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4500 साल से रेबीज ले रहा जान:मेडिकल साइंस आज तक नहीं खोज सका इलाज, कुत्ते के काटने के 25 साल बाद भी मौत

नई दिल्ली9 महीने पहलेलेखक: मनीष तिवारी
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इसी साल जुलाई में लखनऊ में पिटबुल डॉग ने अपनी बुजुर्ग मालकिन को ही मार डाला। देशभर में यह घटना चर्चा में रही। इसके बाद बीते हफ्ते गाजियाबाद में पिटबुल ने एक बच्चे को नोच डाला, जिससे उसके चेहरे पर 200 टांके लगाने पड़े। फिर पनवेल में डिलीवरी बॉय के प्राइवेट पार्ट पर हमला कर उसे घायल करने वाले जर्मन शेफर्ड नस्ल के डॉगी का वीडियो वायरल हुआ। इसी बीच केरल के कोझिकोड में एक बच्चे को आवारा कुत्ते ने लहूलुहान कर दिया।

ये 4 घटनाएं हम इसलिए बता रहे हैं, क्योंकि सोसाइटी में कुत्ते-बिल्लियां पालने का क्रेज तो बढ़ा है, लेकिन साथ में लापरवाही और असंवेदनशीलता भी बढ़ी है। इस लापरवाही की वजह से होने वाली बीमारी कितनी भयानक और जानलेवा है, उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता।

इस जानलेवा बीमारी का नाम रेबीज है, जिसका वायरस दुनियाभर में हर 10 मिनट में एक व्यक्ति की जान ले रहा है। कुत्ते या बिल्ली के काटने को अगर इग्नोर कर दिया जाए तो ये सीधे मौत का पैगाम बन जाता है। रेबीज होने पर आज तक कोई नहीं बच सका है। एक बार रेबीज हो जाए तो मेडिकल साइंस के पास 4500 साल पुरानी इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है।

दुनिया किस कदर रेबीज के शिकंजे में फंसी हुई है, इसकी गवाही ये आंकड़े दे रहे हैं...

साढ़े चार हजार साल से दुनिया को इस बीमारी का पता है, लेकिन मेडिकल साइंस आज तक इसका इलाज नहीं खोज पाया है। एड्स की तरह रेबीज भी लाइलाज है। इस बीमारी के खौफ का अंदाजा ऐसे भी लगा सकते हैं कि अमेरिका जैसा विकसित देश भी इससे बचने के लिए हर साल अरबों रुपए खर्च करता है।

अंटार्कटिका को छोड़कर धरती के हर हिस्से में रेबीज का वायरस मौजूद है।

इस वायरस ने भारत को भी जकड़ रखा है और हर रोज बड़ी संख्या में लोग रेबीज का शिकार हो रहे हैं...

इस वायरस की एक फैमिली है-लिसावायरस। इस फैमिली में 12 तरह के वायरस हैं, जिनसे रेबीज होता है। कोरोना और एड्स जैसे रोगों की तरह यह बीमारी भी जंगल से निकली, पशुओं को लगी और उनसे इंसानों तक पहुंची।

चतुर आदमी के लिए कहावत है कि सांप का काटा पानी भी नहीं मांगता, लेकिन रेबीज वायरस से संक्रमित कुत्ते, बिल्ली अगर किसी को काट लें और तुरंत इलाज न कराया जाए, तो मरीज वाकई में पानी नहीं मांगता।

वायरस का असर होने के बाद उसे पानी से डर लगने लगता है। हालांकि, लाइलाज होने के बावजूद इसे इंसानों से दूर किया जा सकता है। दुनिया के कई देशों के साथ ही गोवा ने भी रेबीज फ्री होकर एक ऐसी राह दिखाई है, जिससे पेट्स की वजह से हो रहे झगड़े भी खत्म हो सकते हैं। इससे पहले समझते हैं कि आखिर क्या है रेबीज और क्यों इससे बचना है जरूरी।

बात पेट्स की है, तो सबसे पहले जानते हैं कि ऐसे कौन से लक्षण हैं, जिनसे पहचान सकते हैं कि पेट्स को रेबीज है या नहीं...

