’ कहते हैं। जब हवा में PM2.5 और PM10 की मात्रा बढ़ जाती है और ये हमारी श्वास नली में पहुंचते हैं तो सांस की नली में सूजन होने लगती है। हालांकि हमारे शरीर का प्रोटेक्शन सिस्टम इन पार्टिकल्स को रोकने की पूरी कोशिश करता है। इसे स्टेप वाइज समझते हैं-

  • सांस के जरिए हवा शरीर में जाती है। नाक के छोटे-छोटे बाल हवा में मौजूद बड़े पार्टिकल्स को रोक लेते हैं।
  • नाक में ही विशेष तरह के म्यूकोसा टिश्यूज होते हैं, जहां से मकोसा (चिपचिपा पदार्थ) निकलता है जिसमें PM2.5 और PM10 पार्टिकल्स चिपक जाते हैं। इसे हम कहते हैं कि नाक से पानी आ रहा है यानी सर्दी लग गई है। ये पार्टिकल्स इस तरह शरीर से बाहर निकल जाते हैं।
  • पॉल्यूशन के फाइन पार्टिकल्स बॉडी के अंदर जाने की कोशिश करते हैं तो एयरवेज में मौजूद गोबलेट सेल्स भी मकोसा छोड़ते हैं। जिसमें प्रदूषण के कण चिपक जाते हैं।
  • ये पार्टिकल्स शरीर के अंदर गए तो किसी भी हिस्से में पहुंचकर इम्यूनिटी कमजोर करते हैं। फिर निमोनिया के साथ कैंसर और दूसरी बीमारियां तक हो सकती हैं। ब्रेन में पॉल्यूशन के पार्टिकल्स पहुंच जाएं तो पूरा नर्वस सिस्टम डैमेज हो सकता है।

तो क्या प्रदूषण से फेफड़ों में जो बलगम बनेगा वह बैक्टीरिया, वायरस और फंगल से होने वाले इंफेक्शन से अलग होगा। इसे समझने की जरूरत है।

वायु प्रदूषण के कारण PM10 और PM2.5 जब श्वास नली में आते हैं तो ट्रेकिया और ब्रॉन्कस में सूजन आती है। इसे ‘एक्यूट ब्रॉन्काइटिस’ कहते हैं। ये स्टेज निमोनिया नहीं है, बल्कि इसे ‘लोअर रेस्पिरेटरी ट्रैक इंफेक्शन’ कहा जा सकता है।

लेकिन जब कोई लगातार सिगरेट पीता है, कोई ईंट भट्‌ठे या धूल वाली जगह पर काम कर रहा है, जैसे सड़क बनाना, क्रशर मशीनों के पास काम करना तो ऐसे लोगों को क्रॉनिक ब्रॉन्काइटिस हो जाता है। उनके ट्रेकिया और ब्रॉन्कस में परमानेंट सूजन रहती है। इसलिए जब भी उन्हें खांसी आएगी, बलगम बाहर आएगा। ये निमोनिया की खांसी में निकलने वाले कफ से अलग होगा।

प्रदूषण से होने वाले फेफड़ों के इन्फेक्शन को बॉडी धीरे-धीरे स्वीकार लेती है। शरीर का सिस्टम इससे परेशानी महसूस नहीं करता है। लेकिन निमोनिया में फेफड़े सख्त हो जाते हैं, जो परेशानी का कारण बनते हैं। अब समझते हैं कि निमोनिया का बलगम प्रदूषण से होने वाले बलगम से कैसे अलग है।

अभी सर्दियों के दिन शुरू हो गए हैं। साथ ही दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई शहर प्रदूषण की चपेट में हैं। सांस लेने में परेशानी, खांसी, आंखों में जलन की शिकायत लेकर लोग अस्पताल पहुंच रहे हैं। तो फिर निमोनिया को कैसे पहचानें?

