रोजा लक्जमबर्ग ने कहा था, 'जिस दिन औरतों के श्रम का हिसाब होगा, इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी पकड़ी जाएगी। हजारों वर्षों का वह अवैतनिक श्रम, जिसका न कोई क्रेडिट मिला, न मूल्य। ' हम जब भी श्रम की बात करते हैं तो मर्द का ख्याल आता है। लेकिन औरतें आज भी घर-परिवार संभालने के नाम पर अपना करियर कुर्बान कर रही हैं। कभी ख़ुशी-ख़ुशी तो कभी घर की सुख-शान्ति के लिए। आज की हमारी कहानी है ऐसी ही महिला मंजू प्रभा की। मंजू काफी पढ़े-लिखे परिवार से हैं और खुली सोच की हैं। उनकी शादी भी ओपन माइंडेड फैमिली में हुई। लेकिन जब शादी होकर ससुराल पहुंची तो उनसे उम्मीद की कई कि वो घर संभालें क्योंकि पति बाहर जॉब करने के साथ सोशल वर्क में भी काफी बिजी थी। मंजू ने ख़ुशी से इसे स्वीकार किया और समय के साथ-साथ घर और समाज के बीच अपनी पुख्ता पहचान बनाई।
'परिवार के लिए मैंने 20 साल घर की चारदीवारी में रहना चुना। एक समय मैं बहुत अच्छी वक्ता थी। लेकिन जब कई सालों बाद पति ने एक सामाजिक कार्य के लिए माइक थमाया तो महसूस हुआ जैसे शब्द मुझसे बगावत कर रहे हैं, मेरा गला सूख रहा था और शरीर सन्न था। मैं हैरान थी खुद के इस बदलाव पर। मेरी टीचर ने मुझे हौंसला दिया। आज समाज सेवा में बड़ा नाम है। ' ये कहना है दिल्ली से ताल्लुक रखने वाली मंजू प्रभा का।
'दधीचि देह दान' की उपाध्यक्ष मंजू ने बताया कि उनका परिवार पहले अविभाजित भारत में था, जो स्थान शाहकोट (पाकिस्तानी पंजाब) में चला गया, लेकिन मेरी परवरिश दिल्ली में ही हुई। मैं हमेशा से कूल माइंड लेकिन एक्टिव महिला रही।
कम उम्र से सामाजिक कार्यों में रही सक्रिय
11वीं कक्षा में विवेकानंद केंद्र, शिला स्नारक के फाउंडर एकनाथ रानाडे जी का कैम्प मैंने दिल्ली में योग सिक्षा शिविर के नाम से अटेंड किया। इसके बाद मैं कन्याकुमारी गई। वहां से आकर मैंने दिल्ली में मैंने पढ़ाई के साथ बाल शिक्षा वर्ग और योग शिक्षा शिविर के कैम्प लगाए। काफी कम उम्र में से ही मैं बेहद स्वाभिमानी थी। मेरी फैमिली लोअर मिडिल क्लास से ग्रोथ कर रही थी। लेकिन मेरा मनोबल हमेशा ऊंचा रहा। पढ़ाई में मैं हमेशा ही अव्वल रही। आर्य समाज में मुझे इंटरेस्ट हमेशा से था। मैंने वहां हमेशा से जाती रही। इसलिए सामाजिक कार्यों में मेरा जुड़ाव शुरू से रहा। मैं बीए में थी तब की बात है मेरे द्वारा लगाए गए एक योग कैंप में बहुत सीनियर महिला ने मुझसे पूछा कि- ये सब तो ठीक है लेकिन अभी से बाहर के कामों में इतना बिजी रहोगी तो घर कैसे संभालोगी। मैंने तुनक कर जवाब दिया- आपसे बेहतर संभालूंगी। बाद में मुझे विवेकानंद केंद्र के एक सीनियर व्यक्ति ने टोका तो अपनी गलती और घमंड का एहसास हुआ।
परिवार के लिए छोड़ा सपना
मेरी इंटर कास्ट मैरिज हुई थी। ससुराल वाले शादी के बाद बहू को जॉब के लिए घर से बाहर नहीं जाने देना चाहते थे। मेरे लिए यह बेहद तकलीफदेह था कि मेरी पूरी फैमिली बहुत अच्छे पढ़े-लिखे बैकग्राउंड से हैं और फिर भी उनका मानना है कि बहू बाहर जाएगी तो घर नहीं संभलेगा ।
ससुराल वालों का मानना था कि पति पहले ही नौकरी और सामाजिक कार्यों में इतने व्यस्त हैं, ऐसे में अगर बहू बाहर जॉब करेगी तो घर बिखर जाएगा। मन भारी था लेकिन मैंने बहुत ही ठंडे दिमाग से सोच-विचार कर फैसला लिया कि मैं अपने घर को पहली प्राथमिकता दूंगी।
परिवार से मिला भरपूर प्यार और सम्मान
