बचपन से ही मन पूजा-पाठ में अधिक रमता। 11 साल की उम्र में मामा कृष्ण के घर वृंदावन घूमने आई थी। तब से यहीं की होकर रह गई। दिन-रात राधे-कृष्ण का नाम जपती। ध्यान करती। परिक्रमा करती। उम्मीद थी कि एक रोज किसी कुंज गली में कन्हैया मिल जाएंगे, लेकिन एक दिन राह में बुढ़िया माई मिल गईं। उन्हें दर्द में तड़पता देखा तो मेरी जिंदगी ही बदल गई। यह कहना है कि बुजुर्ग, विधवा और बेसहारा महिलाओं का सहारा बनने वाली श्यामा दासी। पढ़िए, 85 विधवा मांओं की इकलौती लाडली बेटी श्यामा दासी की कहानी, उन्हीं की जुबानी...
मैं कोलकाता में पैदा हुई। बचपन वहीं बीता। छोटी उम्र से ही मेरा मन पूजा-पाठ में लगता। घर के कामकाज निपटाती। मंदिर की साफ-सफाई, पूजा और आरती में जुट जाती। मेरी छह मौसियां हैं, लेकिन एक भी मामा नहीं। नाना-नानी रहे नहीं। इसलिए हमारा नानी के घर जाना नहीं होता। छुट्टियों में सारे बच्चे मामा के घर जाते, जब मैं भी अपने मामा के घर जाने की जिद करती तो मां कहती- तुम्हारे मामा का नाम श्रीकृष्ण है। वे वृंदावन में रहते हैं। मैं भी यही मानती थी कि मेरे मामा श्रीकृष्ण हैं और वृंदावन में रहते हैं।
मेरे मामा कोई आम आदमी नहीं हैं
साल 2000 की बात है। तब मैं 11 साल की थी। दादी और चाचा दर्शन के लिए वृंदावन जा रहे थे। मैंने भी साथ आने की जिद पकड़ ली, क्योंकि मुझे मामा के घर जाना था। वृंदावन पहुंची तो यहां बांके बिहारी के दर्शन किए। गोवर्धन की परिक्रमा की। सेवा कुंज और निधिवन की आस्था देखी, तब जाकर पता चला कि मेरा मामा तो भगवान है, कोई आम आदमी नहीं। उसके बाद मैंने यहीं आश्रम में रहने की जिद पकड़ ली। गुरु दीक्षा भी ले ली। थक हार कर दादी और चाचा लौट गए।
मैं अपनी बुआ की सबसे ज्यादा लाडली थी। उस वक्त बुआ की शादी नहीं हुई थी। पापा बुआ को साथ लेकर आए ताकि वे मुझे समझाएं और मैं उनके साथ घर लौट जाऊं। लेकिन मैंने बुआ को वृंदावन अपने नजरिए से घुमाया। वे भी यहीं रुक गईं। आखिरकार पापा को अकेले ही कोलकाता लौटना पड़ा। मैं और बुआ सुबह-शाम ध्यान करते। मंदिर में दर्शन करने जाते। हर रोज गोवर्धन की परिक्रमा करते। लगता आज नहीं तो कल कन्हैया मिल ही जाएंगे। इस दौरान, वृंदावन में रहने वाली विधवा मांओं से अपनापन हो गया। कुछ बुजुर्ग और विधवा महिलाओं के साथ परिक्रमा करती। उनसे भक्ति की ढेरों कहानियां सुनती।
कमर-पैर टूट गया, लेकिन अस्पताल ने डिस्चार्ज कर दिया
एक रोज एक बुढ़िया माई नहीं आईं। पता चला कि एक्सीडेंट में उनकी कमर टूट गई है। एक पैर भी टूट गया है। अगले दिन अस्पताल पहुंची तो पता चला कि उन्हें डिस्चार्ज कर दिया गया है। जहां-जहां वह मिल सकतीं, सब जगह ढूंढा, लेकिन कुछ पता नहीं चला। दो-तीन दिन बाद परिक्रमा कर लौट रही थी, तभी किसी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। देखा तो रोंगटे खड़े हो गए। वही बुढ़िया माई थीं। प्यास से उनका हलक सूख रहा था। घाव में चीटियां लग गईं थीं। न उठ सकती थीं, न हिल सकती थीं। राहगीरों की मदद से उनको हॉस्पिटल लेकर पहुंची, लेकिन उनके इलाज के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे।