सांस फूलना या तेजी से सांस लेना

नॉर्मल इंसान एक मिनट में 12 से 15 बार सांस लेता है। लेकिन निमोनिया होने की स्थिति में पीड़ित व्यक्ति जल्दी-जल्दी सांस लेने लगता है। इसके मरीज किसी अपनी बात को एक बार में पूरा नहीं बोल पाते। यानी मरीज सेंटेंस को तोड़-तोड़कर या रुक-रुककर बोल पाता है।

डॉ. राकेश बताते हैं कि निमोनिया से पीड़ित व्यक्ति जब जल्दी-जल्दी सांस लेता है तो उससे शरीर को काफी नुकसान पहुंचता है।

‘जब सामान्य रूप से हम सांस लेते हैं तो ऑक्सीजन फेफड़ों में जाती है और कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलती है। जब हम तेजी से सांस लेते हैं तो ऑक्सीजन लेने और कार्बन डाई ऑक्साइड निकलने की प्रक्रिया का बैलेंस डगमगा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो शरीर से ऑक्सीजन कम मात्रा में रहती है और कार्बन डाई ऑक्साइड ज्यादामात्रा में बाहर निकलने लगती है।

जब फेफड़ों में Co2 की मात्रा काफी कम हो जाती है तो ब्लड का pH भी बदल जाता है जिससे मरीज को ‘एल्कालोसिस’ हो जाता है। मरीज को कमजोरी महसूस होती है, जिसकी वजह से उसे बेहोशी भी आती है।’

खांसी आना: मरीज को लगातार खांसी आती है। खांसी के साथ हरा, पीला रंग का बलगम भी बाहर आता है।

छाती में दर्द: सांस लेने पर सीने में जोर का दर्द होता है। छाती बिल्कुल अकड़ सी जाती है।

बुखार रहना: तेज बुखार के साथ पसीना आना, हार्ट बीट बढ़ना इसके लक्षण हैं।

कंफ्यूजन: पेशेंट को कंफ्यूजन हो जाता है। उसे समझ में नहीं आता कि वह कहां है और क्या कर रहा है।

इन लक्षणों के बाद यह जानना जरूरी है कि किन्हें निमोनिया होने का रिस्क अधिक होता है। पहले CURB-65 के बारे में जानते हैं फिर आगे बढ़ते हैं।

CURB-65

CONFUSION, UREMIA, ELEVATED RESPIRATORY RATE, HYPOTENSION-65 साल से ऊपर के बुजुर्ग

इसका मेडिकल टर्म CURB-65 है। निमोनिया के मरीजों में कंफ्यूजन होना, ब्लड में यूरिया का लेवल बढ़ना, एक मिनट में 22 से ज्यादा बार सांस लेना, ब्लड प्रेशर का नीचे आ जाना गंभीर स्थिति को दर्शाता है। अगर कोई डायबिटीज, कैंसर या टीबी का मरीज है तो उसे निमोनिया का खतरा बढ़ जाता है।

बच्चों के लिए सबसे ज्यादा खतरा

डॉ. राकेश बताते हैं कि बच्चों में निमोनिया का खतरा सबसे अधिक होता है। चूंकि बच्चों की इम्यूनिटी कमजोर होती है इसलिए इन पर बैक्टीरिया और वायरस का अटैक अधिक होता है। ठीक होने पर भी वे उन्हें फिर से निमोनिया होने का खतरा होता है। चेस्ट में बार-बार इंफेक्शन होने को Recurrent Pneumonia कहा जाता है।

डॉ. राकेश का कहना है कि सामान्य प्रक्रिया है कि ब्लड पहले राइट हार्ट में जाता है वहां से फेफड़ों में ब्लड जाता है। ऑक्सीनेशन की प्रक्रिया होने के बाद यह ब्लड लेफ्ट हार्ट में जाता है। लेकिन बच्चे को निमोनिया होने पर ब्लड फेफड़ों में कम जाता है। इससे बच्चे की हालत खराब हो जाती है और इन्फेक्शन बढ़ जाता है। हार्ट पर लोड ज्यादा पड़ने लगता है। ऑक्सीनेशन की प्रक्रिया कम होती है। इससे इम्यूनिटी कमजोर होती है।

