पौराणिक कथा है कि देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसमें अमृत कलश निकला। वादे के मुताबिक अमृत दोनों पक्षों को बराबर मिलना था। लेकिन भगवान विष्णु ने मोहिनी बनकर छल किया। उन्होंने देवताओं और दानवों को लाइन में खड़ा कर, देवताओं की ओर से अमृत बांटना शुरू किया। जब तक दानवों की बारी आती, इससे पहले ही अमृत खत्म हो गया।
लेकिन राहु और केतु नाम के दो दानव लाइन तोड़कर देवताओं में जा घुसे। इसके चलते उन्हें भी अमृत मिल गया और वे अमर हो गए। आज भी समाज में लाइन तोड़ने वालों को राहु-केतु की तरह देखा जाता है।
आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि हम ये कहानी आपको क्यों सुना रहे हैं। दरअसल, आज ‘फुरसत का रविवार’ में विषय है-क्यू यानी लाइन या कतार में खड़े होना।
हो सकता है कि राहु-केतु की तरह आपने भी कभी लाइन तोड़ने का सोचा होगा या फिर आपके मन में अमिताभ बच्चन का वो मशहूर डायलॉग घूमता हो, जिसमें वो शान से कहते हैं ‘हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।’
‘अरे भाई साहब कहां घुसे जा रहे हैं? दिखता नहीं कि हम यहां पहले से ही खड़े हैं? हम क्या बेवकूफ हैं जो इतनी देर से लाइन में खड़े हैं?’ ‘सुनिए, मुझे थोड़ी जल्दी है। क्या मैं आपसे पहले जा सकता हूं?’ आपने भी कभी न कभी ‘क्यू’ को तोड़ा होगा या कोई आपको धक्का देकर आपसे आगे घुसा होगा।
रोजमर्रा की जिंदगी में ये बातें या तो किसी से कही होंगी या सुनी होंगी। आपके लिए भी कल यानी सोमवार से वही ऑफिस और बाकी कामों की भागदौड़ शुरू हो जाएगी। हो सकता है आज ही आपको मेट्रो या किसी सिनेमाहॉल में सुपरहिट फिल्म देखने के लिए लाइन में लगना पड़े। तो लाइन में लगने से पहले आज 'फुरसत का रविवार' में जान लीजिए कि क्यू, लाइन या कतार में लगने का चलन कब आया…
मगर आगे बढ़ने से पहले इस पोल पर अपनी राय साझा करते चलें...
लाइन यानी पंक्ति और अंग्रेजी में कहें तो ‘क्यू’ शब्द की उत्पत्ति बारहवीं शताब्दी में हुई। यह फ्रेंच भाषा के तीन पुराने शब्द cue, Coe और Queue को परिभाषित करता है। हंसिएगा मत, लेकिन इन सबका मतलब होता है 'पूंछ'। जब बंदर से हम मानव बने तो धीरे-धीरे हमारी पूंछ तो गायब हो गई लेकिन पूंछ की हड्डी ‘टेलबोन’ की तरह कतार आज भी अलग-अलग रूप में हमसे चिपकी रहती है।
डबलरोटी के लिए लगी थी इतिहास में पहली लाइन
लाइन में लगे लोगों का पहला लिखित जिक्र 1837 की एक किताब, ‘द फ्रेंच रेवोल्यूशन: ए हिस्ट्री’ में मिलता है। इस किताब के लेखक थॉमस कार्लाइल थे। थॉमस की गिनती विक्टोरियन एरा के प्रमुख लेखकों में होती है। किताब में उन्होंने लिखा- ‘मुझे ये दृश्य अजीब लगा। पेरिस के आसपास बेकर्स से ब्रेड खरीदने के लिए लोग बाकायदा लाइन लगाकर खड़े होते हैं।’
दुनिया लूटने वाले अंग्रेजों ने बदले में सबको सिखाया क्यू का सिस्टम
माना जाता है कि क्यू सिस्टम अंग्रेजों की देन है। ब्रिटेन के शहरों में ट्रांसपोर्ट सिस्टम की शुरुआत के साथ क्यू में खड़े होने का चलन आया। पहले विश्व युद्ध के दौरान राशनिंग के लिए लगी लाइन बाद में धीरे-धीरे आमलोगों के जीवन का हिस्सा बन गई। क्यू की वजह से हजारों-लाखों लोग बिना किसी को परेशान किए मंदिर, सिनेमा, रेल-फ्लाइट, फुटबॉल या क्रिकेट मैच जैसे बड़े आयोजन में आसानी से पहुंचते हैं। लेकिन वहीं, जब किसी एक ने भी क्यू की लाइन को छेड़ा है तो भगदड़ वाली स्थिति बन गई। जो बड़ी अफरातफरी में बदल जाती है।
