मर्द होने का मतलब क्या है? कमाना, बीवी पर नियंत्रण करना, आक्रामक होना, सुरक्षा करना, लीडर बनना और जीतना…ये सीख पुरुषों को बचपन से दी जाती है। ये सिखाने का काम हमारा स्कूल, परिवार, स्टेट और धर्म करता है। कहा जाता है कि ‘हमने चूड़ियां नहीं पहन रखीं’ तब हम आक्रामकता को बढ़ावा देते हैं। मर्दानगी और आक्रामक मर्दानगी से केवल महिलाएं प्रताड़ित नहीं हैं, बल्कि पुरुष भी इससे अछूते नहीं हैं। मर्दानगी पुरुषों के लिए कैसे खतरनाक है? बस यही मतलब मैं दुनिया को समझा रहा हूं। ये शब्द हैं सोशल वर्कर और मेंटर सतीश कुमार सिंह के।
मुझे बचपन से सिखाया गया डरना नहीं, पर मैं बहुत डरता था
बनारस के राजपूत परिवार में पले-बढ़े सतीश वुमन भास्कर से खास बातचीत में कहते हैं, ‘बचपन से राजपूत परिवार की मर्दानगी ने मुझे सिखाया कि डरना नहीं है, लेकिन मैं बहुत डरता था। रोना मना था और मुझे कोई मार देता तो मैं खूब रोता। केयर करना मना था और मुझे यही पसंद था। मुझे ये मर्दानगी का पाठ बचपन से चुभता और तभी से ठान लिया कि दुनिया को तो बाद में बदलूंगा पहले अपनी स्थिति बदलूं।
ये लड़ाई मेरे घर से शुरू हुई। मेरे पिता जी जो रिश्ता लेकर आए तो उस दहेज की शादी के लिए मैंने मना कर दिया। इसके बाद परिवार ने मुझे अलग कर दिया। मेरी पढ़ाई बंद कर दी और पैसे देने भी बंद कर दिए।
अंतरजातीय शादी करने पर मुझे पंचायत में बैठाया गया
पिता ने सरकारी स्कूल में शिक्षक की नौकरी लगवाई थी। मैं उसे भी छोड़कर चल दिया। मैं पॉलिटिकल साइंस का विद्यार्थी 1983 में सर्व सेवा संघ के साथ काम करने चल दिया। इसी बीच 1987 में मैंने बनारस में रहकर अंतरजातीय शादी कर ली। मेरी पार्टनर केरल की और मैं बनारस का। इसके बाद ठाकुर परिवार ने मुझे पंचायत में बैठाया। बाप ने मुझे संपत्ति से बेदखल कर दिया। मैं जिस स्कूल में हेड मास्टर था, वहां सभी ठाकुरों ने मिलकर मास्टर बना दिया। मेरे अपने अनुभवों ने मुझे सोशल वर्क करने को प्रेरित किया।
मैं जिस शोषण विहीन और समता आधारित समाज की कल्पना कर रहा था, वो सर्व सेवा संघ में रहकर पूरी नहीं होने वाली थी। बदलाव की छटपटाहट में मैंने 1992 में नैनीताल में चिराग संस्था में काम किया। यहां काम करते-करते समझ में आया कि हम महिलाओं के सशक्तिकरण की बात तो कर रहे हैं, लेकिन उनकी भूमिकाओं में बदलाव नहीं आ रहा है। भूमिका मतलब महिलाओं का अपने शरीर पर नियंत्रण, कमाई पर नियंत्रण। कमाई पर नियंत्रण तो नहीं बदला, मगर इस पर वर्कलोड ज्यादा बढ़ गया।
कमला भसीन से मिलना लाइफ का टर्निंग पॉइंट
मेरी लाइफ में टर्निंग पॉइंट तब आया, जब मैं 1997 में स्त्री अधिकारों की पैरोकार स्त्रीवादी दिवंगत कमला भसीन से मिला। कमला भसीन ने मुझसे कहा कि जेंडर पर जो तुम्हारी समझ है और जो तुम्हारी तड़प है कि तुम भेदभाव के खिलाफ काम करना चाहते हो तो तुम पुरुषों के साथ क्यों नहीं काम करते।
पुरुष संगठन कहां हैं, ये मैंने पूछना शुरू किया
साल 2000 तक मैं जेंडर की कई ट्रेनिंग कर चुका था और इन प्रशिक्षणों में देखा कि प्रशिक्षण लेने वाली ज्यादातर महिलाएं ही हैं। जेंडर मतलब महिलाओं का नहीं, यह बात समझाने के लिए मैंने काम किया। जब मैं महिला हिंसा पर काम कर रहा था, तब भी पत्रकार आकर पूछते थे कि महिला संगठन कहां हैं? ये बात मेरे मन में खटक गई और फिर मैंने पूछना शुरू किया कि पुरुष संगठन कहा हैं?