मैंने फैसला लिया कि बिना पति को परिवार वालों के इस व्यवहार और अपेक्षा के बारे में बताए खुद को घर के लिए समर्पित करूंगी। शादी से पहले मैं सोशल वर्क करती थी। मैंने अचानक से अपना दायरा घर की दीवारों तक समेट लिया ताकि घर की नींव मजबूत कर सकूं। 3 से 4 साल तक मैंने खुद को पूरी तरह परिवार में खपा दिया। पढ़ाई में या किसी भी फील्ड में जब किसी को मेरी जरूरत होती तो मैं उनके साथ खड़ी रही। मुझे भी परिवार ने बदले में भरपूर प्यार और सम्मान दिया।
बच्चों को पढ़ाने के लिए किया BEd, फिर भी अधूरा रहा सपना
मेरे बच्चे जब इंटर कर रहे थे तब मैंने अपने इन-लॉज से स्कूल में एक वालंटियर के रूप में पढ़ाने की इच्छा जाहिर की। मेरे ससुर जोकि रिटायरमेंट के बाद एक स्कूल में सोशल वर्क के लिए बच्चों को फ्री में पढ़ाते थे, उनसे कहा कि मैं भी पढ़ाना चाहती हूं। मेरे ससुर जी ने कहा कि बहू तुम तो PhD और एमफिल हो, बच्चों को पढ़ाने के लिए ये डिग्रियां काम नहीं आएंगी। मैंने बच्चों को शिक्षा देने के लिए पत्राचार से बीएड किया, पर पति की राजनीति में व्यस्तता के कारण मैं स्कूल में अपनी उस योग्यता का इस्तेमाल नहीं कर पाई। मैं बच्चों को शिक्षा नहीं दे पाई।
इसके बाद मेरे पति शाहदरा के MLA बने, मुझे एक बार फिर से सोशल वर्क का मौक़ा मिला। मेरे पति ने 'दधीचि देह दान' समिति की नींव रखी। इसमें हम लोगों को अंगदान के लिए जागरूक करते हैं। आज भी दिल्ली में हमारे साथ 400 वालंटियर की टीम है। हम लोगों को देहदान और अंगदान की पूरी जानकारी देते हैं। लेकिन आज भी जब मेरे परिवार को मेरी जरूरत होती है तो मैंने पहले अपने घर वालों को ही प्राथमिकता देती हूं। मेरे टीम मेंबर्स के लिए मेरा रवैया भी यही है।
'दधीचि देह दान' समिति से अंगदान के लिए कर रही जागरूक
वैसे तो मैं संस्था में उपाध्यक्ष की पदवी पर हूं, लेकिन हम 'दधीचि देह दान' समिति के तहत लोगों को अंगदान का महत्व समझाते हैं और उन्हें जागरूक करते हैं। सोचिए जीवन के बाद आप किसी की जिंदगी में उम्मीद की किरण छोड़ जाएं। हमारी संस्था अंगदान करने वाले व्यक्ति और मेडिकल कॉलेज के बीच में एक पुल का काम करती है। मेडिकल कॉलेज में हम मेडिकल स्टूडेंट्स की पढ़ाई के लिए पार्थिव शरीर की व्यवस्था करवा पा रहे हैं। हमारी संस्था के तहत अभी तक 8 अंगदान हुए हैं। नेत्रदान काफी आसान है और लोग इसके बारे में जागरूक भी हैं। हमारी एक कॉल पर आई बैंक की टीम आकर 15 मिनट में डेड बॉडी का कॉर्निया निकाल कर ले जाते हैं। पिछले 25 सालों से मैं इस संस्था के लिए काम कर रही हूं।
साल में एक बार प्रोग्राम भी करते हैं जिसमें डॉक्टर, धर्मगुरु को भी बुलाया जाता है ताकि लोगों को अंगदान के बारे में समझाया जा सके और यह भी कि मृत्यु के बाद शरीर के दान कर दिए जाएं तो अंतिम संस्कार कैसे हो। इसके साथ ही मैं 'दधीचि देह दान' मैग्जीन की सम्पादक भी हूं। दिल्ली में 5 से 6 जगहों पर अब तक हम दधीचि कथा भी करवा चुके हैं। महर्षि दधीचि मिश्रिख से थे, जहां उन्होंने इंद्र को अपनी अस्थियां दान की थीं वहां आज भी दधीचि कुंड है। हम पदयात्रा करते हुए वहां जाते हैं और साल में दो बार दधीचि कथा करवाते हैं। इसके अलावा वहां भी आसपास के स्थानीय लोगों को अंगदान के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
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