2015 में अमेरिका में एक टीवी सीरीज आई थी- ‘द लास्ट मैन ऑन अर्थ’। इस सीरीज में एक महामारी के बाद दुनिया में जिंदा बचे आखिरी शख्स की कहानी दिखाई गई थी। तमाम सुख-सुविधाओं और बिना किसी रोक-टोक के अकेले रहना उस शख्स को शुरू में खूब रास आता है। लेकिन जल्दी ही वह इस जिंदगी से ऊब कर सुसाइड की सोचने लगता है। पूरी दुनिया में यह सीरीज काफी पॉपुलर हुई।
ब्राजील के ‘रेन फॉरेस्ट’ अमेजन से अब एक ऐसी ही कहानी सामने आई है। ‘रेन फॉरेस्ट’ यानी ऐसा जंगल जहां साल भर बारिश होती रहती है। ठीक जैसे हमारे देश में चेरापूंजी में बारिश नहीं रुकती। अमेजन के इन रहस्यमय जंगलों में पिछले 26 सालों से अकेले रह रहे इंसान की मौत हो गई है।
उसे न आज की दुनिया की भाषा आती थी और न ही वह कभी किसी दूसरे इंसान से मिला। अकेले रहने वाले इस व्यक्ति के पास अपना कोई नाम तक नहीं था। दुनिया वालों ने उसे ‘मैन ऑफ द होल’ (Man of the hole) नाम दिया। वह भी इसलिए क्योंकि वह गड्डा खोदकर जानवरों का शिकार करता और वही उसका खाना था। अपनी जनजाति के इस इकलौते इंसान की मौत के साथ सैकड़ों साल पुरानी एक आदिम सभ्यता का अंत हो गया।
दुनिया भर के अलावा भारत में भी में ऐसे कई अनछुए इलाके हैं जहां लोग आज भी उसी अंदाज में रहते हैं जैसे हजारों-लाखों साल पहले आदमी रहा करता था। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में ही ऐसी 6 जनजातियां रहती हैं।
भारत में ‘जारवा’ जनजाति को देखने के लिए शुरू हुई थी ‘ह्यूमन सफारी’
जंगल सफारी यानी गाड़ी में सवार होकर जंगल घूमना। इससे तो सभी वाकिफ होंगे, मगर एक समय ऐसा भी आया कि बिना कपड़ों के रहने वाली इन आदिम जनजातियों को देखने के लिए ‘ह्यूमन सफारी’ शुरू की गई। ‘जारवा’ अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की एक जनजाति है, जिसका बाहरी दुनिया से लेना-देना न के बराबर है। अंडमान द्वीप पर रह रही जारवा जनजाति के इलाके से ‘अंडमान ट्रंक रोड’ निकाली गई। इसे बनाने के पीछे द्वीप को बेहतर ट्रांसपोर्टेशन सुविधाएं देने की सोच थी। लेकिन जल्द ही इस सड़क का इस्तेमाल ‘ह्यूमन सफारी’ के लिए किया जाने लगा।'
1990 के दशक तक जारवा लोगों का बाहरी दुनिया से किसी तरह का कोई संपर्क नहीं था। लेकिन सड़क बनने के बाद पर्यटकों की आवाजाही से उनकी जिंदगी प्रभावित होने लगी। रेंजर्स खाने और नशीली दवाओं के बदले जारवा महिलाओं को पर्यटकों के सामने नाचने के लिए मजबूर करते थे। कई बार इन महिलाओं के यौन उत्पीड़न की भी खबरें आईं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस सड़क को बंद करने के आदेश भी दिए, जिस पर पूरी तरह से अमल नहीं हो सका। इसके बाद ब्रिटिश संसद में भी इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित करके भारत सरकार से अपील की गई। 2004 में भारत सरकार ने घोषणा की कि वह जारवा लोगों को मुख्य-धारा में लाने के लिए अब कोई अभियान नहीं चलाएगी। उन्हें अपने तौर-तरीके से जीने दिया जाएगा। ‘ह्यूमन सफारी’ पर भी सरकार ने सख्त पाबंदी लगा दी। सड़क पर अब आवाजाही तो है, मगर जारवा के इलाके से गुजरते वाहनों के रुकने और उनके फोटो या वीडियो लेने की इजाजत नहीं है।
अब जानते हैं, भारत और दुनिया की सबसे अलग जनजाति सेंटीनल के बारे में