एक संस्था विधवा और बुजुर्ग महिलाओं के लिए काम करती थी। दौड़कर वहां पहुंची तो उन्होंने कहा कि हम सिर्फ राशन और कपड़े देते हैं। न रखते हैं और न इलाज करवाते हैं। मुझे गुस्सा आ गया। मैं भड़क गई। मेरी आवाज सुनकर वहां भीड़ जमा हो गई। तब जाकर संस्था वाले इलाज कराने को राजी हुए। अब सवाल था कि अस्पताल के बाद माता जी को कहां रखा जाए। मैं तो खुद एक छोटे से कमरे में किराये पर रहती थी। खैर, संस्था व अन्य लोगों से मदद लेकर उन माताजी के रहने का जुगाड़ किया। अब मेरा ध्यान पूजा से ज्यादा उन माताओं पर जाने लगा, जिन्हें बीमारी के वक्त कोई पानी देना वाला भी नहीं था।
इस बीच, उसी संस्था ने अपने यहां काम करने का मौका दिया। मैं संस्था के लिए काम करने लगी। 30 बीमार और असहाय मांओं की देखरेख करने लगी, लेकिन इसके लिए मुझे आजादी नहीं थी। कोई मां बहुत बीमार है, लेकिन डॉक्टर कल आएगा। अनुमति लेने में ही सुबह से शाम हो जाती। थक कर आश्रम छोड़ दिया। इधर, मां-पापा ने कोलकाता छोड़ दिया और दिल्ली में बस गए। मैं उनके पास आ गई। वृंदावन में जानने वालों के कॉल आने लगे कि माताएं तुमको याद कर रही हैं, लेकिन मैं उनके लिए क्या कर सकती थी। मैं तो खुद सिलाई कर और माला बनाकर अपना गुजारा चलाती थी।
मधुकरी करने जाती तो लोग उल्टा-सीधा सुनाते
साल 2015 में मैं वृंदावन लौटी तो मेरी मांएं मुझे ढूंढती हुई आ गईं। बोलीं- जहां तुम रहोगी, हम भी रह लेंगे। रूखा-सूखा खा लेंगे, लेकिन हमारा साथ मत छोड़ बेटा। उसके बाद एक मकान किराये पर लिया, जहां हम सब साथ रहने लगे। गुजर-बसर के लिए हम में से कुछ सिलाई करतीं। माला बनातीं। कुछ मधुकरी (5 घरों में भिक्षा मांगती) करतीं। कुछ मांएं सब्जी मंडी जातीं और वहां सब्जी वाले जो सब्जियां फेंक देते, उनमें से छांटकर बनाने लायक घर ले आतीं। मांओं के साथ रहने का फैसला तो कर लिया, लेकिन वक्त बहुत मुश्किल भरा था। मधुकरी करने जाती तो लोग गालियां देते, उल्टा-सीधा बोलते। कभी मधुकरी में कुछ मिल जाता तो कभी खाली हाथ ही लौटना पड़ता। इस तरह हमारा घर चल रहा था।
भरोसा था- कान्हा की नगरी में भूखों नहीं मरेंगे
मुझे भरोसा था कि कान्हा की नगरी में हम भूखों नहीं मरेंगे। मदद के हाथ बढ़े तो धीरे-धीरे हालत सुधरने लगी। साल 2019 में 'हे राधे करुणामयी पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट' नाम से संस्था रजिस्टर्ड कराई। आज पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली से आईं 85 मांए हैं जिनकी उम्न 50 से 103 वर्ष के बीच की है। इन सबकी मैं लाडली बेटी हूं।
पति के न रहने पर बच्चे कर देते हैं पराया
कोई भी मां अपने बच्चों को छोड़कर आना नहीं चाहती। लेकिन पति के न रहने पर बच्चे ही मुंह मोड़ लेते हैं। रिश्तेदार भी रिश्तेदारी नहीं निभाते। हालात बद से बदतर हो जाते हैं। मारपीट कर घर से निकाल दिया जाता है। जब सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब वे यहां आती हैं। इन मांओं की सेवा करते हुए मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूं। मुझे इनसे ज्यादा प्यार करने वाला परिवार कहीं और नहीं मिल सकता। हम एक-दूसरे के लिए काफी हैं। सरकार से मदद की उम्मीद कर रही थी, इस बीच एक सज्जन व्यक्ति ने हमें अपना घर यानी आश्रम बनाने के लिए जगह दी है। काम चल रहा है, लेकिन अभी वक्त लगेगा।
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