दिवाली आने वाली है। रोशनी, पटाखों और मिठाइयों के अलावा दिवाली पर जुआ खेलने का भी चलन है। हालांकि ज्यादातर लोग इसे सही नहीं मानते, लेकिन जो लोग ताश खेलने का शौक रखते हैं, उन्हें इसी में मिठाइयों सी मिठास, पटाखों की आवाज और दीये की चमक दिखाई देती है। ऐसे लोग पूरा फेस्टिवल वीक ताश के पत्तों के सहारे काट लेने का दमखम रखते हैं।
क्या आपको पता है दिवाली पर जुआ खेलने की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई? क्या आपको भगवान शिव और देवी पार्वती के बीच खेली गई जुए की बाजी के बारे में पता है, जिसमें पार्वती ने शिव को हरा दिया था?
आखिर क्या वजह रही कि हजारों साल पुराना जुए का यह खेल, जिसे कभी देवता खेला करते, बाद में इंसानों के लिए बुरा माना जाने लगा। किस भौगोलिक क्षेत्र में क्या रहा है इसका इतिहास। देश और विदेश के कानून इसके बारे में क्या कहते हैं? कितना बड़ा है ताश और जुए का कारोबार? यह सब जानेंगे आज फुरसत के रविवार में…
आपको शायद जानकर यह हैरानी होगी कि ‘जुआ’ मानव सभ्यता का सबसे पुरातन खेल है। हजारों साल पहले जब लोग शतरंज, लूडो, फुटबॉल, क्रिकेट और पब्जी से अनजान थे; तब भी वो जुआ खेलकर मन बहलाया करते थे।
मिस्र के पिरामिड से लेकर, वेद, पुराण और महाभारत तक में जुए का जिक्र मिलता है। बाइबिल और कुरान-हदीस में भी इसकी खामियां गिनाई गई हैं।
इंसान के ईजाद किए हुए इस सबसे पुराने खेल को कई तरीकों से खेला जाता है। गांव में लड़के कौड़ियों के सहारे दो-चार-दस रूपए का दांव लगाते हैं तो लॉस वेगास जैसे शहरों के कसीनों में रईसजादे करोड़ों रुपए पर किस्मत आजमाते हैं।
मुंबई में मटका सट्टा का चलन है तो बंगाली लॉटरी के सहारे रातों-रात अमीर बनने के सपने देखते हैं। ये सभी जुए के ही तो रूप हैं।
भगवान शिव और देवी पार्वती के बीच हुए जुए की कथा जानते चलें..
सबसे पहले ‘जुआ’ शब्द को जान-समझ लेते हैं
हिंदी में जिसे हम जुआ और अंग्रेजी में गैंबलिंग कहते हैं वो असल में संस्कृत का ‘द्यूत-क्रीड़ा’ है। हजारों साल पुराना जैन साहित्य का ये श्लोक देखिए-
अन्योन्यस्येर्षया यत्र विजिगीषा द्वयोरिति।
व्यवसायादृते कर्मं द्यूतातीचार इष्यते।
इसके बहुत साधारण से मायने हैं। हार-जीत की शर्त लगाकर ताश, चौपड़, शतरंज या कोई भी दूसरा खेल खेलना, जानवरों को आपस में लड़ाना सब जुआ कहलाता है।
ऋग्वेद में एक जुआरी को उसकी पत्नी ने छोड़ दिया था
ऋग्वेद भारत का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। इसका इतिहास लगभग 5 हजार साल पुराना है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि उस दौर में भी लोग जुआ खेलते थे। खाली खेलते ही नहीं थे; बल्कि इसके चक्कर में अपना सब कुछ गंवा भी देते थे।
ऋग्वेद के 10वें मंडल के कुछ सुक्त में एक जुआरी की कथा है। वह कहता है कि ‘इस जुए की लत के चलते मैं गरीब हो गया, मुझे कोई उधार नहीं देता और मेरी सुंदर पत्नी भी मुझे छोड़कर चली गई है।’ आगे के मंत्रों में उस जुआरी को जुआ छोड़ खेती में मन लगाने की नेक सलाह दी गई है।
ऋग्वेद की इस कथा के बीच आज के जमाने में जुआ को लेकर किस देश में क्या कानून है, इस ग्राफिक से जान लीजिए...
