मशहूर शेफ रणवीर बरार कई मौकों पर एक किस्सा सुनाते हैं। वे कई साल तक अमेरिका में थे और वहां उनका काम अच्छा जमा नहीं। भारत में उनके पिता की तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती थी। ऐसे में उन्होंने भारत वापस आने का फैसला किया।
जिस दिन वे मुंबई पहुंचे, उस दिन सड़कों पर बड़ी भीड़ थी। उन्होंने टैक्सी वाले से पूछा कि आज क्या है। टैक्सी वाले ने कहा, ‘अरे आपको नहीं पता, आज गणपति है। आप बड़े सही दिन मुंबई आए हैं।’ रणवीर बताते हैं, ये ‘सही दिन’ उनके जेहन में चिपक गया। उन्हें लगा कि अब उनके साथ सब सही होगा, और ऐसा हुआ भी।
माना जाता है कि भगवान गणेश विघ्नहर्ता हैं। उनकी पूजा-अर्चना से सारे काम बन जाते हैं और सभी मुश्किलें दूर होती हैं। गणपति महोत्सव की बात करें, तो दिमाग में सबसे पहले मोदक का नाम आता है। हालांकि, उत्तर भारत के लोग कई बार मोदक और लड्डू को एक ही मान लेते हैं, जबकि दोनों अलग-अलग हैं।
आइए बताते हैं, कैसे मिठाइयों के खजाने का कोहिनूर बन गया लड्डू
इससे पहले कि मोदक की लोकप्रियता और उसके बारे में बात करें, एक बात जान लें कि लड्डू भारतीय मिठाइयों के खजाने का कोहिनूर है। लड्डू एक ऐसी मिठाई है जिसको लेकर तमाम कहावतें हैं। किसी के ‘दोनों हाथों में लड्डू होते हैं’, तो किसी के ‘मन में लड्डू फूटते हैं।’ ऐसा होने पर लड्डू बंटते हैं और फिर ‘शादी का लड्डू खाकर या न खाकर कोई पछताता’ है।
लड्डू शायद एकमात्र मिठाई है जिसकी इलाकाई पहचान भी है। मसलन, आपको राजस्थान का चूरमे का लड्डू, बंगाल का मेवे वाला दरवेश लड्डू, तमिलनाडु का नाकरू, उत्तर प्रदेश का बेसन का लड्डू जैसे नाम सुनने को मिलेंगे। बाकी मिठाइयों की किस्मत में यह सुख नहीं।
गणपति को कैथ और जामुन पसंद, लेकिन लगता है लड्डू का भोग
वैसे भगवान गणेश के लिए कहा जाता है- ‘कपित्थ जम्बूफल चारु भक्षणम्’, यानी उन्हें कैथ और जामुन बेहद प्रिय हैं। किंतु बेहद खट्टे कैथ और मिजाज में कसैले-अम्लीय और स्वाद में मीठे होने के बावजूद जामुन की तुलना में हम गणपति को लड्डू का भोग ही लगाना पसंद करते हैं। आखिर चांदी के वरक लगे नारंगी चमकदार लड्डू की मिठास से कौन प्रसन्न नहीं होगा भला। फिर गणपति ही क्यों, बजरंगबली का प्रिय प्रसाद भी तो बेसन का लड्डू और बेसन की बूंदी ही मानी जाती है।
ब्रज क्षेत्र के लोग अपने प्रिय कान्हा के बाल रूप को ‘लड्डू गोपाल’ कहकर बुलाते हैं। हालांकि, लड्डू गोपाल के प्रिय भोग में लड्डू की जगह माखन, मिसरी और धनिये की पंजीरी महत्वपूर्ण है। पंजीरी की बात पर दादी-नानी का एक नुस्खा भी जान लें। माना जाता है कि धनिये की पंजीरी को थोड़ी मात्रा में खाने से जोड़ों के दर्द में आराम मिलता है।
तिब्बती-चीनी डंपलिंग का भाई और मोमो जैसा है मोदक
किसी को समझाना हो कि मोदक क्या है, तो उसे बताइए कि यह चावल के आटे से बना मोमो जैसा होता है। इसमें गुड़, कसा नारियल, काजू, जायफल और इलायची की भरावन होती है। इसे भाप में पकाकर, देसी घी छिड़ककर गरम-गरम परोसते हैं। इसे लड्डू समझने को लेकर कन्फ्यूजन इसलिए शुरू हुआ, क्योंकि महाभारत के समय में लड्डू के लिए मोदक शब्द का इस्तेमाल किया गया है।
वर्तमान मोदक तिब्बती-चीनी डंपलिंग का मेले में खोया हुआ भाई लगता है। भारतीय व्यंजनों में इडली, ढोकला और मोदक जैसी गिनी-चुनी चीजें ही भाप पर पकाई जाती हैं। ऐसे में मोदक और मोमो को जोड़ने की एक ही कड़ी समझ आती है। भगवान बुद्ध के बारे में कहा जाता है कि उन्हें डंपलिंग काफी पसंद थे और इसी से तिब्बती भिक्षुओं में इन्हें खाने की पंरपरा चली आ रही है।
