Iron Lady Had Expressed Confidence In Herself Not On China, Now The Country Drowned By Drinking Ghee By Taking Rajapaksa's Debt
सिरिमाओ भंडारनायके ने लिखी थी श्रीलंका की तकदीर:आयरन लेडी ने चीन नहीं खुद पर जताया था भरोसा-राजपक्षे के कर्ज लेकर घी पीने से डूबा
नई दिल्ली8 महीने पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन में उमड़ा लाखों प्रदर्शनकारियों का हुजूम, प्रधानमंत्री के घर में आग लगाना, जगह-जगह पुलिस के साथ झड़प, पेट्रोप पंपों पर मारामारी, खाने-पीने की चीजों पर भी आफत, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल सब बंद, जनता सड़कों पर। नारे ही नारे, ऐसी अराजक स्थिति श्रीलंका ने कभी नहीं देखी थी। तब भी नहीं जब 1964 में खाने-पीने की चीजों की भारी कमी हो गई थी और सरकार को मजबूरन फूड राशनिंग करनी पड़ी थी। एक दशक बाद यानी 1974 तक भी स्थिति ऐसी ही थी। तब भी 2 बिलियन डॉलर से अधिक का कर्ज था और विदेशी मुद्रा का 70 फीसदी केवल चावल और गेहूं के आयात पर भी खर्च होता था। बावजूद श्रीलंका की स्थिति अराजक नहीं थी। इसलिए कि श्रीलंका का नेतृत्व सिरिमाओ भंडारनायके कर रहीं थीं।
सिरिमाओ श्रीलंका ही नहीं, दुनिया की पहली प्रधानमंत्री थीं जिनकी विदेशी नीति ने टापू वाले छोटे देश को भी जगमग कर रखा था। किसी के भरोसे नहीं, खुद के संसाधनों से देश का विकास जिनका फॉर्मूला था। सिरिमाओ भंडारनायके 1960-65, 1970-77 और 1994-2000 में श्रीलंका की प्रधानमंत्री रहीं। उनका ही नेतृत्व था कि श्रीलंका दक्षिण एशियाई देशों में मानव विकास सूचकांक में सबसे ऊपर था। उनके प्रयासों में श्रीलंका को विकासशील देशों की केटेगरी से निकाल कर विकसित देशों की केटेगरी में लाने की छटपटाहट दिखती थी। सिरिमाओ जैसा नेतृत्व होता तो आज श्रीलंका की यह हालत नहीं होती।
साउथ एशिया क्षेत्र के एक्सपर्ट और साउथ एशियन युनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस के चेयरपर्सन व एसोसिएट प्रोफेसर धनंजय त्रिपाठी वुमन भास्कर से खास बातचीत में बताते हैं कि सिरिमाओ भंडारनायके की नीतियों से अलग हटने का नतीजा है कि श्रीलंका आज इस हालत में है। जिस विदेश नीति पर श्रीलंका सिरिमाओ के समय चला, जो दूरदर्शिता उनके समय में थी, वह विगत कई दशकों में गायब रही है।
राजपक्षे जब सत्ता में आए तब सिविल वॉर को कुचलने के कारण उन्हें जनता ने समर्थन दिया। लेकिन तब श्रीलंका को उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। चीन की ओर एकतरफा झुकाव ने दुनिया के सामने उन्हें शक के घेरे में ला दिया। चीन ने वॉर को कुचलने के लिए हथियार दिए, कई प्रोजेक्ट उन्होंने श्रीलंका में खड़े किए, तब भी राजपक्षे चीन की नीतियों को समझ नहीं पाए।
धनंजय त्रिपाठी कहते हैं कुछ बिंदुओं से समझा जा सकता है कि सिरिमाओ भंडारनायके की नीतियों से अलग होकर श्रीलंका कैसे इस स्थिति में पहुंचा…
संतुलन की नीति: सिरिमाओ भंडारनायके ने श्रीलंका को गुट निरपेक्ष देशों में पहली कतार में खड़ा किया था। उनका मैसेज साफ था आत्मनिर्भरता के साथ आर्थिक प्रगति जिसमें दूसरे देशों की भी सहभागिता हो। गुट निरपेक्षता की नीति पर चलने के साथ श्रीलंका ने समाजवादी आर्थिक नीतियों को तव्वजो दी। जब दुनिया शीत युद्ध के दौर में उलझी हुई थी तब भी श्रीलंका ने विकासशील देशों के साथ अपने को खड़े किया। राजपक्षे ने श्रीलंका की विदेश नीति को पलट दिया। इसका परिणाम आज श्रीलंका भुगत रहा है।
