इंडिगो एयरलाइन के एक प्रबंधक ने हाल ही में एक स्पेशल नीड बच्चे को रांची हवाई अड्डे पर विमान में चढ़ने से रोक दिया। इंडिगो के स्टाफ ने घोषणा की कि बच्चे को विमान में चढ़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि वह अन्य यात्रियों के लिए जोखिम पैदा कर सकता है।
नागालैंड में पैदा हुईं सोशल वर्कर नम्रता शर्मा कहती हैं कि इस घटना के बाद मैंने एक पीटिशन डाली, क्योंकि मैं खुद एक कान से सुन नहीं सकती और दिव्यांगों के साथ समाज कैसा दुर्व्यवहार करता है, इसकी पीड़ा समझ सकती हूं। इनके पेरेंट्स को कितना सहना पड़ता है, यह भी समझ सकती हूं।
पहले भी डाल चुकी हूं कई पिटीशन
स्पेशल नीड वाले बच्चों के लिए पहली बार पिटीशन डाली हो यह जरूरी नहीं है। इससे पहले भी जब मैं बैंगेलोर में थी तब एक पिटीशन डाली, जिसमें मांग की कि बैंग्लोर का इकलौता ‘टेक्निकल ट्रेनिंग स्कूल फॉर डेफ इंस्टीट्यूट’, जहां दिव्यांग बच्चे ट्रेनिंग के लिए आते थे, उसे तोड़ा जा रहा था, क्योंकि वहां मेट्रो चलनी थी।
मैंने इस मुद्दे पर पिटीशन डाली और लोगों का अच्छा समर्थन मिला। तब मेट्रो प्रशासन ने उस इंस्टीट्यूट को तुरंत तोड़ने का फैसला आगे के लिए टाल दिया। इसी तरह मैंने ‘पाताल लोक’ फिल्म में नॉर्थ ईस्ट के लोगों के लिए आपत्तिजनक शब्द इस्तेमाल करने के खिलाफ पिटीशन डाली थी।
नॉर्थ ईस्ट के लोगों का बनता मजाक
मैंने शुरू से हाशिए के लोगों के लिए आवाज उठाई है। नॉर्थ ईस्ट के मसले पर इसलिए मुखर होकर बोलती हूं क्योंकि मेरी पैदाइश नागालैंड की है और भाषा नेपाली।
हम गोर्खा समुदाय की सातवीं या आठवीं जनरेशन हैं, लेकिन हमारे साथ भेदभाव अभी भी खत्म नहीं हुआ है। मेघालय से पोस्ट ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई करने के बाद बिहार में नौकरी मिली।
...जब मैं बहरी हो गई
रूरल डेवलपमेंट सेक्टर में मैंने काम करना शुरू किया। नौकरी मिलने के साथ ही मेरा कान खराब हो गया, क्योंकि मैं मेघालय से थी और बिहार की जलवायु बिल्कुल अलग थी। काम का खुमार ऐसा था कि खाने-पीने की चिंती ही नहीं रहती। इसी का हासिल हुआ कि डिहाइड्रेशन की वजह से कान की नसें सूख गईं और मैं डेफ कहलाने लगी।
इसके बाद जो कलिग कभी मेरे साथ बैठते थे, अब साथ तो बैठते लेकिन किसी की बात एक बार में नहीं सुन पाती तो ‘अरे सुन बहरी’ जैसे शब्द सुनने को मिलते और बाद में जोर का ठहाका। इन सभी अनुभवों ने मुझे सिखाया कि मैं एक कान से नहीं सुन पाती तो लोग इतना मजाक बनाते हैं। उन लोगों का क्या होता होगा जो पूरी तरह से दिव्यांग हैं।
मुझे यह बताने में हैरानी होती है कि सोशल सेक्टर में जो लोग महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे हैं वे भी अंध विश्वासों में भरोसा रखते हैं। जब मेरा कान खराब हुआ तो मेरे ही कई साथियों ने तमाम तरह के उपाय बताए, जिनकी मुझे जरूरत भी नहीं थी।
शरीर किसी का भी खराब हो सकता है
लोग मदद करने के नाम पर मजाक बनाने आते। शरीर में कभी भी कुछ भी बिगड़ सकता है, इसलिए जब हम किसी का मजाक बना रहे हैं तो सोच लें कि यह हमारे साथ भी हो सकता है।
इससे पहले भी मैं दलित, आदिवासी महिलाओं के साथ काम करती रही हूं, जिन्हें हाशिए का समाज कहा जाता है। दिव्यांग बच्चे तो सुन, बोल भी नहीं सकते तो यह और भी ज्यादा मार्जिनलाइज्ड लोग हुए। इसलिए तय किया गया कि मुझे इनकी आवाज बनना है।
इन सभी भेदभावों के पीछ वजह हाशिए पर होना है। चाहें डिसएबिलिटी हो, भाषा हो या कम्युनिटी हो…उनके बारे में समाज कम सोचता है।
हमें इंसान बनने की जरूरत
यह दुख की बात है कि हम इंसान होना भूलते जा रहे हैं। इंसान लंबा, नाटा, उसके फिचर्स भी अलग होते हैं, सोच अलग होती है…तो सभी को इंसान मानना चाहिए, उनके साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। दिव्यांग लोग भी पढ़ सकते हैं, घूम सकते हैं। हमें सेंसटिव बनने की जरूरत है।
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