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लिखने के लिए इवेंट मैनेजर की अच्छी नौकरी छोड़ी:मेरी पहली किताब बनी बेस्टसेलर, ब्लॉग से मिला राइटर बनने का हौसला

नई दिल्ली14 दिन पहलेलेखक: भारती द्विवेदी
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मेरा नाम पूजा उपाध्याय है। मेरा जन्म पटना में हुआ। बचपन देवघर में बीता। मेरे पापा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में मैनेजर रहे और मां होम मेकर थीं। लेकिन वो एक अद्भूत आर्टिस्ट थीं। आज मैं एक लेखिका हूं। आज के ‘ये मैं हूं’ में आप जानेंगे मेरी कहानी।

मां से सीखा जिज्ञासु होना

मेरी मां कमाल की औरत थीं। उनको हर नई चीज में दिलचस्पी थीं। उन्हें बहुत तरह की पेंटिंग, सिलाई, बुनाई-कढ़ाई आती थी। मैंने अपनी मां को हमेशा किसी न किसी तरह की कला में डूबे देखा। उनके बारे में कहा जाता था कि वो राह चलते देख घर आकर हूबहू डिजाइन बना देती थीं। मैंने सीखने की वैसी ललक अपने जीवन में किसी और भी नहीं देखी। उन्हें अपने से छोटे से भी कोई हुनर सीखते झिझक नहीं होती थी। मैंने अपनी मां से हर नई चीज को सीखने की जिज्ञासा सीखी।

पूजा की कहानी में आगे बढ़ने से पहले किताबों को लेकर जरा अपनी राय देते चलिए…..

पढ़ाई के अलावा क्लासिकल म्यूजिक सीखा

दसवीं तक की पढ़ाई देवघर में ही हुई। वहां पर पढ़ाई के अलावा संगीत को लेकर एक माहौल था। साथ ही मेरी मां को संगीत में दिलचस्पी थी तो उन्होंने मुझे इसकी ट्रेनिंग दिलाई। मैं तीसरी क्लास में थी, जब क्लासिकल म्यूजिक सीखने लगी। दसवीं तक मैंने लगातार क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग ली।

घुमक्कड़ी मेरे परिवार का जरूरी हिस्सा रहा

पापा बैंक में थे। उन्हें हर चार साल पर एक महीने की पेड हॉलीडे मिलती थी। उस एक महीने का हमसब बेसब्री से इंतजार करते थे। जैसे-जैसे वो दिन नजदीक आता हम चारों भारत का नक्शा बिछाकर माथापच्ची करते कि इस बार कहां चला जाए। ये एक ऐसी चीज थी, जिसे हम किसी भी हाल में छोड़ते नहीं थे। उस एक महीने के छुट्टी के इंतजार में हम चार साल मजे में काटते। घूमने के दौरान मम्मी-पापा ने कहा कि हमें अपने अनुभव को डायरी में लिखना चाहिए। फिर इस तरह मेरी जिंदगी में ट्रैवल डायरी की एंट्री हुई।

डायरी से दुनिया को समझने में मदद मिली

मेरे मम्मी-पापा डायरी लिखते थे। हमदोनों भाई-बहन ने भी डायरी लिखना शुरू किया। हम बहुत डिटेल में डायरी लिखते थे। इस वजह से हमें दुनिया को समझने में काफी मदद मिली। इसके पीछे मेरे पेरेंटस के अलावा मेरे हिंदी टीचर का भी हाथ रहा। नियमित डायरी लिखने की सलाह सातवीं क्लास में उन्होंने दी थी। उनका भी यही मानना था कि इससे दुनिया को समझने में मदद मिलती है। बाकी बच्चों को उनकी बात समझ नहीं आई लेकिन मैंने उनकी बात को फॉलो करना शुरू किया। उस दिन से मैं लगातार डायरी लिख रही हूं।

बचपन में ही साहित्य से रुबरू हो गई

मेरे पेरेंट्स को पढ़ने का भी शौक था। इस वजह से मेरे घर में प्रेमचंद, शरतचंद्र, मंटो से लेकर सारे नामचीन लेखकों की किताब होती थी। साहित्य की दुनिया की अच्छी किताब मानी जाने वाली हर किताब मेरे पास थी। मंटो तक को मैंने उस उम्र में पढ़ा, जब शायद उन्हें पढ़ने की इजाजत नहीं होती। दसवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए पापा ने पटना ट्रांसफर ले लिया। इस तरह मैं पटना आ गई। सेंट जोसेफ कान्वेंट में एडमिशन ले लिया।

