तीन बहनें और एक भाई में मैं सबसे छोटी। जितनी चुलबुली उतनी ही विद्रोही। बचपन से ये तो तय नहीं था कि क्या बनना है, कहां पहुंचना, किस मुकाम को पाना है। पर लड़का-लड़की, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी का भेदभाव समझ आता था।
वुमन भास्कर से बात करते हुए पिंकिश फाउंडेशन की को-फाउंडर शालिनी गुप्ता कहती हैं, ‘यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था। बचपन से ही संघर्ष शुरू हो गया था। मैं एक साल की थी जब पापा गुजर गए।
मां के कंधों पर जिम्मेदारी का आना
मां घर संभालती थीं। दादा-दादी हरियाणा से हैं। आज से 50 साल पहले हरियाणा में पितृसत्ता की जड़ें और मजबूत थीं। मैं दिल्ली में पैदा हुई। यहीं परवरिश हुई। मां भी यहीं से बिलॉन्ग करती थीं।
जब पापा की मृत्यु हुई तो मां के पास दो ऑप्शन थे। या तो वे ग्रैंड फादर के पास चली जाएं या दिल्ली में रहकर अकेले, मुश्किलें झेलते हुए हमें पालें। मां ने दूसरे ऑप्शन को चुना, क्योंकि वे जानती थीं कि वे अपने बच्चों को जैसी जिंदगी देना चाहती हैं, वैसी हरियाणा में रहकर नहीं दे पाएंगी और हमेशा उन्हें दूसरों का मोहताज रहना पड़ेगा।
खुद्दार महिला रहीं मेरी मां
मां बहुत ही खुद्दार किस्म की महिला रहीं। उन्होंने तय कर लिया था कि बेशक ही बच्चों को कम खिला लूं, लेकिन यहीं रहकर इनकी परवरिश करूंगी। मम्मी के मायके वालों ने हेल्प की और ऊपर वाले की दया से मां को पापा की सरकारी नौकरी की जगह जॉब मिल गई।
यहां से नया सिलसिला शुरू हुआ। बड़ी दीदी मुझसे लगभग 10 साल बड़ी हैं, भैया 8 साल बड़े हैं। मेरी बड़ी बहन ने ही मुझे पाला है, क्योंकि मां वर्किंग थीं। शुरुआत से ही हमें एडजस्टमेंट सिखाई गई।
मैं छोटी थी तो मां, दीदी और भैया बारी-बारी मेरा ख्याल रखते। घर और घर में छोटी बच्ची दोनों की सेवा बराबर हुई। अगर घर में कोई नहीं होता तो मुझे कुछ घंटों के लिए मौसी के घर छोड़ा जाता। इस तरह मैं बड़ी हुई।
बचपन से थी विद्रोही
जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी वैसे-वैसे ये समझ आ रहा था कि क्योंकि हमारे फादर नहीं थे तो जैसे किसी को भी अधिकार मिल गया हो कि वे मुझे कोई भी कुछ भी बोल सकता है। इस तरह का व्यवहार मुझे बचपन से ही चुभता था और मैं चुप नहीं बैठ पाती थी।
मां ने हम सभी को बहुत स्वाभिमान से पाला। हम सब पढ़ने में इतने अच्छे थे कि हमें स्कालरशिप भी मिली। जब पढ़ने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंची तो लगा कि जैसे मेरे लिए एक नई दुनिया खुल गई है।
कॉलेज ने दिया एक्सपोजर
नए दोस्त बने, घर से बाहर निकली। बहुत सीखने-समझने-जानने का मौका मिला। कॉलेज में एक प्रोजेक्ट मिला, तब सोशल वर्क की ओर मेरा झुकाव बढ़ा। जब लाइफ में आपकी जिंदगी में कुछ कमियां रहती हैं तो हमें लगता है कि जिन कमियों को हमने झेला है, वे किसी और को न झेलनी पड़ीं, फिर हम ऐसे इंसानों को खोजने लगते हैं, ताकि उनकी मदद कर सकें।
मैंने सीए में भी दाखिला लिया, लेकिन उसे पूरा नहीं कर पाई तो बीएड किया। मां चाहती थीं कि मेरी बेटियों के पास कोई भी प्रोफेशनल डिग्री हो ताकि जो मेरे साथ हुआ वैसी कोई भी स्थिति मेरी बेटियों की जिंदगी में आती है तो इन्हें इतने दुख न झेलने पड़ें।
ससुराल में खुलने-खिलने का मौका मिला