कैसे असर करता है वायरस

रेबीज का वायरस संक्रमित पशु की लार में रहता है। जानवर जब किसी को काटता है, तो घाव के जरिए यह वायरस शरीर में पहुंच जाता है। यह सेंट्रल नर्वस सिस्टम पर हमला करता है। फिर उसके जरिए ब्रेन और स्पाइनल कॉर्ड तक पहुंच जाता है। इस दौरान 3 से 12 हफ्ते बीत जाते हैं।

कभी-कभी इसमें एक साल या उससे अधिक समय भी लग जाता है। इसे इनक्यूबेशन पीरियड बोलते हैं। इस दौरान किसी तरह के लक्षण नहीं दिखते। लक्षण कितने दिन में दिखेंगे यह वायरल लोड, घाव की जगह जैसी बातों पर निर्भर करता है।

ब्रेन में पहुंचते ही ये वायरस तेजी से बढ़ने लगते हैं। इसके बाद मरीज की हालत बिगड़ जाती है। उसे लकवा मार सकता है, वह कोमा में जा सकता है और आखिर में मौत हो जाती है।

कोई व्यक्ति रेबीज की वजह से जान न गंवाए, इसलिए समय रहते उसमें संक्रमण के लक्षणों को पहचानना बेहद जरूरी है...

25 साल बाद भी लौट सकता है वायरस

रेबीज इतना घातक होता है कि अगर तुरंत इलाज न कराया जाए तो ये अपना असर बाद भी दिखाता है। जिन लोगों में इम्युनिटी अच्छी होती है, उनमें हो सकता है कि रेबीज का असर तुरंत न दिखे, मगर 25 साल बाद भी इम्युनिटी कमजोर होते ही ये लौटकर आ सकती है और जान जा सकती है। ऐसा एक उदाहरण 2009 का गोवा में एक मरीज में मिला था।

रेबीज किन पर करता है हमला

यह वायरस सिर्फ मैमल्स यानी स्तनपायी जीवों को ही शिकार बनाता है। स्तनपायी यानी इंसान, कुत्ते, बिल्ली, बंदर, चमगादड़, घोड़े जैसे वे सभी जीव, जिनमें मैमरी ग्लैंड पाई जाती है। जिनके बच्चे मां का दूध पीकर बड़े होते हैं। इसमें जंगली जानवरों के साथ ही पालतू पशु भी शामिल हैं।

आपके प्यारे डॉगी या कैट रेबीज के वायरस की चपेट में न आएं, इसके लिए हमेशा इन बातों का ध्यान रखें...

वायरस का असर सिर्फ मैमल्स पर लेकिन व्हेल क्यों बची रही

इंसान समेत सभी स्तनपायी जीवों का खून गर्म होता है। अमेरिका की फेडरल एजेंसी 'सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेन्शन' के मुताबिक रेबीज सिर्फ गर्म खून वाले स्तनपायी जीवों को ही संक्रमित कर पाता है। सांप, मछली जैसे ठंडे खून वाले जीवों और पक्षियों पर इस वायरस का असर नहीं होता। हालांकि, समुद्र का सबसे बड़ा जानवर व्हेल मछली भी स्तनपायी जीव है और इसे यह आज तक कभी रेबीज की शिकार नहीं हुई।

अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों हुआ? दरअसल, व्हेल मछली जरूर है, लेकिन उसका खून दूसरे स्तनपायी जीवों की तरह गर्म होता है। उसे रेबीज तब होगा, जब कोई संक्रमित जानवर उसे काटेगा। समंदर में ऐसा हो पाना बहुत दुर्लभ है। हां, नॉर्वे के पास 1980 में एक सील में रेबीज वायरस पाया गया था।

रेबीज से पीड़ित जानवरों का व्हेल तक पहुंचना भले कठिन हो, लेकिन इंसानों में सबसे ज्यादा यह बीमारी फैलाने वाले आवारा कुत्तों की संख्या करोड़ों में है...