भगवान शिव-पार्वती के बीच दिवाली की रात को खेला गया था जुआ
ऋग्वेद की कहानी पढ़कर ऐसा मत समझिए कि दुनिया की सभी धार्मिक किताबों में जुए की बुराई ही की गई है। ऋग्वेद के कुछ हजार साल बाद लिखे गए ‘स्कंद पुराण’ में एक रोचक कहानी भी है।
एक बार भगवान शिव अपनी पत्नी देवी पार्वती के साथ दिवाली की रात को जुआ खेल रहे थे। इस खेल में पार्वती ने शिव को हरा दिया। अपनी जीत से गदगद मां पार्वती ने ऐलान कर दिया कि जो भी दिवाली की पूरी रात जुआ खेलेगा; उस पर सालभर मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी। यही वजह है कि दिवाली के अगले दिन का नाम ही 'द्यूत प्रतिपदा' यानी ‘जुआ दिवस’ रख दिया गया।
जुआ सार्वजनिक स्थानों पर खेलना प्रतिबंधित है, लेकिन दुनिया में एक ऐसा देश भी है जहां कोई रोक नहीं, देखिए ये ग्राफिक क्या बता रहा है...
मिस्र के पिरामिड से लेकर मेसोपोटमिया और चीन तक फैला है जुए का इतिहास
पश्चिमी खोजकर्ताओं को मेसोपोटामिया से करीब 5 हजार साल पुराना 6 फलकों वाला पांसा मिला है। इस पांसे का इस्तेमाल जुआ खेलने के लिए तब के अमीर लोग किया करते थे।
मिस्र के मशहूर पिरामिड से एक टैबलेट भी मिला है; जिस पर चंद्रमा और रात के देवता ‘थोथ’ के बीच हुए जुए का जिक्र मिलता है। हजारों साल पहले चीन में सौ कोड़ियों के सहारे खेले जाने वाले जुए का जिक्र भी है।
64 जरूरी कलाओं में एक मानी गई है जुआ खेलने की कला
आपने अक्सर 64 कलाओं का जिक्र सुना होगा। और यह भी कि भगवान श्रीकृष्ण इन सभी कलाओं को बखूबी जानते थे। क्या आपको पता है कि ग्रंथों में जिन 64 कलाओं का जिक्र है उसमें एक जुआ खेलने की कला भी है।
तभी अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं-
‘द्यूतं छलयतामस्मि-सभी छल विद्याओं में मैं जुआ हूं’
वैसे गीता का यह ज्ञान और पूरा का पूरा महाभारत एक जुए की वजह से ही तो हुआ था। जुए में द्रौपदी को जीतने के बाद कौरवों ने उसके साथ बुरा बर्ताव किया। जिसके बाद द्रौपदी ने कौरवों के विनाश की कसम खाई और पूरा महाभारत हो गया।
जुए के हैं हजारों रूप; समय, जगह और हैसियत के मुताबिक खेलते हैं लोग
जुआ खेलने के एक-दो नहीं; बल्कि हजारों तरीके हैं। वैसे जुआ नाम सुनते ही हमारे जेहन में 52 पत्तों के ताश के सहारे खेला जाने वाला खेल आता है। आज के समय में ज्यादातर जुआ इन्हीं पत्तों से खेला जाता है।
जिसको अपने दिमाग पर काफी भरोसा है वो ब्लफ़ या फ्लैश खेलता है। जो दिमाग की जगह अपनी किस्मत पर यकीन करते हैं वो आसान खेल ‘मांग पत्ती’ खेल लेते हैं। वैसे जानकारों के बीच 28, किटिस, कॉल-ब्रेक, पोकर, और कोट-पीस जैसे गेम भी खासे पसंद किए जाते हैं।
ताश की गड्डी में पत्ते तो 52 ही होते हैं पर इससे कई खेल खेले जा सकते हैं जैसे कि इस ग्राफिक में जिक्र है...
