फिरोजाबाद से कांच का जुड़ाव आज से नहीं बल्कि मुगल काल से है। कांच कब चूड़ियों में बदलने लगा, क्यों आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर भी चूड़ी मजदूर नाराज हैं, क्यों कोई एक्टिविस्ट शरीर पर बेड़ियां डाले बैठा है? सभी सवालों के जवाब सिलसिलेवार तरीके से जानते हैं।
कब से बनने लगीं चूड़ियां
जिस फिरोजाबाद को आज आप ‘सुहाग नगरी’, ‘चूड़ियों का शहर’ जैसे नामों से जानते हैं उसका नाम आज से करीब साढ़े चार सौ साल पहले चंद्रवार हुआ करता था। अकबर के शासनकाल में एक मनसबदार हुआ था- फिरोजशाह। मनसबदारी प्रणाली मुगल काल में प्रचलित एक प्रशासनिक प्रणाली थी जिसे अकबर ने शुरू किया था। उसी फिरोजशाह ने 1566 में इसे फिरोजाबाद नाम दिया।
फिरोजाबाद में कांच इंडस्ट्री भी उतनी ही पुरानी है जितना पुराना यहां पर मुगलों का शासन। उस दौरान आक्रमणकारी कांच की चीजें लाते थे। कांच के खराब और टूटे सामान को ठिकाने लगाने के लिए यहां के लोगों ने एक विशालकाय भट्टी बनाई- ‘भैंसा भट्टी’।
‘भैंसा भट्टी’ से निकलने वाले पिघले कांच के उत्पाद बनाए गए। फिरोजाबाद में ये कांच इंडस्ट्री की शुरुआत थी। इसके बाद कांच को चूड़ियों के आकार में ढाला गया। 200 साल से ज्यादा पुराने चूड़ी कारोबार की चूड़ियों की खनक शहर-दर-शहर होते हुए सात समंदर पार भी पहुंची।
आज कम से कम 35 देशों में यहां से सालाना 250 करोड़ रुपए की चूड़ियों का कारोबार होता है। फिरोजाबाद में आज की तारीख में चूड़ियों की फैक्ट्रियों की गिनती 90-95 के आसपास है। इन कारखानों की वजह से हजारों घरों को रोजगार मिलता है और घरों का चूल्हा भी जलता है। लेकिन चूड़ियों की इस खनक में 1-1 रुपए की हकमारी की आहें भी दबी हैं।
दो बेटों को टीबी हुई, वो दोनों भी मजदूरी करते हैं
घुप्प अंधेरे में लैम्प की आंच पर चूड़ियों की जुड़ाई कर रहीं 27 साल की आरती कहती हैं, 'एक तोड़े की जुड़ाई के 11 रुपए मिलते हैं। दिन में 10 तोड़े जोड़ लेती हूं। इस हिसाब से दिन में 110 रुपए कमा पाती हूं। तीन छोटे बेटे हैं। पति भी चूड़ी का ही काम करते हैं। हम दोनों मिलकर भी घर का खर्च और बच्चों का खर्च नहीं उठा पाते। दो बेटों को टीबी है, जिनका इलाज चल रहा है।'
आरती के घर के बगल में रहने वाली आशा देवी चूड़ियों की झलाई का काम करती हैं। घर में बिजली कभी आती है, कभी नहीं। पर काम तो करके देना ही है। ऐसे में गैस सिलेंडर जलाकर लोहे की पट्टी जलाकर चुड़ियों की झलाई शुरू कर देते हैं। चूड़ियों की झलाई के एक तोड़े के 7.50 रुपए मिलते हैं। वे कहती हैं, ‘घर का पूरा खर्च इसी की कमाई पर चलता है। घर का हर प्राणी इस काम में लगा रहता है।’
टाइम बदला, लेकिन कम नहीं हुई चूड़ियों की डिमांड
पिछले 42 सालों से ‘अश्वनी कुमार एंड को.’ कंपनी चूड़ियों का कारोबार कर रही है। पिछले 12 सालों से इस कंपनी का दारोमदार संभाले अंशुल गुप्ता कहते हैं, पहले महिलाएं चूड़ियां केवल ट्रेडिशन के तौर पर पहनती थीं, जब तक चूड़ियां खुद-ब-खुद टूटती नहीं थीं तब तक उन्हें उतारती नहीं थीं। पहले घरों में मनिहार भी चूड़ियां पहनाने जाते थे। दर्जन के हिसाब से चूड़ियां बिकती थीं और एक चूड़ी ‘आशीष’ की भी पहनाई जाती थी और न पहनाने पर महिलाएं मांग कर आशीष की चूड़ी पहनती थीं।