श्रीलंका में निवेश की पॉलिसी: सिरिमावो भंडारनायके ने सेल्फ रिलांयस पर जोर दिया। वह जानती थीं कि श्रीलंका बड़ी इकोनॉमी वाला देश नहीं है। उसे बड़े प्रोजेक्ट की जरूरत नहीं है। छोटे प्रोजेक्ट से ही श्रीलंका विश्व पटल पर मजबूत हो सकता है। चाय, रबड़, नारियल जैसे प्रोडक्ट उसकी इकोनॉमी के बड़े सोर्स हैं। साथ में टूरिज्म भी अर्थव्यवस्था में चार चांद लगा सकता है। सिरिमावो के बाद की सरकारों ने निवेश की पॉलिसी को पलट दिया। कोलंबो को दुबई की तरह दिखाना और हंबनटोटा में पोर्ट और एयरपोर्ट में चीनी के पैसे का भारी निवेश (कर्ज लेकर) करना, दरअसल श्रीलंका की बर्बादी की पटकथा लिखने की शुरुआत थी। आज हंबनटोटा पोर्ट खाली पड़ा है। श्रीलंका कर्ज न चुका पाने के कारण 99 साल की लीज पर इसे चीन को दे चुका है।
मानवाधिकारों का उल्लंघन: श्रीलंका ने सिविल वॉर के समय जिस तरह मानवाधिकारों का उल्लंघन किया, उससे विश्व की अधिकतर ह्यूमन राइट्स संस्थाओं ने मुंह फेर लिया। जो सिरिमावो भंडारनायके मानवाधिकारों की पैरोकार रही थीं, दूसरी सरकारों ने हर स्तर पर इसे कुचल दिया। 26 साल तक चली हिंसा, अराजकता ने श्रीलंका को एक ऐसे दौर में धकेला जहां से निकलना आसान नहीं था। आज श्रीलंका की जो स्थिति है उसमें ये अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी उसे मदद नहीं कर पा रहीं।
चीन का मोह: श्रीलंका को चीन का मोह भारी पड़ा। चीन ने अपने फायदे के लिए श्रीलंका का इस्तेमाल किया। श्रीलंका में चीन के जो भी बड़े प्रोजेक्ट हैं उसने भारतीय महासागर में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए तैयार किया। सिरिमावो भी ऐसी गुटबंदी में नहीं रहीं। तीन दशकों तक एक तरफ भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और दूसरी तरफ सिरिमावो भंडारनायके, दोनों ने दक्षिण एशिया में अपने देश को मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। न कि किसी पर निर्भर हुईं।
एक परिवार की राजनीति: पिछले 15 साल से अधिक समय से राजपक्षे परिवार श्रीलंका की सत्ता में है। यह एकमात्र परिवार श्रीलंका के बजट का 70 प्रतिशत तय करता है कि इसका क्या करना है। एक फैमिली कंट्रोल ने श्रीलंका का बेड़ा गर्क कर दिया। नीतियों के क्रियान्वयन में परिवार के लोगों की बात सुनी गई न कि विशेषज्ञों की। ऑर्गेनिक फार्मिंग का उदाहरण सामने है। सिरिमावो भंडारनायके का सेल्फ रिलायंस पर जोर था लेकिन राजपक्षे ने चीन पर निर्भरता दिखाई। वैसी नीतियां जिससे देश का सरोकार नहीं होना चाहिए था, उस पर राजपक्षे परिवार आगे बढ़ा।
बुद्धिस्ट डिप्लोमेसी से डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी : सिरिमावो भंडारनायके की बुद्धिस्ट डिप्लोमेसी ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था। उनकी इस रणनीति ने साउथ एशिया, साउथ इस्ट एशिया के देशों से श्रीलंका को करीब किया था। तमिलों के प्रति नीति भी संतुलन वाली थी। कई मौकों पर सिरिमावो ने उनकी नागरिकता को लेकर स्पष्ट मैसेज दिया था। लेकिन बुद्धिस्ट डिप्लोमेसी से इतर श्रीलंका कर्ज में फंसने की डिप्लोमेसी में धंसता चला गया।