हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ऐसी महिलाओं को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया जो अपने काम से आदिवासी क्षेत्रों में महिलाओं को मजबूत बनाने के अलावा देश-दुनिया में भारतीय कौशल का प्रदर्शन कर रही हैं।
इन महिलाओं में पंडवानी गायन को पहचान दिलाने वाली उषा बारले, सिदी समुदाय की हीराबाईबेन, बैगा चित्रकार जोधइया बाई और नागा शिल्पकार नैहुनओ सोरहिए शामिल हैं। इनमें से किसी ने लोक गायन को देश दुनिया में पहुंचाया तो कोई जनजाति महिलाओं को सशक्त बना रही हैं।
7 साल की उम्र से गा रहीं पंडवानी, 12 देशों तक पहुंचाई कला
जब बच्चे हाथ में ठीक से कलम पकड़ना नहीं सीख पाते तब से लोक गायिका उषा बारले ने पंडवानी गायन सीखना शुरू कर दिया था। पांडवों से जुड़े पंडवानी गीतों को पहले उन्होंने अपने फूफा से सीखा। फिर तीजनबाई की शिष्या बनीं। पिछले 45 साल में पंडवानी गायन को उन्होंने इस ऊंचाई तक पहुंचा दिया है कि लोक गायकी का अब तक वे 12 देशों में वे प्रदर्शन कर चुकी हैं।
83 साल की उम्र में नहीं थमे हाथ, कभी परिवार पालने के लिए शुरू की बैगा चित्रकारी
आदिवासी पेंटिंग बनाने के लिए मशहूर जोधइया बाई कभी स्कूल तो नहीं गई, लेकिन कलात्मक हुनर के चलते अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें पहचाना जाता है।
मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल उमरिया जिले के एक छोटे से गांव लोढ़ा में रहने वाली जोधइया बाई 40 साल से भी ज्यादा समय से आदिवासी पेंटिंग्स बना रही हैं। 83 साल की उम्र में भी उनके हाथ कैनवास पर खूबसूरत चित्रों को उकेर रहे हैं। वे प्रदेश की जनजातीय कला को अपने रंगों से सजा कर युवा पीढ़ी को मध्य प्रदेश की बैगा चित्रकारी से रू-ब-रू करा रही हैं। साथ ही विलुप्ति के कगार पर पहुंचने वाली इस चित्रकारी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिला चुकी हैं।
अपने पति की मौत के बाद परिवार पालने के लिए उन्होंने पेंटिंग्स बनाने का काम शुरू किया था। वे अपने आसपास जो भी देखती थी, उसे उकेर देती हैं। उनकी कला ने उन्हें सिर्फ देश तक सीमित नहीं रखा बल्कि उन्हें इंटरनेशनल स्टार बनाया। इटली के मिलान से लेकर फ्रांस के पेरिस तक उनकी पेंटिंग्स प्रदर्शित हो चुकी हैं। इसके साथ ही इंग्लैंड, अमेरिका और जापान जैसे देशों में भी उनकी पेंटिंग्स लाखों लोग देख चुके हैं।
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सिदी समुदाय की महिलाओं को सशक्त करने वाली हीराबाईबेन
हीराबाईबेन इब्राइमभाई को अब चलने में भी मुश्किल होती है लेकिन सिदी समुदाय की महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए हौसला अभी भी युवतियों की तरह कायम है। वे अपने सिदी समुदाय के बच्चों की शिक्षा के लिए मुहिम तो चलाती ही हैं साथ में मजबूर लोगों की मदद करने से भी पीछे नहीं हटतीं।
सोरहिए सैकड़ों नगा महिलाओं को सिखा चुकी हैं पारंपरिक नगा शिल्पकारी
नगालैंड में जनजातीय बुनकर के तौर पर लोकप्रियता हासिल करने वाली श्रीमती नैहुनओ सोरहिए पद्मश्री प्राप्त कर खुद को गोरवान्वित महसूस कर रही हैं। सोरहिए अब तक सैकड़ों नगा महिलाओं (300 से ज्यादा) को पारंपरिक जनजातीय बुनाई में प्रशिक्षित कर चुकी हैं। वे फ्रांस की राजधानी पेरिस में अपने इस हस्तशिल्प का प्रदर्शन भी करके आई हैं।
आनुवंशिक रोग हीमोफिलिया के इलाज को समर्पित डॉ.नलिनी पार्थसारथी
आज हीमोफिलिया पर अपने काम के लिए डॉ. नलिनी पार्थसारथी को राष्ट्रपति मुर्मु ने जो पद्मश्री सम्मान दिया वह उनके 30 साल के उस काम को रिकग्नाइज करता है जिसकी नींव उन्होंने कई दशक पहले डाली थी। डॉ. नलिनी ने जब एक मरीज का इलाज करते हुए उसके हाथ में ड्रिप लगाई तो खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। पता चला कि यह तो हीमोफिलिया रोग है।
इस तरह की बीमारी को डॉ. नलिनी ने नजदीक से देखा और परखा। इसके बाद ही उन्होंने तय कर लिया कि हीमोफिलिया रोगियों की मदद के लिए कुछ कारगर काम करेंगी।
एक दर्जन भाषाओं में सुमन कल्याणपुर ने गाए सुरीले गाने
लता मंगेशकर की तरह सुरीली अवाज वाली सुमन कल्याण पुर को पद्मश्री से नवाजा गया है। 1937 में ढाका (अब बांग्लादेश की राजधानी) में जन्मी और 6 साल की उम्र में परिवार के साथ मुंबई में बसी सुमन ने बॉलीवुड फिल्मों 11 भाषाओं में कई लोकप्रिय गाने गाए। इनमें 'बहना ने भाई की कलाई में', 'ना तुम जानों न हम', 'दिल गम से जल रहा है', 'मेरे संग गा', 'मेरे महबूब न जा', 'जो हम पे गुजरती है' जैसे गाने शामिल हैं।
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