मेघालय की खासी और गारो जनजातियों में पुरुष बराबर के अधिकारों की मांग कर रहे हैं। इन जनजातियों में शादी होती है तो पुरुष की डोली लड़की के घर जाती है और परिवार की संपत्ति की वारिस भी बेटी ही बनती है। इतना ही नहीं परिवार में सरनेम भी महिला सरनेम के आधार पर ही चलता है।
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रस्मो-रिवाज के लिए जाना जाता है खासी गारो समुदाय
मेघालय का खासी और गारो जनजाति समुदाय सदियों से मातृवंशीय परंपरा को मानता आ रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय से यहां महिला-पुरुष बराबरी को लेकर आवाज उठने लगी है।
ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि कई परिवारों में बेटियां नहीं हैं या फिर अगर बेटी शादी के लिए जनजाति समुदाय से अलग किसी लड़के को चुनती है तो वह बाहर चली जाती है। ऐसे में वारिस को लेकर समस्या पैदा हो जाती है।
पुरुषों को महिलाओं के दबदबे से आजाद करने के लिए 33 साल से चल रही संस्था
सिंगखोंगग रिम्पई थेम्माई (एक नया घर) नामक संस्था मेघालय की मातृ सत्तात्मक प्रणाली को खत्म करने के लिए काम कर रही है। इस संस्था की स्थापना अप्रैल, 1990 में हुई थी। संस्था के अधिकारियों के मुताबिक इसका उद्देश्य पुरुषों को महिलाओं के दबदबे से आजाद करना है।
महिलाएं फैसला करती हैं, बेटी को मिलता हक
खासी समुदाय में फैसले घर की महिलाएं ही करती हैं। यहां घर-परिवार और समाज को संभालने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है।
बच्चों को उपनाम भी मां के नाम पर दिया जाता है। पैतृक संपत्ति पर बेटियों, खासकर सबसे छोटी बेटी का हक होता है। माता-पिता का ख्याल रखने के लिए छोटी बेटी मायके में ही अपने पति के साथ रहती है। छोटी बेटी को खाडूह/रप यूंग/रप स्नी के नाम से जाना जाता है। अगर खाडूह अपना धर्म बदल लेती है तो उनसे परिवार की देखभाल करने की जिम्मेदारी छीन ली जाती है।
बर्मा से आकर उत्तर पूर्वी भारत में बसी ये जनजातियां
करीब 17 लाख आबादी वाली खासी जनजाति के लोग मुख्य तौर पर मेघालय के खासी और जयंतिया हिल्स पर बसे हुए हैं। असम, मणिपुर, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में भी इनकी अच्छी तादाद है।
बताया जाता है कि ये लोग बर्मा यानी आज के म्यांमार के प्रवासी हैं। सदियों पहले म्यांमार से आकर इन लोगों ने मेघालय समेत पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्रों में अपनी बस्तियां बसाईं। वहीं मेघालय में गारो जनजाति की आबादी करीब 30 लाख है।
वंश चलाने के लिए बेटी पैदा होती तो मनाया जाता है जश्न
बेटियों के जन्म लेने पर यहां जश्न मनाया जाता है, जबकि भारत के बाकी हिस्सों के उलट बेटे के जन्म पर वहां इतनी खुशी नहीं होती।
हर परिवार चाहता है कि उनके घर में बेटी पैदा हो, ताकि वंशावली चलती रहे और परिवार को उसका संरक्षक मिलता रहे। बच्चों की जिम्मेदारी भी महिलाएं ही उठाती हैं, पुरुषों का बच्चों पर उतना अधिकार नहीं होता।
कभी केरल के नायर समुदाय में भी थी मातृ सत्तात्मक व्यवस्था
20वीं सदी से पहले केरल का नायर समुदाय भी मातृ सत्तात्मक समाज हुआ करता था, जिसे 1925 में कानून के जरिए बदला गया था। इसके बाद मेघालय भारत में इकलौती ऐसी जगह बची, जहां मातृ सत्तात्मक परिवारों का चलन है।
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