बंगाल की खाड़ी में मौजूद अंडमान-निकोबार द्वीप समूह दुनिया की कुछ सबसे अलग-थलग जनजातियों का घर है। इन्हीं में से एक जनजाति है ‘नॉर्थ सेंटीनल जनजाति’। यह आदिम जनजाति 60 हजार सालों से नॉर्थ सेंटीनल आईलैंड में रह रही है, जिसकी वजह से इसे यह नाम मिला। 4 साल पहले एक अमेरिकी पर्यटक ने अवैध तरीके से इस द्वीप पर जाने की कोशिश की। लेकिन सेंटीनल लोगों को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने उस पर्यटक को मार डाला। इससे पहले द्वीप के करीब जाने पर दो मछुआरों भी अपनी जान गंवा चुके थे।
महिला रिसर्चर के सामने जब सेंटीनल हो गए थे भावुक
1991 में एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की टीम को अंडमान-निकोबार के द्वीपों पर रह रहे आदिम जनजाति के सर्वे के लिए भेजा गया। लेकिन यह काम इतना आसान नहीं था। ये जनजाति जब भी बाहरी दुनिया काे देखती तो हमला कर देती। इसी वजह से टीम के कई सदस्यों ने सर्वे में जाने से इनकार कर दिया।
आदिम जनजाति से संपर्क की तमाम कोशिशों के नाकाम होने के बाद एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में रिसर्च एसोसिएट रहीं मधुमाला चटोपाध्याय आगे आईं। आश्चर्यजनक रूप से पुरुषों के सामने अक्रामक रुख अख्तियार करने वाले सेंटीनल लोगों ने मधुमाला को देखते ही अपने हथियार नीचे रख दिए। उन्होंने मधुमाला के दिए नारियल को भी प्यार से स्वीकार किया। और तो और एक-दूसरे की भाषा न समझने के बावजूद जनजाति समुदायों ने मुधमाला को अपने बच्चों के पास भी आने दिया।
जारवा समुदाय ने मधुमाला को अपनी बेटी कहा
इसके बाद मधुमाला ने 6 साल तक अंडमान के कई जनजाति समूहों के बीच काम किया। उनका काम से खुश होकर और लगाव के कारण ‘जारवा’ समुदाय की महिलाएं उन्हें अपनी बेटी मानने लगीं। मधुमाला ने अपनी किताब ‘Tribes of Car Nicobar‘ में बताया है कि इन समुदायों के साथ उन्होंने कैसे रिश्ते बनाए थे। मधुमाला चटोपाध्याय की यह किताब अंडमान के जनजातीय समुदायों के बारे में जानकारी का सबसे अच्छा स्रोत मानी जाती है।
572 द्वीपों में 12 ही पर्यटकों के लिए खुले हैं, कई में नहीं चलता भारतीय कानून
भारत सरकार ने जब से ऐसी जनजातियों के जीवन में किसी तरह का दखल न देने का फैसला लिया तब से अंडमान के 572 द्वीपों में से केवल 12 पर्यटकों के लिए खुले हैं। बाकी द्वीपों पर जाना गैर-कानूनी है।
2017 में राज्यसभा में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने बताया कि अंडमान-निकोबार द्वीप समूह (आदिम जनजाति संरक्षण) विनियम, 1956 के तहत इन द्वीपों पर बाहरी लोगों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। गृह मंत्रालय ने बताया कि सेंटीनल लोगों को अपने द्वीप पर अपने ढंग से रहने और काम करने की पूरी छूट है। इसलिए 2018 में अमेरिकी पर्यटक या मछुआरों की हत्या के लिए सेंटीनल लोगों पर भारतीय कानून के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई।
इन ट्राइब्स के लिए वायरस जैसे हैं बाहरी लोग
बाकी दुनिया के लोगों का बीमार पड़ना आम बात है, जिस वजह से उनके शरीर में इन बीमारियों से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बन गई है। लेकिन आदिम जनजातियों के शरीर में ऐसी एंटीबॉडी विकसित नहीं होती। जिसकी वजह से मामूली सर्दी-खांसी भी उनके लिए जानलेवा हो सकती है। यही कारण है कि आदिम जनजाति को बाहरी दुनिया से दूर रखा जाता है।
अंग्रेजों के संपर्क में आते ही खत्म होने लग गए थे ‘ग्रेट अंडमानी’
