मेरा नाम कीर्ति पूनिया है। मैं बिजनेस वुमन हूं। वैसे तो जयपुर से हूं, लेकिन पिछले 15 साल से मुंबई में रह रही हूं। मेरे पापा आर्मी में थे तो 13 अलग-अलग शहरों में रही। आज मैं अपने काम के जरिए पर्यावरण को बचाने में जुड़ी हुई हूं।
इसके लिए मैंने अपनी एक कंपनी खोली है जो इस्तेमाल किए हुए कपड़ों को दोबारा बेचती है। पृथ्वी को बचाने के लिए यह बहुत जरूरी है। फैशन बहुत बड़ी इंडस्ट्री है और दुनिया में इससे 10% कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के बाद जॉब की
मेरा मानना है कि कुछ भी करो लेकिन उसे अच्छे से करो। मैंने सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। 3-4 साल तक इस फील्ड में जॉब भी की।
इसके बाद मुझे 'ओखई' नाम की एनजीओ के साथ बतौर सीईओ काम करने का मौका मिला। यह संस्था महिलाओं के लिए काम करती है।
एनजीओ के जुड़कर बहुत कुछ सीखा
'ओखई' ने गांव की महिलाओं को रोजगार दिया। यह काम गुजरात के गांवों से शुरू हुआ। आज इससे भारत के अलग-अलग राज्यों से करीब 30 हजार कारीगर जुड़ चुके हैं। 2015 में मैं इस संस्था से जुड़ गई थी।
महिलाएं पहले भी अपने गांव से काम कर रही थीं, लेकिन चीजों को लोकल मार्केट में बेच रही थीं। मुझे लगा कि उनके प्रोडक्ट्स को पूरे देश में बेचा जा सकता है। मैंने उनके प्रोडक्शन और डिजाइन में बदलाव किए और वेबसाइट बनाई जिसके जरिए उनके सामान को हर जगह बेचा जाए। इससे उन सभी महिलाओं की आय बढ़ी जो घर पर रहकर एंब्रॉयडरी करती थीं।
हर तरफ गंदगी देखकर बहुत दुख होता था
मैंने कभी नौकरी छोड़कर अपना काम करने का नहीं सोचा था। जब मैं गांव में जाकर काम कर रही थी तो पहले के मुकाबले सड़क के दोनों तरफ सिर्फ प्लास्टिक उड़ता दिखता। एक दिन मैं स्विमिंग करने गई तो पानी में दूध की थैली तैर रही थी। यह देखकर बहुत दुख हुआ कि हम अपने पर्यावरण के साथ क्या कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण आज हम बेमौसम बारिश, बाढ़, हीट वेव से लड़ रहे हैं। मैं महिलाओं की सोशल प्रॉब्लम तो दूर कर रही थी, लेकिन मन में कहीं न कहीं पर्यावरण की दिक्कत को दूर करने की बात भी चल रही थी।
फैशन जानती थी इसलिए इसी फील्ड में आगे बढ़ गई
उस समय मैं सोच रही थी कि इस समस्या को कैसे दूर करूं। मुझे फैशन की ही समझ है तो मैंने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाए, क्योंकि फैशन इंडस्ट्री से काफी कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है जो पर्यावरण पर बुरा असर डाल रहा है।
वहीं, मुझे ऐसे कई कस्टमर मिले जिनके कपड़ों के साइज बदल गए थे। वह पतले या मोटे हो गए थे जिससे कपड़े उन पर फिट नहीं हो रहे थे। कई बार कपड़े खरीद लिए लेकिन बाद में रंग पसंद नहीं आया। ऐसे में उनके पास कई कपड़े इकट्ठे हो गए थे जिन्हें वो नहीं पहन रहे।
कुछ ऐसे भी लोग मिले जो अच्छे डिजाइन के कपड़े खरीदना तो चाहते थे लेकिन उनकी कीमत बहुत ज्यादा थी। ऐसे में मुझे आइडिया आया कि अपनी कंपनी खोली जाए जिससे कंस्टमर और पर्यावरण दोनों की दिक्कत दूर हो।
9 महीने पहले खोली कंपनी
नवंबर 2021 को मैंने अपनी कंपनी ‘Relove’ खोली। यह नई टेक्नोलॉजी पर आधारित है जो लोगों को बड़े ब्रैंड्स को कपड़े रीसेल करने का ऑप्शन देती है। अगर आपके घर में ऐसे कपड़े हैं जो आप नहीं पहन रहे, वह आप उस वेबसाइट पर बेच सकते हैं।
