पत्थर, आपके, मेरे या हम सभी के लिए बेजान, कठोर हैं। जिन्हें हम गाहे-बगाहे पैरों तले दबा देते हैं या फिर हाथ में आ जाएं तो नदी में फेंक देते हैं, लेकिन जब इन पत्थरों से इश्क हुआ तो यही मेरा संसार, ब्रेकफास्ट, साज-श्रृंगार सब बन गए। ये शब्द हैं साहित्यकार और प्रस्तर कलाकार अनिता दुबे के।
भोपाल में पली-बढ़ी अनिता दुबे वुमन भास्कर से खास बातचीत में कहती हैं, ‘मेरी मां को पत्थर इकट्ठा करने का शौक था। हम जब भी होशंगाबाद नर्मदा नदी में स्नान करने जाते तो मां वहां से पत्थर बीन लातीं।
मां बनीं प्रेरणा स्रोत
उन पत्थरों को कभी गमले में सजातीं तो कभी किचन के काम में ले आतीं। हम बच्चे पत्थर इसलिए इकट्ठा करते क्योंकि उनसे खेलना होता था। एक बार मां ने एक पत्रिका दी जिसमें इजिप्ट के मोजक कला का काम था। मां ने कहा तुम भी कुछ ऐसा कर सकती हो।
मैंने एक गत्ता लिया और उससे ताजमहल बनाकर रंगीन पत्थरों से उसे सजाया। यह पेंटिंग इतनी सुंदर बन गई कि सब चकित रह गए। लेकिन कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया और कहा कि अरे ये क्या पत्थरों को जोड़कर कुछ बना दिया है!
आवाज पहले ही बुलंद थी
आकाशवाणी में बतौर उद्घोषक तो मैं काम कर ही रही थी। इस बीच बशीर बद्र, एमएफ हुसैन, जावेद अख्तर जैसे कलाकारों से काम की वजह से मिलना हुआ। पेंटिंग का शौक मुझे बचपन से था।
एक तरफ मेरी जिंदगी बतौर उद्घोषक ठीक चल रही थी, लेकिन दूसरी तरफ कला के लिए मैं संघर्ष कर रही थी। कैनवास पर उकेरे चित्रों की तो सभी तारीफ करते, लेकिन जैसे ही पत्थर से कुछ बनाती तो उपहास का पात्र बनती।
शादी से कला को मिला नया आयाम
खैर…एमफिल के बाद मेरी शादी एअरफोर्स के एक अधिकारी से हो गई। एयरफोर्स में सफर बडौदा, अम्बाला, दिल्ली , बैंगलोर, शिलांग, पुणे, जामनगर, बेलगाम से फिर पुणे, भटिंडा और भूटान बार्डर हाशीमारा रहा, इसके साथ ही नथुला पास, तवांग, अंडमान निकोबार भुज नलिया जैसे बहुत सी दुर्गम जगहों से हर बार कुछ अनूठे पत्थर जमा होते रहे।
पति के साथ सातों वचन निभाते-निभाते मैं कला धर्म भी निभा रही थी। जहां पहाड़ी क्षेत्र में हम घूमने जाते या हसबैंड की पोस्टिंग होती, वहां मुझे सबसे पहले पत्थर आकर्षित करते। मैंने क्विंटलों पत्थर जमा कर लिए।
शुरू में हर बार बना मजाक
पेंटिंग बनाकर और ज्वेलरी डिजाइन करके मैं एअरफोर्स शॉप्स, मेले, प्रोग्राम्स में अपनी जगह बनातीं। एक बार मैंने पत्थर से एक और आकृति बनाने की सोची लेकिन फिर मजाक बनाया गया।
बार-बार मजाक ने मुझे पत्थरों से बने चित्रों को बाहर तो नहीं लाने दिया, लेकिन मेरे भीतर की कुलबुलाहट को कोई रोक नहीं पाया। मैं दुनिया के लिए नहीं खुद के सुकून के लिए पत्थरों को संहेजकर कहानी कहने लगी।
पत्थरों से कहने लगी कहानियां
एक बार एक साहित्यकार ने मुझे सलाह दी कि तुम पत्थरों से इतने अच्छे चित्र बनाती हो, इनसे साहित्य क्यों नहीं कहतीं। बस तबसे मैंने पत्थरों पर रंगों के साथ-साथ शब्द भरने शुरू कर दिए। पत्थरों के जरिए महादेवी वर्मा, प्रेमचंद, निराला आदि कवियों के चित्र बनाए।
कहानी, कविता जैसी विधा को पत्थरों से कहना शुरू किया। संगीतकार, खिलाड़ी, कवि कोई भी हो सभी को प्रस्तर कला से जोड़ना शुरू किया। ओलंपिक खेल हुए तो पत्थरों को संजोकर खिलाड़ियों तक अपनी कला पहुंचाई।
पहला कैलेंडर जिंदगी का टर्निंग प्वॉइंट
जिंदगी में टर्निंग प्वॉइंट आया जब 2020 में पहला प्रस्तर कला काव्य कैलेंडर आया। इससे पहले मेरी बेटियों ने मेरी बनाई चित्रकारी बड़े स्तर पर ले जाने के लिए प्रेरित किया। पहले मैं पत्थरों से कहानी बुनकर उसे मिटा देती थी, लेकिन अब मैं उसे संहेज रही हूं।
मैंने गांधी की दांडी यात्रा से लेकर किताबों के कवर तक पत्थरों से ही कहानियां कही हैं। यहां तक कि बीमार पड़ती हूं तो मुझे जानने वाले लोग पत्थर मुझे नाश्ते में लाकर देते हैं और मैं खुश हो उठती हूं। हां, कई बार क्विंटलों पत्थर जमा करने पर घर वालों सें डांट भी पड़ी है, लेकिन क्या करूं। आदत से मजबूर हूं। ये पत्थर नहीं मेरी ऑक्सीजन हैं।
पति हर बार पहले ना ना करते मगर फिर खुद हर पोस्टिंग में ट्रक पर पत्थरों के बक्से चढ़वा देते।
जीता पहला पुरस्कार
पिछले 30 सालों में मैंने दो क्विंटल पत्थर जमा किए हैं। जिनमें से कुछ पत्थर मेरे भोपाल स्थित घर में हैं तो कुछ पुणे में हैं। चूंकि पति एअरफोर्स में हैं तो मैंने एक बार पत्थरों से ही मिसाइल बनाई। पत्थरों से गार्डन बनाया। उस गार्डन को फर्स्ट प्राइज भी मिला।
अब मैं पत्थरों के जरिए रामलीला, होली, दिवाली सभी त्योहार मनाती हूं। कलाकार के साथ-साथ भीतर एक साहित्यकार भी छुपा है तो अब तीन किताबें भी आ चुकी हैं। पत्थरों पर काम करने की वजह से हिंदी श्री पुरस्कार भी मिला है।
अब पत्थरों से इश्क है
अब मैं सभी को यही कहना चाहूंगी कि जीवन में जो आपको करना है बस उसे लगन से करें। जब मैंने प्रस्तर कला शुरू की तो लोगों ने मेरा शुरू में बहुत मजाक बनाया। किसी को पत्थरों से बनी कोई पेंटिंग गिफ्ट भी की तो लोगों ने कहा सस्ते में निपटा दिया, लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
अपने काम में बिना किसी लोभ के लगी रही। मुझे पत्थरों में जान दिखती थी। उनमें शब्द दिखते थे। उनसे मेरी ढेर सारी बातें होती हैं। शायद तभी उन्हें इतने सुदंर तरीके से सजा पाती हूं। अपने मन की बात कह पाती हूं।
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