19वीं सदी में ब्रिटिश खोजकर्ता पहली बार अंडमान के ‘ग्रेट अंडमानी’ समुदाय के संपर्क में आए। लेकिन बाहरी लोगों से यह संपर्क ‘ग्रेट अंडमानी’ समुदाय के लिए जानलेवा साबित हुआ। इस समुदाय में ब्रिटिश लोगों में पाई जाने वाली चिकनपॉक्स जैसी कई बीमारियां फैल गईं। जिसके चलते देखते ही देखते पूरा ‘ग्रेट अंडमानी’ समुदाय खात्मे की कगार पर पहुंच गया।
दुनिया के इन हिस्सों में रहते हैं सबसे ज्यादा आदिम लोग
आदिम जनजातियों के काम करने वाली संस्था ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ के मुताबिक दुनिया भर में 100 से कुछ अधिक ऐसी जनजातियां हैं, जिनका बाहरी दुनिया से किसी तरह का कोई संपर्क नहीं है। इनमें से ज्यादातर अमेजन के वर्षावनों में पाए जाते हैं। शेष भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह और इंडोनेशिया के द्वीपों पर पाए जाते हैं।
‘नस्लीय हिंसा, बाहरी दखल और बीमारियां जनजातियों के लिए बड़ा खतरा’
जनजातियों के संरक्षण के लिए काम कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सर्वाइवल इंटरनेशनल’ के मीडिया और कम्यूनिकेशन ऑफिसर पाउला जमोरानो ओसोरियो ने वुमन भास्कर को बताया कि ‘लोग आदिम जनजाति को पिछड़ा समझने की भूल करते हैं, लेकिन वो हमारे समय में जीने वाले लोग हैं। उनकी अपनी संस्कृति है, जो हमसे किसी भी मामले में कमतर नहीं, बस हमसे अलग है। नस्लीय हिंसा, बाहरी दखल, प्राकृतिक आपदा और बीमारियां आदिम जनजातियों के लिए बड़ा खतरा हैं।’
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश जनजातियों की कब्र पर बसे
आज अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया या न्यूजीलैंड का नाम सुनते ही हमारे जेहन में गोरे लोगों का ख़याल आता है। लेकिन कुछ सौ साल पहले तक अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में कोई श्वेत व्यक्ति नहीं रहता था। यूरोप के निवासियों ने इन देशों पर आक्रमण कर वहां की आदिम जनजातियों को खत्म कर दिया। इन देशों के कुछ हिस्सों में आज भी इन जनजातियों के लोग रहते हैं। लेकिन उनकी संख्या और प्रभाव काफी कम है। 17वीं सदी तक अमेरिका में मूल निवासियों की संख्या तकरीबन एक करोड़ थी। लेकिन आज वो नाममात्र को ही बचे हैं।
कनाडा के कॉन्वेंट स्कूल में मिले थे सैकड़ों मूल निवासी बच्चों के कंकाल
अमेरिकी महाद्वीप पर जब यूरोपीय लोग आए तो उन्होंने बड़े पैमाने पर स्थानीय मूल निवासियों को ‘सभ्य बनाने’ का अभियान चलाया। उनके बच्चों के लिए चर्च की ओर से कॉन्वेंट स्कूल खोले गए थे। कनाडा के एक ऐसे ही स्कूल में पिछले दिनों 700 से अधिक मूल निवासी बच्चों के कंकाल मिले थे। बाद में ऐसे दूसरे स्कूलों की जांच की गई तो वहां की जमीन में भी ऐसी सैकड़ों कब्रें मिलीं। स्थानीय निवासियों को खत्म करने के लिए इन बच्चों की हत्या की गई थी। बाद में स्थानीय चर्च की ओर से अपने इस पुराने अपराध के लिए माफी भी मांगी गई। लेकिन तब तक कनाडा के मूल निवासियों की पूरी आबादी समाप्त हो चुकी थी।
बाहरी दुनिया से अनजान आदिम जनजातियों को आज भी बचाए रखना बड़ी चुनौती साबित हो रही है। इनकी पूरी नस्ल कहीं मिटा दी गई, तो कहीं ये प्राकृतिक आपदा का शिकार हो रहे हैं। और कभी ये बाहरी लोगों के संपर्क में आकर ऐसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं, जो उनके लिए जानलेवा साबित हो रही हैं। ऐसे में कई देशों की सरकारों ने माना है कि इन जनजातियों को 'सभ्य बनाने' की कोशिशें छोड़कर उनके समाज को डिस्टर्ब न करना ही बेहतर है।
ग्रैफिक्स: सत्यम परिडा
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