दिवाली की रात चौपड़, गंजीफा और पचीसी खेलती थीं मुगल शहजादियां
वैसे इस्लाम में जुए को हराम माना गया है। लेकिन फिर भी मुगल काल में गाहे-बगाहे जुए का जिक्र मिलता है। अकबर के दौर में तो दिवाली की रात मुगल शहजादियां जमकर चौपड़, गंजीफा और पचीसी खेलती थीं। अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल ने अपनी मशहूर किताब ‘आईना-ए-अकबरी’ में इस बारे में विस्तार से लिखा है।
जरा सुनिए कबीरदास भी जुए पर कुछ कह रहे हैं…
“कहत कबीर अंत की बारी। हाथ झारि कै चलैं जुआरी।”
मतलब, जुएबाजी के अंत में आपको हाथ और जेब झार कर यानी खाली कर जाना होगा। हो सकता है कि कबीरदास की इस वाणी को सुन कर पत्ताप्रेमी बीच फेस्टिवल में मायूस हो जाएं। उनके लिए अंग्रेजी की ये कहावत काम की हो सकती है।
Those who fail at a deck of cards are successful in love. And those who fail in love succeed in cards.
‘जो ताश में हारते हैं, वो प्यार में सफल होते हैं और जो ताश में जीतते हैं, वो प्यार की बाजी हार जाते हैं।’
प्यार और ताश की बाजी के बीच पत्तों के अंग्रेजी नाम जान लीजिए...
मुंबई में हाजी मस्तान-करीम लाला जैसे मटका किंग, मटका क्वीन का भी चला सिक्का
मटका एक नंबर गेम होता है। नंबर पर ही बेटिंग होती है। इसमें सुबह एक ओपनिंग नंबर होता है और शाम को एक क्लोजिंग नंबर होता है। ओपनिंग में जिस नंबर पर पैसा लगाया, उसका साढ़े नौ गुना रिटर्न मिलता है। अगर, आपने एक ही बार में ओपनिंग और क्लोजिंग दोनों ही नंबर पर खेले और दोनों ही जीत गए तो आपको ये पैसा साढ़े नौ गुना से काफी ज्यादा मिलता है। इसमें भी रेस की तरह लोग तुक्का लगाते हैं। इस नंबर गेम में जीरो को मिंडी कहते हैं।
वैसे टके का सिक्का उछाल कर भी जुआ में हार-जीत का फैसला हो सकता है। लेकिन शौकीनों ने इसके लिए तरह-तरह की भाषा ईजाद कर रखी है।
मटका सट्टा के जुआरी अपनी इज्जत को लेकर भी खासा संजीदा रहते हैं। वो जुआबाज या जुआरी की जगह बाकायदा ‘ मटका किंग’ या ‘मटका क्वीन’ कहलाना पसंद करती हैं।
मुंबई की गलियों में कई पॉपुलर मटका किंग और क्वीन हुए। जया मुंबई की मशहूर मटका क्वीन हुईं; उन पर दर्जनों मुकदमें दर्ज हैं। रतन भगत, कल्याण जी, सुकेश जैसे कई फेमस मटकाकिंग हुए।
मुंबई के पहला अंडरवर्ल्ड डॉन माना जाना वाला हाजी मस्तान भी ‘डायमंड क्लब’ के नाम से मटका अड्डा चलाता था। इस अड्डे पर रीम लाला, यूसुफ पटेल, वरदराजन जैसे डॉन अपनी किस्मत आजमाने आते थे।
जुए में नंबरों की अपनी अहमियत है तो इससे भावनाएं भी जुड़ ही जाती हैं, देखिए कैसे...