अमीरी-गरीबी, जात-पांत का भेदभाव खत्म करती है लाइन
First come, first served, क्यू या लाइन का मतलब यही होता है। अपनी बोलचाल की भाषा में कहें तो ‘पहले आओ और पहले पाओ’ वाली बात है। भारत जैसे देश में जहां आज भी जात-पांत एक बड़ा मुद्दा है। यहां अगर क्यू सिस्टम नहीं होता तो शायद ही सबके लिए रेलवे स्टेशन, फ्लाइट, बैंक, एटीएम जैसी पब्लिक सर्विस वाली चीज इतनी आसानी से उपलब्ध होती।
दूसरी बात, भारत की आबादी इतनी ज्यादा है कि यहां हर काम के लिए लाइन लग जाती है। जैसे कि राशन की दुकान की लाइन या भंडारे की लाइन। खैर, असल बात यह है कि डिमांड ज्यादा और सप्लाई कम होने की वजह से क्यूइंग सिस्टम प्रचलन में आय़ा।
मेलबर्न यूनिवर्सिटी के मेलबर्न स्कूल ऑफ साइकोलॉजिकल साइंसेज के प्रोफेसर निक हसलाम भी क्यू को बराबरी के लिए अनकहा सामाजिक नियम मानते हैं। और ये सही भी है। लोग लाइन में खड़े होने पर किसी की जाति या धर्म नहीं पूछते हैं। उन्हें बस अपनी बारी आने का इंतजार होता है।
भारत में लगने वाली लाइन का कोई एक चेहरा नहीं
भारत में लगने वाली कतारों के कई रूप हैं। जैसे जेंडर के आधार पर महिलाओं की लाइन, पावर और पैसे के आधार पर वीआईपी की लाइन, पेंशनरों और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए अलग लाइनें, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों की हर सुबह शौचालय की लाइन या एक बाल्टी पानी के लिए लाइन। एक वर्ग के लिए कतार मामूली सी बात हो सकती है लेकिन भारत की आधी से अधिक आबादी के लिए ये रोज जिया जाने वाला दुखदाई अनुभव है। पुरानी दिल्ली में 19 महीने तक कतार पर रिसर्च करने वाले मानवविज्ञानी अजय गांधी रेलवे स्टेशन की लंबी कतार पर लिखते हैं- ‘पहली ही नजर में कतार का दृश्य सब्र, हताशा, कुछ न कर पाने की बेबसी और अपनी बारी आने की उम्मीद जैसा था।’
नोटबंदी की न भूलने वाली कतार, जब पूरा देश लाइन में खड़ा दिखा
आठ नवंबर 2016 की रात हुई नोटबंदी ने अगले दिन से पूरे देश को महीनों कतारों में खड़ा रखा। पहले तो पुराने नोट वापस करने के लिए बैंक की लाइन फिर पैसे निकालने के लिए एटीएम की लाइन। यहां तक की पीएम नरेंद्र मोदी की मां हीराबेन भी उस समय लाइन का हिस्सा बनीं। दूल्हा-दुल्हन, बुजुर्ग, मरीज हर कोई लाइन में खड़ा दिखा। लाइऩ में लगे यही लोग सुर्खियां भी बने।
कभी कोरोना वैक्सीन तो कभी परचून की दुकानों पर कतारों में दिखे
फिर आय़ा कोरोना, जिसने हमारे कतार में ख़ड़े होने की आदत को चमका दिया। देशवासी कभी वैक्सीनेशन के लिए तो कभी परचून की दुकानों पर चूने के सफेद घेरे में खड़े रहे।
यही नहीं, जियो की सिम के लिए भी लोग लाइन में लगे। वैसे ड्राई डे के पहले शराब की दुकानों पर लोगों की लंबी कतारों की फोटो भी वायरल होती रहती हैं। पिछले साल कोविड की वजह से दिल्ली सीएम ने लॉकडाउन की घोषणा की, जिसके बाद शराब की दुकान पर लंबी लाइनें लगीं। पुरुषों की उस लाइन में खड़ी डॉली नाम की एक बुजुर्ग महिला रातों-रात वायरल हो गई थीं जिसने कहा था कि पीने से कोरोना नहीं होता है।
लाइन में चप्पल और रूमाल रखने का कॉन्सेप्ट