72 घंटे में एंटी रेबीज इंजेक्शन बेहद जरूरी, वर्ना नहीं होगा दवा का असर

किसी अनजान या जंगली जानवर ने आपको काटा हो या खरोंच मारी हो, तो डॉक्टर को जरूर दिखाएं। अगर आपने पालतू कुत्ते, बिल्ली को रेबीज का टीका नहीं लगवाया है और वह काट लेते हैं, तब भी डॉक्टर से मिलें। 72 घंटे के भीतर एंटी रेबीज इंजेक्शन लगवाएं। इससे ज्यादा देरी करने पर दवा का असर नहीं होगा।

डॉक्टर सबसे पहले इंसानों या घोड़ों से हासिल की गई रेबीज की एंटीबॉडीज ‘रेबीज इम्यूनोग्लोबलिन’ की डोज देते हैं, फिर 4 हफ्ते के कोर्स वाली एंटी रेबीज वैक्सीन दी जाती है। जिसकी 5 डोज होती हैं। इसकी पहली डोज ‘रेबीज इम्यूनोग्लोबलिन’ के ठीक बाद दी जाती है। बाकी डोज तीसरे, 7वें, 14वें और 28वें दिन दी जाती है।

बात रेबीज के टीके की हो रही है तो यह भी जानिए कि पहले टीके तक पहुंचने का सफर दुनिया के लिए कैसा रहा...

पहले 14 इंजेक्शन लगते थे, अब 5 हो गए, फिर भी जारी है लापरवाही

कुछ साल पहले तक रेबीज से बचाव के लिए वैक्सीन की 14 से 16 डोज तक दी जाती थीं। इतने सारे इंजेक्शन लगवाना मरीजों के लिए काफी तकलीफदेह होता था। बाद में विकसित हुई वैक्सीन न सिर्फ ज्यादा सेफ है, बल्कि इसकी सिर्फ 5 डोज लेने की जरूरत ही पड़ती है। हालांकि, कई लोग इसका कोर्स पूरा नहीं करते और सिर्फ 3 डोज ही लेते हैं। कई बार लोगों को सही जानकारी भी नहीं मिल पाती। वहीं, दूसरी तरफ आज भी लोग कुत्ते के काटने से हुए घाव पर लाल मिर्च, गोबर, कॉफी पाउडर जैसी चीजें लगा देते हैं। यह चीजें रेबीज से तो बचाएंगी नहीं, घाव को और घातक जरूर बना सकती हैं। इसलिए ऐसा करने से बचना चाहिए।

इसलिए अगर कुत्ता या कोई दूसरा जानवर काट ले, तो घाव की सफाई के लिए ये तरीके अपनाएं...

काटने के बाद ये सबसे महत्त्वपूर्ण बात, जिसे जानना जरूरी

जिस कुत्ते, बिल्ली, बंदर या किसी दूसरे जानवर ने आपको काटा है, 10 दिन तक उस पर नजर रखें। अगर वह बीमार दिखे या कुछ दिनों में ही मर जाए तो फौरन अपने डॉक्टर को बताएं। उसमें रेबीज के लक्षण दिखें तो जांच के लिए स्वास्थ्य विभाग के हवाले कर दें।

आंख, नाक, मुंह से भी वायरस जा सकता है अंदर

रेबीज का वायरस जानवर के काटने से हुए घाव, पहले से कटी स्किन और नाक, मुंह, आंख की भीतरी झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) के जरिए शरीर में प्रवेश करता है। इसके लिए जरूरी नहीं है कि घाव गहरा ही हो। बहुत हल्की सी खरोंच भी वायरस को बॉडी में पहुंचा देती है।

आमतौर पर ऐसी हल्की-फुल्की खरोंच नजरअंदाज कर दी जाती है। इससे वायरस को फैलने का मौका मिल जाता है। अगर संक्रमित जानवर की लार आपके किसी पुराने घाव, खरोंच या म्यूकस मेम्ब्रेन के सीधे संपर्क में आता है, तब उसमें मौजूद वायरस से भी इन्फेक्शन हो सकता है।

यह वायरस शरीर के अंदर न चला जाए, इसके लिए ये टिप्स पढ़ें और रेबीज से बचे रहें...