‘रीलव’ का मतलब होता है किसी चीज से दोबारा प्यार करना। यह प्यार कपड़ों से भी हो सकता है। कंपनी को ‘Relove’ नाम देने के पीछे 2 वजहें थीं। पहला, यह एक पॉजिटिव शब्द है। दूसरा, यह कि पहले हमारे घर में एक ही कपड़ा कई लोग पहन लेते थे। तो यह शब्द परिवार की ट्रेडिशनल वैल्यू को भी दिखाता है।
इसके अलावा हमने ‘रेस्क्यू’ नाम से भी एक नई टेक्नॉलजी लॉन्च की है जो डिफेक्टिड कपड़ों को फेंकने से बचाती है। इसमें हमने डिजिटल फैक्ट्री आउटलेट खोला है। लोग यहां से पेन के मार्क, गलत धागे या बटन टूटे कपड़ों को खरीद सकते हैं। दरअसल कपड़ों में डिफेक्ट होने से हर साल 10 लाख से ज्यादा कपड़े फेंक दिए जाते हैं। जबकि इनके भी खरीदार मौजूद हैं। ऐसे कपड़ों को खरीदने से काफी हद तक प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
इस बिजनेस आइडिया के पीछे मैंने बहुत सोचा था। दरअसल कॉटन के बीज उगाने से लेकर फैक्ट्री में ड्रेस बनने तक सारी मेहनत और इस वेस्ट को फेंकने से होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोका जा सकता है। आज हमारे साथ 34 कंपनियां काम कर रही हैं।
बचपन से थी फैशन की समझ
मुझे फैशन की समझ बचपन से ही थी। दरअसल जब मैं 10 साल की थी तब मम्मी फैशन डिजाइनिंग की पढ़ाई कर रही थीं। तब मैं उनके साथ उनके होमवर्क में मदद करती थी। उसी समय से मुझे रंग, फैब्रिक की समझ आने लगी थी। मुझे सिलाई और एंब्रॉयडरी करनी भी आती है।
मां जयपुर से हैं तो वहां तो ब्लॉक प्रिंटिंग की समझ हर इंसान को है। मम्मी से मुझे बहुत सपोर्ट मिला है।
वहीं, काम करने में भी मुझे कभी दिक्कत नहीं हुई। दरअसल मेरी सास एक डॉक्टर हैं। उनकी सास भी वर्किंग वुमन थीं। जब कई जनरेशन से फैमिली की महिलाएं वर्किंग हों तो परिवार का साथ आसानी से मिल जाता है। सबसे बड़ा सपोर्ट मुझे मेरे पति का मिला जो मेरे बिजनेस पार्टनर और कंपनी के को-फाउंडर भी हैं।
आसान नहीं था बिजनेस वुमन बनने का सफर
‘रीलव’ की को-फाउंडर बनने से पहले मैं ‘ओकई’ की सीईओ थी। तब मैं 29 साल की थी। यह सफर आसान नहीं था। जब मैं सप्लायर से मिलती तो वे मेरी उम्र को देखकर मुझे गंभीरता से नहीं लेते थे। मेरी टीम में कई लोग मुझसे भी सीनियर थे। जब प्रोडक्ट की कीमत फाइनल करने के लिए मीटिंग में जाती तो लोगों का बर्ताव अजीब होता। ये एक बहुत बड़ा चैलेंज था। ऐसे में मैच्यॉरिटी से काम करना पड़ता है।
बिजनेस लॉन्च किया तो हो गई सरप्राइज
अपना बिजनेस शुरू करने से पहले मुझे थोड़ा डर लग रहा था कि लोग शायद पुराने कपड़े नहीं खरीदेंगे। लेकिन ऐसी दिक्कत नहीं हुई। जैसे ही रीसेल के लिए ड्रेस वेबसाइट पर अपलोड हुईं, तुरंत बिक गईं।
फिर मैंने इसके बारे में स्टडी की तो जाना कि कोविड की दूसरी लहर में कई सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर ऑक्सिजन सिलेंडर के लिए अपने कपड़े बेच रहे थे और लोग खरीद भी रहे थे। स्टडी से पता चला कि आज के युवा पुराने कपड़े खरीदने को बुरा नहीं मानते। उन्हें स्टाइल और कम्फर्ट चाहिए।
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