भारत में गणपति विघ्नहर्ता तो जापान में इन्हें देखना संकट को न्योता
इसके बाद बौद्ध मठों से ये मोदक और डंपलिंग की बाकी वैराइटी जापान पहुंच गईं। अब जापान में एक हाथी के सिर वाले देवता हैं जिन्हें ‘कांगितेन’ कहा जाता है। जापान में उन्हें आटे का बना कांगिदान नाम का पकवान पूजा में चढ़ाया जाता है। इसे देखकर मोदक से उसका संबंध जोड़ा जा सकता है। हाथी के सिर वाले इन जापानी देवता के दो और प्रचलित नाम हैं- गनबाची (गणपति) और बिनायकतान (विनायक)।
इतना पढ़कर आप ये तो समझ ही गए होंगे कि जापान में भी भगवान गणेश को माना जाता है। लेकिन गणपति के जापानी रूप का संबंध बौद्ध धर्म और तंत्रमंत्र से है। उनकी और हमारी गणपति से जुड़ी मान्यताओं में जमीन आसमान का अंतर है। हमारे यहां गणपति को विघ्नहर्ता माना जाता है, तो जापान में उनकी मूर्ति को बॉक्स में बंद रखा जाता है, क्योंकि जापानी मान्यता के अनुसार उनकी मूर्ति को देखना अपशकुन साबित हो सकता है। जापान के पुजारी भी ‘कांगितेन’ की ओर नहीं देखते।
बाल गंगाधर तिलक के गणेश चतुर्थी अभियान ने पहुंचाए घर-घर मोदक
खैर, जापान से वापस मोदक पर आते हैं। वैसे मोदक मिलते-जुलते नामों से कर्नाटक समेत कई राज्यों में भी बनता है, लेकिन इसकी असल पहचान महाराष्ट्र से जुड़ी है। कहते हैं, महाराष्ट्र में भगवान गणेश की पूजा में मोदक या लड्डू चढ़ाने की लोकप्रियता छत्रपति शिवाजी के समय में बढ़ी। बाद में जब बालगंगाधर तिलक ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गणेश चतुर्थी को स्वदेशी आंदोलन से जोड़कर पुनर्जीवित किया तो मोदक घर-घर बनने लगे।
जहां जैसी उपज वहां, वैसा रूप ले लेता है मोदक
गुड़ की हल्की मिठास और भुने नारियल वाले मोदक का स्वाद ऐसा होता है कि जिसे खाने के बाद भूलना मुश्किल है। यह एक बेहद आसान और स्थानीय पैदावार से बनने वाला व्यंजन है। उदाहरण के लिए समुद्र तटीय इलाकों के मोदक में नारियल और काजू भरा जाता है, क्योंकि वहां उसकी पैदावार होती है। वहीं, नागपुर के आस-पास मोदकों में तिल भरे जाते हैं। लोग आटे के फ़्राई किए हुए मोदक भी बनाते हैं, जिनको सफर में ले जाना आसान होता है।
गणपति को चढ़ता है सब देवताओं से बड़ा, 72 किलो का मोदक
हम आपको पहले ही बता चुके हैं कि मोदक और लड्डू महाभारत काल से आपस में मिले हुए हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण मदुरै के श्री मीनाक्षी अम्मन मंदिर में देखने को मिलता है। मदुरै मुक्कुरुनी विनयनगर गणेश मंदिर में भगवान गणेश को चढ़ने वाला लड्डू, आकार के हिसाब से भारत में किसी भी देवता को चढ़ने वाला सबसे बड़ा भोग है। इस मिठाई को तमिल में ‘कोलकट्टई’ कहते हैं।
दंतकथा के मुताबिक एक बार देवताओं ने भगवान गणेश के बढ़े हुए पेट का मज़ाक उड़ाया। गणपति ने वज़न घटाने के लिए मेहनत करने की सोची। वे एक लड़के का रूप रखकर किसान के पास पहुंचे और उससे काम मांगा। काम पूरा होने पर उन्हें लगभग तीस किलो चावल का मेहनताना मिला। इसीलिए इस मंदिर में तीस किलो चावल का भोग लगता है। जिसमें 30 किलो चावल को पीसकर सूखा भूना जाता है। 30 किलो गुड़ को पिघलाकर, उसमें 25 नारियलों का बुरादा मिलाया जाता है। इसके अलावा, चार किलो चने की दाल, 4 किलो सफ़ेद तिल, 4.5 किलो देसी घी, 250 ग्राम इलायची और 50 ग्राम जायफल को अच्छी तरह मिलाकर सफ़ेद कपड़े में लपेटकर भाप पर पकाते हैं। लगभग 24 घंटे पकने के बाद 72 किलो का यह विशाल प्रसाद तैयार होता है। इसको बनाने की विधि मोदक जैसी है, लेकिन इसका आकार लड्डू जैसा होता है।