वहीं, लाल, हरा, महरून, पीला या काला जैसे गिने चुने रंग ही महिलाएं पसंद करती थीं, लेकिन अब जिस रंग के कपड़े उसी रंग की चूड़ियां पसंद की जाने लगी हैं। चूड़ियां अब फैशन एक्सेसरीज का हिस्सा हैं। चूड़ियों से बने कंगन की भी डिमांड तेजी से बढ़ी है।
डिमांड बढ़ी- व्यापार बढ़ा, नहीं बढ़ी तो मजदूरी
फिरोजाबाद के मजदूरों के हकों के लिए 4 फरवरी 2022 से शरीर में बेड़ियां डाले रामदास मानव का कहना है कि जब तक सरकार हमारी मांगे नहीं मान लेती तब तक इन्हें नहीं उतारूंगा। रामदास मानव पिछले पांच सालों से संघर्षरत और कांच एवं चूड़ी मजदूर सभा के संस्थापक हैं। उनका कहना है- 'कांच की चूड़ियों की मांग बढ़ रही है, व्यापार बढ़ रहा है, अगर नहीं बढ़ रही तो सबसे निचले और प्रमुख स्तर पर काम कर रहे मजदूर की मजदूरी।'
रामदास का कहना है कि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्ग 6 मई, 2021 को एक आदेश जारी किया गया, जिसमें चूड़ी मजदूरों की मजदूरी कुछ इस तरह बताई गई-
लोहे की प्लेट, केरोसीन, लैम्प, सिलेंडर का खर्च भी मजदूरों के जिम्मे
आगे रामदास कहते हैं, सदाई, छंटाई, चकलाई से इतर चूड़ियों को जोड़ने के लिए जो लैम्प जलाया जाता है उसमें 14 तोड़ों में 1 लीटर केरोसीन का तेल लग जाता है। कारखाने से चूड़ी आने के बाद उसे अंतिम रूप देने में लैम्प, लोहे की प्लेट, गैस सिलेंडर भी लगता है। इन सभी का खर्च मजदूरों को खुद उठाना पड़ता है। चूड़ी का ज्यादातर काम घरों में महिलाएं करती हैं।
मोहल्ले के हिसाब से 1-1 रुपए कम मिलती है मजदूरी
रामदास बताते हैं कि फिरोजाबाद में हर मोहल्ले में चूड़ी काम में लगे मजदूरों की मजदूरी अलग-अलग है। अल्पसंख्यक क्षेत्रों में एक तोड़े की सदाई/झलाई के 6.25 रुपए एक दिन में मिलते हैं। अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग में एक दिन में 6.30 या 7 रुपए एक दिन के मिलते हैं। तो वहीं, कर्बला, मथुरा नगर जैसे एरिया में सदाई/झलाई के 8 रुपए मिलते हैं। मक्खनपुर, जहां ज्यादातर जाटव रहते हैं, वहां एक दिन में एक तोड़े के 5 रुपए मिलते हैं।
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जितने पैसे मिलते हैं, उतने तो दवाइयों में ही लग जाते हैं
एमजी रोड पर एक घर की छत पर एक छोटे से कमरे में आठ मजदूर चूड़ियों की सदाई का काम करते हुए कहते हैं कि एक दिन में हम जितना काम करते हैं उस हिसाब से हमें एक दिन के 500 रुपए मिलने चाहिए, लेकिन मिलते हैं 200 रुपए। अगर एक दिन कमाई न करें तो बच्चे भूख से मर जाएंगे। कमरे का किराया नहीं निकलेगा। न जाने कितने मजदूर तो कर्ज में डूबे हैं। हम पेट पालने से ज्यादा डॉक्टरों से दवा लेने के लिए काम करते हैं।
पांच महीने से बेड़ियां पहनकर बैठे हैं ताकि मुश्किल नजर आए
एक्टिविस्ट रामदास मानव का कहना है कि देश को आजाद हुए 75 बरस होने जा रहे हैं, लेकिन चूड़ी उद्योग में मजदूर की मजदूरी उस हिसाब से नहीं बढ़ पाई जिस हिसाब से उसकी मेहनत लगती है, उसका पसीना बहता है। आज मेरे ऊपर बेशक पांच मुकदमे हैं, लेकिन मैं मेरे शरीर की ये बेड़ियां तब तक नहीं उतारूंगा जब तक मजदूरों को उनका हक नहीं मिल जाता। ये सिर्फ बेड़ियां नहीं बल्कि फिरोजाबाद के चूड़ी मजदूरों की गुलामी का प्रतीक हैं।
कल पढ़ें चूड़ियों के नगर से एक और कहानी…
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