हम भारतीय हमेशा जल्दी में होते हैं। समय का अकाल होता है और आराम से लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करना हमें मंजूर नहीं। लाइन में न लगना पड़े इसलिए लाइन तोड़ने का जुगाड़ भी हमें खूब आता है। कभी अपनी जगह किसी और को खड़ा कर देते हैं तो कभी लाइन से हटाने की नौबत आ जा आए तो डिब्बा, चप्पल और यहां तक कि रूमाल भी रख देते हैं। ताकि हमारे पीछे खड़े व्यक्ति को ये जानकारी रहे कि हम कहीं गए नहीं हैं, आसपास ही हैं। फ्लाइट में आपने देखा होगा कि लैंडिंग के बाद क्रू मेंबर पहले आगे की लाइन के पैसेंजर्स से उतरने की अपील करते हैं, फिर बीच के और अंत में पीछे की कतार में बैठे लोगों का नंबर आता है। लेकिन ऐसा सिर्फ अनाउंसमेंट में ही होता है। प्लेन के लैंड करते ही सारे पैसेंजर्स उतरने के लिए दरवाजे की ओर भागते हैं, जिसके चलते धक्का-मुक्की की स्थिति बन जाती है।
कतार के मामले में मुंबई और कोलकाता वाले ज्यादा तमीजदार
यह सच है…मेट्रो या प्लाइट के मामले में मजबूरी न हो तो अधिकांश लोग कतार का नियम न मानें। लेकिन मुंबई और कोलकाता में ऐसा नहीं है। वहां की जनता कतार के नियम को लेकर जितनी अनुशासित है, दिल्ली के लोग अपनी बेसब्री को लेकर उतने ही बदनाम हैं। मुंबई की बस सर्विस ‘बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट’ (BEST) की लाइन हो या कोलकाता की ऑटो, ट्रॉम या कोई भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट की लाइन। लोग वहां न तो धक्का-मुक्की करते हैं और न ही लाइन तोड़ते हैं। दोनों ही जगहों पर ये पब्लिक ट्रांसपोर्ट शहर की लाइफ लाइन हैं। हजारों लोग हर रोज अपने काम के लिए इससे ट्रैवल करते हैं। लोगों के बीच बिना कहे एक अनकहा नियम, जिसे फॉलो किया जाता है।
जब भारतीय कारोबारियों की कतारबद्ध फोटो हुई वायरल
साल 2015 में एक फोटो वायरल हुई। उस फोटो में भारत के सारे ही नामी-गिरामी बिजनेसमैन एक बाद एक लाइन में खड़े थे। लाइन में सबसे पहले रतन टाटा फिर मुकेश अंबानी और तीसरे नंबर पर अडाणी खड़े थे। हाल ही में यह दुनिया के सबसे अमीर इंसान भी बने थे। खैर, अडाणी के बाद बाकी बिजनेसमैन भी कतार में थे। मौका था राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सम्मान में आयोजित भोज का। लोगों ने इस फोटो के ट्विटर पर खूब मीम बनाए। यूजर्स ने फनी कैप्शन लिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आठ साल पुरानी यह तस्वीर आज भी लाइन में लगने की किसी बात पर वायरल हो जाती है।
जब बर्गर-कोक के लिए बिल गेट्स लगे लाइन में
साल 2019 में दुनिया के दूसरे सबसे अमीर में शुमार बिल गेट्स बर्गर के लिए अमेरिका के सिएटल में एक रेस्टोरेंट के बाहर लाइन में लगे थे। गेट्स बर्गर के शौकीन हैं। उनकी उस तस्वीर को माइक्रोसॉफ्ट एलुमनी ग्रुप ने शेयर किया था। वो तस्वीर दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी। बिल गेट्स की सादगी पर लोगों ने खूब प्यार बरसाया। 500 रुपए की बर्गर-फ्राई और कोक लिए लाइन में लगे गेट्स को देखकर यूजर्स ने कहा जब आप सच में अमीर होते हैं तो इस तरह से पेश आते हैं।
राजकुमारियों के स्वयंवर में राजाओं की लगती थी लाइन
पुराने समय में हिंदू परंपरा में लड़कियां अपना वर चुनने के लिए स्वयंवर करती थीं। हम सबने सीता, दौपद्री, सावित्री, दमयंती की स्वयंवर की कहानियां खूब सुनी हैं। स्वयंवर के दौरान जो भी राजा वर के तौर पर आते थे वो एक के बाद एक लाइन में ही खड़े होते या बैठते थे। तो हम कह सकते हैं कि हमारे यहां कतार में लगने की परंपरा पुरानी है।
पंक्ति में चलने या लाइन में लगने को लेकर इंसानों से ज्यादा अनुशासन चींटियों में होता है। हम कह सकते हैं कि वो हमसे ज्यादा सामाजिक होती हैं।
लाइन टूटी तो घूमते-घूमते मर जाती हैं चीटियां