एक इंसान से दूसरे इंसान को रेबीज का कितना खतरा

हवा के जरिए भी रेबीज का वायरस फैल सकता है। अगर हवा में तैरती लार की हल्की बूंदें, जिनमें वायरस मौजूद हो, वह सांस के अंदर जाकर इन्फेक्शन दे सकती हैं। हालांकि, WHO के मुताबिक ऐसा बहुत कम ही होता है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी रेबीज हो सकता है, लेकिन ऐसा केस देखने को नहीं मिला है।

अगर कुत्ते ने आपको काट लिया है, तो रेबीज से बचने के लिए क्या करें, यह बता रहे हैं एक्सपर्ट...

संक्रमित होने से पहले और बाद की दवाएं

कहीं घूमने जा रहे हैं या फिर पशुओं के लिए काम करते हैं, तब रेबीज से बचाव के लिए ‘प्री-एक्सपोजर प्रोफिलैक्सिस’ (PrEP) दवाएं लेनी चाहिए। इसकी 2 डोज रेबीज से 3 साल तक बचाए रखती हैं। किसी संक्रमित पशु के काटने पर ‘पोस्ट एक्सपोजर प्रोफिलैक्सिस’ (PEP) की डोज दी जाती है, जो वायरस के हमले से बचाती है।

यह जान लीजिए कि अमेरिका में रेबीज के सबसे ज्यादा केस कुत्तों के काटने से नहीं, बल्कि चमगादड़ों की वजह से सामने आते हैं...

चमगादड़ों से भी बचकर रहें

2017 में बेंगलुरु के नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज और निमहैंस के शोधार्थियों ने नगालैंड के 6 गांवों में रिसर्च की, जिसमें ये बात पहली बार पता चला कि भारतीय चमगादड़ों में रेबीज के वायरस हैं। 1970 के दशक में नगालैंड के इन गांवों में एकाएक रेबीज का कहर टूटा था। जिसके बाद लोग गांव खाली कर चले गए थे।

भारत में गोवा और दुनिया में अमेरिका ही नहीं, कई देश और जगहें और भी हैं, जहां से रेबीज का नामोनिशान मिटाया जा चुका है...

18वीं सदी में कुत्तों को मारने के लिए जर्मनी, फ्रांस में बना था कानून, अब अमेरिका से गोवा तक पेश कर रहे मिसाल

केरल में कुत्तों के काटने के बढ़ते मामले देख वहां की सरकार अब कुत्तों को मारने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अनुमति लेने की तैयारी में है, लेकिन यह सही उपाय नहीं है। 18वीं सदी में जर्मनी, फ्रांस, स्पेन जैसे कई देशों में कुत्तों के खात्मे के लिए बकायदा कानून बनाए गए, ताकि रेबीज का खतरा कम किया जा सके। हमारे सामने 18वीं सदी के तौर-तरीकों का उदाहरण है तो 21वीं सदी की अमेरिका और गोवा की मिसाल भी है। गोवा में 2013 में ‘मिशन रेबीज’ शुरू किया गया और कुत्तों के टीकाकरण का अभियान छेड़ा। अब इसका असर हमारे सामने है, 4 साल से गोवा में रेबीज का एक भी केस नहीं मिला है। अगर गोवा कर सकता है तो पूरे देश में ऐसा मॉडल क्यों नहीं अपनाया जा सकता?

ग्रैफिक्स: सत्यम परिडा

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