जुए से तय हुई थी भारत-बंग्लादेश की सीमा, पीएम मोदी ने माथा-पच्ची के बाद ठीक किया
जब देश में राजे-रजवाड़ों का शासन था, तब दांव पर बड़ी-बड़ी जागीरें लगती थीं। भारत और बांग्लादेश की सीमा पर ऐसे कई रजवाड़े थे, जिनके शासक आपस में शतरंज खेला करते थे। इसमें जीतने वाला हारने वाले के राज्य से एक गांव या इलाका ले लेता था।
मजे के बात ये थी कि जीतने वाले को वही इलाका मिलता था, शतरंज की बिसात के जिस इलाके में उसने सामने वाले को मात दी हो। इसके चलते कई बार एक राजा दूसरे राजा की सीमा के भीतर का गांव जीत जाता था। बाद में वही दो देशों की सीमा बन गई।
यह वजह है कि भारत के कई गांव बांग्लादेश बार्डर की भीतर थे और बांग्लादेश के कई गांव भीतर की सीमा में। साल 2015 में पीएम मोदी और बांग्लादेशी प्राइम मिनिस्टर शेख हसीना ने आपसी समझौते के तहत ऐसे गांवों की अदला-बदली कर जुए से पैदा हुई इस भौगोलिक समस्या को खत्म किया।
ये तो रही जुए की अजब-गज़ब कहानी, अब जानते हैं ताश कहां से आया और दुनिया के किन हिस्सों तक पहुंचा।
सबसे पहले आज के समय के ताश के पत्तों को समझते चलिए...
चीन से शुरू होकर यूरोप से दुनिया में फैला ताश का खेल
सबसे पहले ताश का खेल चीन में शुरू हुआ। 1294 में तांग राजवंश के शासन के दौरान ताश के खेल की शुरुआत हुई। यूजोंग के समय में ताश खेलने का चलन बढ़ा।
राजा यिजोंग की बेटी राजकुमारी लोंगचांग टाइम पास करने के लिए वेई राजवंश के सदस्यों के साथ पेड़ों की पत्तियों से यानी लीफ गेम (leaf game) खेला करती थीं, जिसने बाद में ताश का रूप ले लिया। शुरुआत में ताश खेलने के लिए पेड़ के पत्तों का ही इस्तेमाल किया जाता था। महज 100 साल में इस खेल ने नया रूप ले लिया और यह खेल पूरे यूरोप में फैल गया।
यूरोप के लोगों ने पेड़ के पत्तों की जगह लकड़ी के कार्ड बनाकर ताश खेलना शुरू किया। हालांकि, ये भारी होने की वजह से ज्यादा समय तक इस्तेमाल नहीं किए गए।
बाद में यूरोपियनों ने कागज के कार्ड बनाकर खेलना शुरू किया जो पूरी दुनिया में चलन में आया।
फ्रांसीसियों ने इस खेल में कई सुधार किए। कार्ड नए रंग-रूप में तैयार किए गए। इसे ग्राफिक से भी समझ सकते हैं...