कड़वी दवा खिलाने के लिए हुआ लड्डू का जन्म
मोदक हो गया, लड्डू जैसे मोदक का जिक्र हो गया, अब करते हैं असली लड्डू की बात। लड्डू की मिठास तो अद्वितीय है ही, हम सबने अपनी दादी-नानी से सुना है कि आटे का लड्डू खाओ तो, ताकत मिलेगी और उनके हाथ के बने लड्डू खाए भी हैं। सोंठ और गोंद का लड्डू खा लो तो खून की कमी दूर होती है, वगैरह-वगैरह। ये नुस्खे ऐसे ही लोकप्रिय नहीं हुए हैं। दरअसल, लड्डू की शुरुआत दवा के तौर पर हुई थी। इससे जुड़ी दो कहानियां हैं।
पहली कहानी के मुताबिक महान आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत अपने रोगियों को जड़ी-बूटियों के नुस्खे लड्डू की तरह गोले बनाकर देते थे। दूसरी कहानी के मुताबिक प्राचीन काल में एक वैद्य के नुस्खे में उनके चेले ने गलती से ज़्यादा घी डाल दिया। ऐसे में उस मिश्रण को गोलों का आकार दे दिया गया और लड्डू की शुरुआत हुई। अब इन बातों में कितनी हकीकत है और कितना फ़साना, हमें नहीं पता, लेकिन समय के साथ भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरह के लड्डू बनने लगे।
राजस्थान से आंध्र प्रदेश तक हर जगह बदल जाता है लड्डू का अवतार
उदाहरण के लिए, राजस्थान का चूरमे का लड्डू बाटी को पीसकर उसमें गुड़, चीनी और घी के साथ मिलाकर तैयार होता है। उत्तर भारत में लड्डू की बूंदी बेहद महीन होती है और उसे ‘डबल ज़ीरो नंबर’ या ‘नुक्ती’ कहते हैं। इसी को मोतीचूर का लड्डू कहते हैं। वहीं, बंगाल में बूंदी का लड्डू अलग ढंग से बनाया जाता है और उसे दरबेश कहते हैं। इसमें बूंदी को खोया (मावा) के साथ मिलाकर उसमें मेवे डाले जाते हैं और लड्डू तैयार किया जाता है। यह लड्डू स्वाद में बूंदी के लड्डू से काफ़ी अलग होता है। और खासतौर पर बंगाली शादियों के मौकों पर बनता है।
वैसे शादी के लड्डू से याद आया कि कन्नौज यानी कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में लड्डू को लेकर एक खास परंपरा है। बाकी जगहों पर जहां दूल्हे के तिलक में चार लड्डू का पैकेट दिया जाता है। कन्नौज में लड़के वाले एक ही लड्डू देते हैं और वो एक लड्डू, चार लड्डुओं से बड़ा होता है। अगर कन्नौज के लड्डू आकार में बड़े होते हैं, तो आंध्र प्रदेश की शादियों में बनने वाले पारंपरिक लड्डुओं की बूंदी काफ़ी बड़ी होती है और लड्डू में काजू-किशमिश मिलाए जाते हैं। इसी तरह पंजाब की बात करते समय पिन्नी के लड्डू ध्यान में आते हैं। माना जाता है कि पिन्नी के लड्डू सर्दियों में शरीर को गर्माहट देते हैं।
बूंदी के अलावा केरल के लाल चावलों से बना लड्डू क्या कभी खाकर देखा है? ‘मट्टा राइस’ नाम के इस चावल को भूनकर, उसमें नारियल मिलाकर लड्डू बनाए जाते हैं। इसी से मिलते-जुलते लड्डू तमिलनाडु और बंगाल में भी बनते हैं। नारियल के लड्डुओं को कच्चे नारियल के बुरादे में लपेटा जाता है। ताड़ के गुड़ वाले इस कच्चे और भुने नारियल के मिले-जुले स्वाद को सिर्फ़ खाकर महसूस किया जा सकता है।
बाढ़ प्रभावित इलाकों में खील के बने लड्डू आते हैं जान बचाने के काम