जब पुलिस के पास जाते तो वे पूछते महिला संगठन कहां हैं। तब मैं फिर कहता-पुरुष संगठन क्यों नहीं बुलाए जाते। मैंने पूछना शुरू किया कि क्या महिलाओं ने विरोध करने का ठेका ले रखा है? हिंसा का मुद्दा क्या केवल महिलाओं का मुद्दा है? यहां से मैंने और सवाल उठाने शुरू किए- जेंडर समानता में पुरुष कहां, महिला हिंसा को रोकने में पुरुष कहां हैं? महिला हिंसा समाज का मुद्दा है, तो समाज के लोगों को उठना पड़ेगा।
अब पुरुषों के लिए बनाया संगठन
2002 में मेंस एक्शन फॉर स्टॉपिंग वॉयलेंस अंगेस्ट वुमन (मासवा) नामक एक संगठन बनाया। संगठन ने मांग रखी कि ‘पुरुष संगठन कहां हैं।’ अब तक मुझे समझ आने लगा कि वुमन एम्पावरमेंट का हमारा सपना बहुत सीमित है। दूसरा, जेंडर समानता में केवल महिलाओं को ट्रेंड करने का मतलब ये है कि महिलाएं ही प्रॉब्लम हैं? जबकि हमारा निष्कर्ष था कि परेशानी पुरुष हैं। इसके बाद हम लोगों ने नारा दिया कि अगर पुरुष प्रॉब्लम का हिस्सा हैं तो उन्हें सॉल्यूशन का हिस्सा भी बनना पड़ेगा।
पितृसत्ता पढ़ाती है मर्दानगी का पाठ
मैंने पुरुष को यह कहकर जोड़ना शुरू किया कि आप तय कीजिए कि आप प्रॉब्लम का हिस्सा बनना चाहते हैं या सॉल्यूशन का। इस काम से निकला कि अगर हमें पुरुषों के साथ काम करना है और हिंसा के मूल स्वरूप को समझना है तो पितृसत्ता पहला कारण समझ आया और यही पितृसत्ता समझाती है कि दुनिया के पुरुष महिलाओं से बेहतर हैं। इसलिए उनको महिलाओं पर नियंत्रण करने का अधिकार है या महिलाओं को नियंत्रित की जरूरत है।
हम लोगों ने सोचा कि अगर पितृसत्ता ऐसी धारणा रखती है तो ऐसे पुरुष तैयार कौन करता है? फिर समझ आया मर्दानगी ऐसे पुरुषों को तैयार करने की कोशिश कर रही है। मर्दानगी सिखाती है कि पुरुष बेहतर हैं, पुरुष बलवान हैं, पुरुष ताकतवर हैं, पुरुष बुद्धिमान हैं, पुरुष शक्तिमान हैं।
अगर पुरुषों पर काम करना है तो मर्दानगी को समझना होगा। ये मर्दानगी पुरुषों के समाजीकरण की प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। कोई भी पुरुष अपने मां के पेट से हिंसक पैदा नहीं होता, वो समाज में आकर हिंसा करना सीखता है। ऐसे पुरुषों को हिंसा न करना सिखाया जाना चाहिए। फिर हम लोगों ने पुरुषों पर काम करना शुरू किया।
मर्दानगी पुरुषों के लिए कैसे खतरनाक?
हमारे समाज में यह धारणा है कि पुरुष अगर कमाता नहीं है तो उसे निठल्ला कहा जाएगा, अगर वो घर में काम करता है और पत्नी की बात सुनता है तो समाज उसे मेहरा, बीवी का गुलाम और पता नहीं क्या-क्या विशेषण देगा। घर में जरा सा समय बिता दे तो घर वाले कहेंगे इसका इलाज कराओ, ये कुछ गड़बड़ है।
अगर किसी पुरुष को कह दिया जाए कि तुम नामर्द हो तो उसको लगता है कि उसकी जिंदगी चली गई। यही सब वजहें है कि पुरुषों ने महिलाओं को घर की इज्जत बना दिया। पुरुषों की पूरी इज्जत महिलाओं के सेक्शुअल रिप्रोडक्टिव ऑर्गन से जुड़े रिलेशनशिप पर टिकी हुई है। कोई महिला अपनी यौनिकता का उपयोग ही नहीं कर सकती। पुरुषों को लगता है कि वे इज्जत के रखवाले हैं और इज्जत महिलाएं तो महिलाओं को जितना जल्दी हो जिसकी अमानत हो उसको सौंप दो। इसके बाद वे जानें और उनका पति जानें। इस वजह से महिलाएं ज्यादा प्रताड़ित होती हैं।
हम सेक्शुअल हिंसक पुरुष पैदा कर रहे हैं