निमोनिया पीड़ित मरीजों की किडनी हो जाती है फेल

डॉ. राकेश कहते हैं कि जब ऑक्सीजन लेवल कम होते ही लंग्स का लचीलापन खत्म होता है। वे सॉलिड हो जाते हैं। मरीज को इन्फेक्शन होता है तो शरीर का इंफ्लामेटरी मार्कर एक्टिव हो जाता है। यह बताता है कि ऑक्सीजन लेवल कम हो रहा है और कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। ऐसे में शरीर फेफड़ों को बचाने के लिए कई केमिकल रिलीज करता है।

ये केमिकल बैक्टीरिया, फंगस और वायरस को खत्म तो जरूर करते हैं लेकिन साथ ही शरीर के लिए भी नुकसानदेह भी हैं। ये केमिकल शरीर के अंगों पर नेगेटिव असर भी डालते हैं। इसलिए कई बार पेशेंट आते तो निमोनिया की समस्या लेकर हैं, लेकिन इलाज के दौरान ही किडनी काम करना बंद कर देती है, हार्ट और लिवर भी सही ढंग से काम नहीं करते। नर्वस सिस्टम पर भी इस केमिकल का गलत असर पड़ता है। इससे मरीज बेहोश होने लगता है।

फेफड़ों से दिमाग तक पहुंच रहा टॉक्सिन

बर्मिंघम विश्वविद्यालय और चीन के रिसर्च इंस्टीट्यूट्स के वैज्ञानिकों ने बताया है कि सांस के जरिए फेफड़ों में पहुंचे PM2.5, PM 10 और PM0.1 पार्टिकल्स ब्लड में मिलकर ब्रेन तक पहुंच जाते हैं।

इन्वायरमेंटल नैनोसाइंसेज की प्रोफेसर इसल्ट लिंच अपनी स्टडी के आधार पर कहती हैं कि ये फाइन पार्टिकल्स ब्रेन में ज्यादा समय तक रहते हैं। इसके कारण कई तरह के ब्रेन डिसऑर्डर, न्यूरोलॉजिकल समस्याएं हो सकती हैं। बुुजुर्ग अल्जाइमर से पीड़ित हो रहे हैं। ब्लड से होकर जो पार्टिकल्स ब्रेन में पहुंचते हैं वो सांस के जरिए पहुंचने वाले पार्टिकल्स से आठ गुना ज्यादा होते हैं। फेफड़े में मौजूद बैरियर्स भी ‘अल्ट्राफाइन पार्टिकल्स’ रोकने में असमर्थ होते हैं।

हमने अब तक जाना कि निमोनिया का मुख्य कारण बैक्टीरिया, वायरस, इंफ्लुएंजा और फंगस है। कई बार निमोनिया को अस्थमा समझने की भूल की जाती है। लेकिन निमोनिया अस्थमा नहीं है। इसे ग्रैफिक से समझते हैं।

डॉ. राकेश बताते हैं कि निमोनिया के पेशेंट को अपने खानपान में सावधानी बरतने की जरूरत होती है। लापरवाही बरतने पर मरीज की स्थिति गंभीर हो जाती है। बुजुर्गों की डाइट पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है। इसे इस ग्रैफिक से समझते हैं।

निमोनिया के बारे में हमने इतनी बातें जान लीं। यह साफ है कि जो लोग प्रदूषण वाले इलाके या माइंस के करीब वाले एरिया में रहते हैं वो COPD (क्रॉनिक ऑब्स्ट्रक्टिव पल्मनरी डिजीज), अस्थमा और सांस से जुड़ी दूसरी बीमारियों से जूझते हैं। जो इन बीमारियों से पीड़ित होते हैं उन्हें निमोनिया होने का रिस्क अधिक होता है। खासकर 2 से 5 साल के बच्चे इसके अधिक शिकार होते हैं। अगर एहतियात बरती जाए तो बच्चों और खुद को निमोनिया से बचा सकते हैं।

ग्रैफिक्स: सत्यम परिडा

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