नारियल के लड्डू के स्वाद का जलवा देखना हो तो अमोल पालेकर की फ़िल्म नरम-गरम देख लीजिए। आपका भी नारियल के लड्डू खाने का मन हो जाएगा। बंगाल में ही खील या लइया को पिघले गुड़ में मिलाकर लड्डू बनाने का चलन है। इन लड्डुओं को ‘मोआ’ कहा जाता है। खील के बने ये लड्डू काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होते और बाढ़ प्रभावित इलाकों में ये ज़िंदा रहने के लिए भोजन के तौर पर इस्तेमाल होते रहे हैं। बंगाल के मशहूर लेखक काजी नजरुल इस्लाम ने कहा है कि धर्म क्या बच्चे के हाथ में मौजूद मोआ है, अभी है अभी गप से खा लिया।
‘राजमार्गों से चलकर’ पसंदीदा बने मनेर और संडीला के लड्डू
राज्यों के अलावा भारत के कुछ शहर हैं जिनका लड्डुओं से सीधा संबंध है। लड्डू की बात हो, तो पटना के पास मनेर के लड्डू, लखनऊ के पास संडीला के लड्डू और कानपुर के ठग्गू के लड्डू का ज़िक्र आता ही है।
मनेर और संडीला के लड्डुओं के मशहूर होने की दो बड़ी वजह हैं। ये दोनों जगहें लंबे राजमार्गों पर हैं। हरदोई जिले का संडीला शहर दिल्ली से लखनऊ की रेल लाइन पर मौजूद है और इसके मशहूर होने की सबसे बड़ी वजह छोटी मटकियों में मिलने वाला लड्डू ही है। इसी तरह मनेर के लड्डुओं की लोकप्रियता की बड़ी वजह भी इस शहर का जीटी रोड पर मौजूद होना है।
मनेर के लड्डुओं से जुड़ी एक और घटना है, जो भारत के इतिहास में निर्णायक मौके पर हुई है। कहते हैं कि मुगल बादशाह शाह आलम मनेर से लड्डू लेकर दिल्ली गए थे। अब पता नहीं इस बात में कितना दम है, लेकिन कहा जाता है कि शाह आलम मनेर से 100 किलोमीटर दूर बक्सर में अंग्रेज़ों से युद्ध करने जरूर पहुंचे थे। बक्सर के इस युद्ध में 40 हजार फौज और 140 तोपों वाले खेमे के मुकाबले अंग्रेज़ों के 7-8 हज़ार सिपाही कुल 30 तोपों के साथ मौजूद थे। सेना की टुकड़ी छोटी होने के बावजूद अंग्रेज़ जीते और शाह आलम दिल्ली तक सिमट कर रह गया। शाह आलम के बारे में कहावत चल पड़ी कि ‘अज़ दिल्ली ते पालम, सल्तनत-ए-शाह आलम’।
कहावतों की बात करें, तो लड्डुओं से जुड़ी एक कहावत शायद हर किसी ने सुनी हो। कानपुर के ठग्गू के लड्डू वालों का कहना है, ‘ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं।’ इसे मार्केटिंग का बेहतरीन नमूना ही कहेंगे कि भले ही आपने कानपुर न देखा हो लेकिन ठग्गू के लड्डुओं से जुड़ी ये टैगलाइन जरूर सुनी होगी।
कानपुर के ठग्गू के लड्डू; गांधी के मंत्र से रखा नाम, मोदी ने की तारीफ
ठग्गू के लड्डू की दुकान के मालिक आदर्श पांडे बताते हैं कि हमारे लड्डू दो तरह के होते हैं। एक- सूजी और खोया से बनता है तो दूसरा-सूजी, खोया, पिस्ता, बादाम और गोंद मिलाकर। इसे उनके दादा रामअवतार पांडे ने शुरू किया था। वह कंधे पर टोकरी रखकर लड्डू बेचा करते थे, साथ में मट्ठा भी बेचते। लोग उन्हें मट्ठा पांडे कहते थे। आज उनकी दुकान में लड्डू और कुल्फी मिलती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक सभा में कानपुर के ठग्गू के लड्डू की तारीफ कर चुके हैं।
असल में, रामअवतार पांडे महात्मा गांधी के भक्त थे। उनकी सभाओं में भी जाते। एक बार गांधी जी ने कहा कि ‘शक्कर सफेद जहर है’। तब रामअवतार पांडे ने दुकान के बाहर लिखकर टांग दिया, ‘कानपुर के ठग्गू के लड्डू।’ यानी हम आपसे पैसे भी ले रहे और आपका स्वास्थ्य भी खराब कर रहे। इसलिए हम ठग हैं। उनकी दुकान के बाहर स्लोगन लिखा है… ‘ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं।’ ‘मरने से है बचना तो दूर का रिश्ता रखना।’ ऐसा करके रामअवतार पांडे का गिल्ट भी कम हो गया और दुकान भी चल निकली।
इति लड्डू कथा समाप्तः
(अनिमेष मुखर्जी फूड और फैशन ब्लॉगर हैं)
ग्रैफिक रिसर्च: संजय सिन्हा
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