पुरुषों को यौनिकता और कामुकता में फर्क ही नहीं समझ आता है। उन्हें चिंता परफॉर्मेंस की होती है। इस गलत धारणा पर उन्हें बताने वाला कोई नहीं है। इसलिए हम सेक्शुअल हिंसक पुरुष तैयार कर रहे हैं। शादी को हम सुख-दुख का साथी बनाने से ज्यादा परफॉर्मेंस की चिंता बना रहे हैं।
अब मर्दानी ताकत की दवाओं की मांग बढ़ गई है। अगर पुरुष अपनी यौनिकता को इतने संकीर्ण दायरे में रखकर सोचेगा तो वो मानव बन ही नहीं पाएगा। इसीलिए मैं कमला भसीन की बात अक्सर दोहराता हूं कि महिलाएं इसलिए नहीं बच रही हैं, क्योंकि पुरुष नहीं बच रहे हैं। पुरुष हिंसा को जी रहे हैं, उसमें खेल रहे हैं और इस सबका असर महिलाओं पर होता है।
हम बिगड़े या नालायक या हिंसक पुरुषों के साथ काम नहीं कर रहे थे। हम लोग ऐसे पुरुषों के साथ काम कर रहे थे, जिन्होंने हिंसा के खिलाफ मुंह नहीं खोला, वे हिंसा भी नहीं कर रहे थे, लेकिन घर में जो हिंसा हो रही है, उसे बंद नहीं किया।
मासवा के जरिए हमने लोगों से पूछा कि जब आपके सामने हिंसा होती है तो वे अपना मुंह खोलते हैं? हमारा काम बन गया कि पुरुषों को अपना मुंह खोलना पड़ेगा। क्या वे हिंसा के समर्थन में हैं या हिंसा के विरोध में हैं? अगर हिंसा के विरोध में हैं तो चुप रहकर अपनी बात साबित नहीं कर सकते।
पुरुषों को फेल मैनेज करना सिखाया ही नहीं गया और जब वे फेल होते हैं तो सुसाइड कर लेते हैं। जबकि ये काम लड़कियों को बेहतर तरीके से आता है। अगर पुरुष व्यापार में, जॉब में फेल हो गया या पत्नी छोड़कर चली गई तो वे सीधा आत्महत्या के बारे में सोचते हैं। पुरुष रिस्क लेकर अपनी मर्दानगी साबित करते हैं।
मर्द की सही परिभाषा ये है
मैंने महाराष्ट्र के 200 गांवों में करीब दो हजार पुरुषों के साथ काम किया और उनसे पूछा कि मर्दानगी के बारे में जानकर उनको क्या फायदा मिला तो वे कहते हैं,‘ सबसे बड़ा फायदा हमारे इंटिमेट रिलेशनशिप को मिला।
वे अपने रिलेशनशिप को ही एंजॉय नहीं कर पाए। बच्चों के साथ समय बिताना क्या होता है, वे अब समझे, बीवी के साथ सब्जी काटना, साथ खाना खाना, बहुत लोग सोचते थे कि बच्चे हमसे डरने चाहिए, लेकिन अब बच्चे साथ आकर बैठ जाते हैं और उनका मुस्कुराता चेहरा देखता हूं तो पूरी थकान उतर जाती है।
इस तरह पुरुषों के रिश्ते सभी के साथ अच्छे बने। पुरुष अगर महिलाओं को स्वावलंबी बनाकर रखते हैं तो वे पूरे घर की मदद करती हैं। पुरुषों की जेंडर समानता एचीवमेंट से नहीं बल्कि पावर और प्रिविलेज की शेयरिंग से होगी।
हमें पुरुष रोल मॉडल बनाने होंगे
आज मैं कम्प्यूटर, ट्रेनिंग, ऑफिस ऑर्गेनाइजेशन चलाता हूं, लेकिन मैं खेती करना भी जानता हूं, तो मेरे पास कई स्किल्स हैं। मुझे किसी प्रोग्राम में दरी उठाने में कोई झिझक नहीं होती, टॉयलेट धोने में या अपनी गाड़ी धोने में कोई झिझक नहीं होती। मैं खुद को रोल मॉडल मानता हूं।
मैंने अपने लिए काम किया और जिंदगी को एंजॉय किया। हमें रोल मॉडल तैयार करने होंगे। मैं अपने बच्चों के साथ समय बिताता हूं। बीवी के साथ बैठकर समय बिताता हूं, बच्चों के कपड़े बदलता हूं और ये सब करने में मुझे शर्म नहीं है। जो पुरुष पर्दे के पीछे घर के काम करते हैं उन्हें वे पर्दे हटाने पड़ेंगे और यह बदलाव किसी एक पुरुष से नहीं, बल्कि पुरुषों के समूह से आएगा। पुरुषों को सुनने वाला और सुनाने वाला बनना पड़ेगा। तभी वे बदल पाएंगे। अब मैं किसी संगठन के साथ नहीं जुड़ा हूं। अब मैं मेंटर हूं।
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