आपने चीटियां को लाइन में चलते हुए कभी न कभी जरूर देखा होगा। धुन की पक्की चीटियां धीरे-धीरे अपने काफिले में सरकती रहती हैं। अगर आपने छेड़ा तब भी दाएं-बाएं सरकते लाइन में पहुंचने की कोशिश करती हैं, लेकिन नहीं पहुंच पाई तो भटक जाती हैं। दरअसल, चीटियां देख नहीं सकतीं। वो ग्रुप में एक-दूसरे के पीछे चलती हैं। ग्रुप में सबसे पहले फेरोमोंस नाम का रसायन छोड़ती हुए रानी चींटी चलती है। बाकी चींटियां सूंघकर उस रास्ते को फॉलो करती हैं। लेकिन अगर वो भटकीं तो फिर बंवडर की तरह-तरह गोल घूमने लगती हैं और एक के पीछे एक आत्महत्या करती हैं। उनके भटकने और मरने के प्रक्रिया को ‘डेथ स्पाइरल’ (Death Spiral) कहा जाता है। ये तो हुई चींटियों की बात लेकिन भीड़ वाली जगह पर अगर किसी ने इस अनकहे सामाजिक नियम को तोड़ा तो अफऱा-तफऱी से इंसान भी जान गंवा बैठता है।
सवाल-जवाब को लेकर मशहूर वेबसाइट कोरा Quora पर एक लाइन में लगने वालों के दिमाग में चलने को लेकर एक दिलचस्प सवाल पूछा गया था। कोरा यूजर्स का दिलचस्प जवाब नीचे दिए गए ग्राफिक्स में देखिए।
एक बारीक सी लाइन इंसानों को जानवर से अलग बनाती है
‘होमो सेपियंस’ किताब के लेखक और इजरायल के इतिहासकार युवाल नोआह हरारी इंसान और जानवरों के बीच का फर्क बताते हैं कि कैसे इंसान जानवरों से अलग हैं। इंसानों ने समाज में रहने के लिए खुद को ढाला, जबकि जानवरों ने ऐसा नहीं किया। उदाहरण के तौर पर ‘लाइन थ्योरी’ चींटी, मधुमक्खी और भी कुछ जानवरों में होती है। जैसे चींटिया लाइन से भटककर आत्महत्या कर लेती हैं। वैसे ही मधुमखियों में अगर रानी मक्खी की मौत हो जाए तो उनका छत्ता भी खत्म हो जाता है। यानी इनके पास कोई चुनौती आ जाए तो ये रातोंरात कोई नया तरीका नहीं ढूंढ सकते। जबकि इंसानों के साथ ऐसा नहीं होता। वो अपनी गलतियों से सीखता है और हर सिचुएशन के लिए नए तरीके और नए नियम ईजाद करता रहता है।
ऑनलाइन सिस्टम ने लाइन को सांस लेने की दी मोहलत
आजकल ऑनलाइन रहे बिना किसी का काम नहीं चलता। ऑनलाइन शब्द में भले ही लाइन है, लेकिन इस शब्द ने लोगों को लाइन से मोहलत दी है। अब सब्जी लेनी हो, सिनेमा जाना हो, अस्पताल जाना हो या कहीं ट्रैवल करना हो। हर चीज के लिए ऑनलाइन ऑप्शन मौजूद है। जनता एक क्लिक पर बिना कतार में फंसे और बिना किसी को कोसे अपना काम कर रही है।
लाइन में लगना या लाइन तोड़ना सिविक सेंस की बात
दिल्ली यूनिवर्सिटी की सोशियोलॉजिस्ट अहुजा अग्रवाल कहती हैं कि लाइन में लगना या इसे तोड़ना सिविक सेंस की बात है। अगर कोई लाइन तोड़ता है तो हमें लगता है कि हम क्यों पीछे रहें। वहीं, जब हम भारतीय बाहर जाते हैं तो सारे नियमों का पालन करते हैं। मान लीजिए कि हम किसी शॉप में खड़े हैं और कोई क्यू तोड़कर लाइन में लग जाता है तो शॉपकीपर की तरफ से कुछ नहीं कहा जाता। नियम तोड़ने वालों को अथॉरिटी की तरफ से कुछ नहीं कहा जाता। पावर पोजिशन में बैठ लोग अक्सर नियम को ताक पर रखते हैं। जिससे कि समाज में मैसेज जाता है कि जो पावर में है उनके लिए कोई नियम नहीं है। लोग फिर इसे पावर से जोड़कर देखते हैं। दूसरा कि जब तक हम पर कोई चीज जबरदस्ती न लागू की जाए तब तक हम मानते नहीं। ये मानसिकता की बात होती है।
ग्राफिक्स: सत्यम परिडा
नॉलेज बढ़ाने और जरूरी जानकारी देने वाली ऐसी खबरें लगातार पाने के लिए डीबी ऐप पर 'मेरे पसंदीदा विषय' में 'वुमन' या प्रोफाइल में जाकर जेंडर में 'मिस' सेलेक्ट करें।
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.