बीएड करते ही एक अच्छे पढ़े-लिखे खानदान में मेरी शादी कर दी गई। हसबैंड डॉक्टर हैं और ससुराल जॉइंट फैमिली। जॉब तो मुझे करने नहीं दिया जाता तो मैंने घर में ही ट्यूशन सेंटर खोला। शादी के बाद दो बच्चे हुए।
बच्चे थोड़े बड़े हुए तो सोशल वर्क का कीड़ा फिर जागा। मैंने बहुत सारी ऑर्गनाइजेशन को ढूंढ़ना शुरू किया। टाइम्स ऑफ इंडिया के टीच इंडिया मूवमेंट में हिस्सा लिया। हफ्ते में दो दिन सरकारी स्कूलों में पढ़ाने जाती। प्रथम ऑर्गनाइजेशन के साथ भी वॉलिंटियर रही। करीब 18 साल मैंने अलग-अलग संस्थाओं में वॉलियंटरशिप की।
शुरू किया बच्चों के लिए स्कूल
मैं जो भी कर रही थी वो पैशन से कर रही थी। मैं बच्चों की जिंदगी में कुछ बदल पा रही थी। एक अच्छा अमाउंट कमा रही थी। ये करते-करते बड़े होते गए। वे भी पढ़ाई में अच्छे निकले। 2009 में मेरी सोसायटी में एक साथी रहती थीं जिन्हें जरूरतमंद बच्चों के लिए एक स्कूल खोलना था।
मैंने भी उनका साथ दिया और उन बच्चों की जिंदगी को बदला जो कभी कूड़ा बीनते थे, गाली देते थे। पांचवी तक के बच्चों के लिए ये स्कूल खुला और फिर इनका सीबीएससी के स्कूलों में दाखिला करवाने और उनकी आगे की शिक्षा का खर्च उठ पाएं उसके लिए डोनर्स ढूंढ़ती।
पीरियड्स पर शुरू किया काम
2016 में अरुण जी से मिली, जो एक संस्था शुरू करना चाहते थे, उसमें वे किसी महिला को चाहते थे। इससे पहले मैं जब स्कूल में काम कर रही थी तब देखा कि लड़कियां महीने में कुछ दिनों के लिए स्कूल नहीं आती थीं। खोज-खबर ली तो पता चला कि पीरियड्स की वजह से वे स्कूल नहीं आतीं। अरुण जी ने जब बताया कि वे एक ऐसी संस्था बनाना चाहते हैं जो पीरियड्स के मुद्दे पर काम करे। तो मेरा मन भी कुलबुलाने लगा।
मेरे दिमाग में भी ये आइडिया पहले से था तो मैंने भी मंथन करने के बाद हां कर दी। इस तरह 2017 में ‘पिंकिश फाउंडेशन’ की नींव रखी गई। अब मैं इस संस्था की को-फाउंडर और नेशनल जनरल सेक्रेटर हूं।
अब मेरी लाइफ का सुबह 7 बजे से लेकर रात का 11 बजे तक का समय इसी फाउंडेशन में सेवा देते निकल जाता है। इस संस्था के जरिए हम महिला की स्ट्रेंथ और डिग्निटी के उद्देश्य पर काम कर रहे हैं।
पीरियड्स पर तोड़ रही चुप्पी
लोग हेल्थ, एजुकेशन पर काम करते हैं लेकिन पीरियड्स पर काम नहीं करना चाहते। बहुत ढका-छुपा विषय माना जाता है। इस मुद्दे पर हाइजीन के बारे में बता रहे हैं। विषय पर टैबू को दूर कर रही हूं। जिस भी जगह पर सैनिटरी नैपकिन की जरूरत होती है, वहां भेजते हैं। 30 लाख से ऊपर फ्री सैनिटरी नेपकिन बांट चुके हैं। लगभग तीन लाख महिलाओं को लाभ पहुंचा चुके हैं। हमारा फोकस पीरियड्स को सामान्य विषय बनाने का है।
ये सब करना इतना आसान नहीं था। मैं इस विषय पर इसलिए इतना मुखर होकर बोल पाती हूं क्योंकि ससुराल मुझे इतना खुले विचारों वाला है। हसबैंड ने हमेशा सपोर्ट किया। अगर आपके पास ऐसे लोग हों जो आपके काम की सराहना करें तो काम करने का जोश दुगुना हो जाता है।
मुझे लगता है अगर हर लड़की को परिवार सपोर्ट करे तो उसे आगे बढ़ने कोई नहीं रोक सकता। वह अपनी जमीन अपने हिसाब से बनाएगी, अपना आसमां खुद चुनेगी, जरूरत है तो बस उसे खुलकर उड़ने की आजादी का मिलने की।
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