ताश के पत्ते की मौजूदा डिजाइन का आविष्कार 1745 में एजन नाम के फ्रांसीसी ने किया। हालांकि भारत की बात हो तो यहां ताश का खेल 16वीं सदी में मुगल बादशाह बाबर के जमाने से शुरू हुआ। उस वक्त भी इसे टाइमपास माना जाता था।
हैंडीक्रॉफ्ट के बेहतरीन नमूने हैं दुनिया के सबसे दुर्लभ पत्ते
शुरुआत में यूरोप में ताश के पत्ते हाथों से ही रंग-बिरंगे अंदाज में बनाए जाते थे। ये पत्ते महंगे होते थे, जो आम आदमी की पहुंच से दूर थे। तब अमीर इंसान ही इसे खरीदकर इसके खेल का लुत्फ उठाते थे लेकिन जैसे ही छापेखाने का आविष्कार हुआ, तब से छपने वाले कार्ड काफी सस्ते हो गए और आम आदमी का यह पसंदीदा खेल हो गया। 17वीं सदी में फ्रांस के शाही परिवार ‘बाउल्स’ के तैयार किए गए 'लाइंज ऑफ दी सेट्स' दुनिया के सबसे दुर्लभ ताश के पत्ते माने जाते हैं। आज इसकी कीमत करीब 2 लाख रुपए है।
क्या आप जानते हैं कि ताश के पत्तों को फेंकना भी एक कला है और इसका भी दुनिया में रिकॉर्ड बना है।
ताश का 68 मंजिला महल बनाने का है विश्व रिकॉर्ड
'ताश' को खेलते समय उसे फेंटना और फेंकना अहम माना जाता है। दुनिया में सबसे अधिक दूरी तक ताश का पत्ता केबिल सैंट ओर्ग नाम के व्यक्ति ने फेंककर विश्व रिकॉर्ड' कायम किया था।
यह रिकाॅर्ड उन्होंने 12 जून 1979 को अमेरिका के हेनरी फोर्ड कम्युनिटी कॉलेज में आयोजित प्रदर्शनी में बनाया था। उन्होंने ताश का एक पत्ता 185 फीट तक फेंक कर सभी को हैरत में डालते हुए यह अनूठा रिकॉर्ड बनाया।
ताश के पत्तों का महल बनाना भी एक कला है। इस कला में अमेरिका के जॉफ सेन नामक व्यक्ति ने मई 1984 में इंडियाना अमेरिका में 3.9 मीटर यानी 12 फीट 10 इंच बड़ा ताश का एक महल खड़ा किया था जिसमें 68 मंजिलें बनाई गई थीं।
यहां ग्राफिक के जरिए बताते चलें कि ताश के पत्तों का अपना एक साइज होता है। आइए समझते चलें...
अब सबसे दिलचस्प बात कि ताश के पत्तों की संख्या 52 कैसे हुई। इसका भी एक अलग किस्सा है। तो चलिए आगे बढ़ते हैं इस सफर पर
यूरोपीय देशों में ताश के खेल को 'टेरोटस' नाम से जाना जाता था। शुरुआत में ताश के पत्तों की संख्या महज 22 थी, लेकिन पत्तों पर कोई भी फोटो नहीं होती थी। बाद में पत्तों की संख्या बढ़ने लगी और यह 78 हो गई।
लेकिन, इन ढेर सारे पत्तों को बोझ समझते हुए फ्रांसीसियों ने ताश के पत्तों की संख्या घटाकर 52 कर दी व इसे चार बराबर हिस्सों में बांट दिया। एक ही तरह के 13 पत्तों को विधिवत नाम भी दे डाला। फ्रांस के बाद ताश का यह नया रूप इंग्लैंड जा पहुंचा।
फिर धीरे-धीरे ताश का यही अवतार पूरी दुनिया में छा गया और आज भी इसकी संख्या 52 ही है।
यहां ग्राफिक में यह भी समझ लीजिए कि 52 पत्तों के अलावा जोकर की भी अपनी अहमियत होती है...
ताश की संख्या के बाद इसके पीछे की सोच काे समझते हैं।
माना जाता है कि ताश के पत्ते काल यानी समय की गणना करना सिखाते हैं। लोगों के पास जब कैलेंडर नहीं होते थे तब ताश के 52 पत्ते से साल के 52 सप्ताह की गणना बड़ी आसानी से लोग कर लेते थे। यह जानकर हैरानी होगी कि साल के 365 दिनों की गणना को पूरा करने के लिए ताश की गड्डी में जोकर को शामिल किया गया।
अब आप जुए और ताश की कहानी के साथ-साथ इसके नफा-नुकसान के बारे में भी बखूबी जान चुके हैं। इसके बाद फैसला आपका है कि आप क्या आप खेल-खेल में माता पार्वती की तरह किसी शिव को मात देना चाहते हैं या फिर परिवार और दोस्तों के साथ खाली पत्ते का आनंद लेना चाहते हैं। खैर फैसला जो भी हो; दिवाली और द्यूत प्रतिपदा की अग्रिम शुभकामनाएं।
ग्राफिक्स: प्रेरणा झा/सत्यम परिडा
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