पहला सपना डॉक्टर बनने का था

मैं पहले डॉक्टर बनना चाहती थी। बारहवीं में साइंस में एडमिशन ले लिया। ऑप्शनल सब्जेक्ट में घर वालों ने मैथ्स दिला दिया। मैं इस बात के लिए क्लियर थी कि मैं चाहे जो बन जाऊं, इंजीनियर नहीं बनना। उस वक्त जिसे देखो इंजीनियरिंग कर रहा था। इस वजह से मुझे वो फील्ड पसंद नहीं रहा। मैथ्स से मुझे डर लगता था इसलिए मैंने अपना नाम काटकर हिंदी में एडमिशन ले लिया। मेरे घर में इतनी आजादी थी कि हम अपने फैसले ले सकें।

घरवालों को लगता हिंदी में नहीं बन सकता फ्यूचर

हिंदी को लेकर घरवालों की राय कुछ अच्छी नहीं थी। उन्हें लगता इसमें करियर का कोई ऑप्शन नहीं है। उस वक्त पड़ोस में कोई दीदी मासकॉम करके प्रोफेसर बन गई थी। फिर घरवालों का लगा ठीक है ये कर लो। पटना वुमंस कॉलेज में मास कॉम के लिए एडमिशन हो रहा था। मैंने कोशिश की और तीन लेवल का एग्जाम देकर एडमिशन मिल गया। उस वक्त वहां मासकॉम की पढ़ाई इतनी एडवांस थी और मुझे इतने अच्छे टीचर मिले, जिनकी वजह से दिमाग खुला। हमें सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं मिला बल्कि असल दुनिया से रुबरू कराया गया। दिल्ली में तीन महीने इंटर्नशिप किया। फिर आईआईएमसी में एडमिशन ले लिया।

नौकरी के लिए मां को मिले ताने

आईआईएमसी से पढ़ाई करने के बाद एक इवेंट कंपनी के लिए काम करने लगी। क्योंकि मुझे काम आता था। मैंने काफी पढ़ाई की थी। लिखना आता था। ऊपर से ट्रेनिंग भी ले रखी थी तो बहुत कॉन्फिडेंस के साथ जाकर इंटरव्यू में कहा कि मुझे 20 हजार की नौकरी चाहिए। अगर काम पसंद नहीं आए तो छह महीने में कम कर देना। मुझे 20 हजार की नौकरी इसलिए चाहिए थी कि किसी जान पहचान वाले ने मेरी मां को ताना दिया थ। उन्होंने कहा था कि क्या फायदा दिल्ली भेजने और इतना पढ़ाने का। मेरी बेटी को तो अभी ही 18 हजार मिल रहे हैं। जब पता चला तो मैंने भी तय किया कि जो हो जाए मुझे 20 हजार की नौकरी चाहिए।

ब्लॉग ने राइटर बनने का कॉन्फिडेंस दिया

मेरी शादी हुई फिर मैं पति के साथ बेंगलुरु शिफ्ट हो गई। वहां मैंने बहुत सारा फ्रीलांस काम किया। एडवरटाइजिंग एजेंसी के लिए भी काम किया। इन सबके बीच मैं अपना ब्लॉग लिखती थी। पहली बार ब्लॉग से परिचय आईआईएमसी में हुआ था। उस समय हिंदी में बहुत कम लोग ही ब्लॉग लिखते थे। 2007 से मैं नियमित रूप से इस काम को करने लगी थी। यहां पर दुनिया के अलग-अलग कोने में बैठ लोग हिंदी में ब्लॉग लिख रहे थे। उनलोगों से जुड़ना, उनका मेरे लिखे पर फीडबैक देना मुझमें कॉन्फिडेंस ले आया। फिर मैंने किताब लिखने का सोची। जैसे महिलाओं के अंदर होता है ना कि उन्हें तीस के पहले बच्चा चाहिए, ठीक वैसे ही मैंने तय किया कि मुझे तीस की होने के पहले अपनी किताब छपवानी है।

लिखने के लिए इवेंट मैनेजर की नौकरी छोड़ दी

मेरी पहली किताब बहुत आसानी से पब्लिश हो गई। जब मैंने सोचा कि अब किताब छपवानी है तो मैंने पेंगुइन से कॉन्टैक्ट किया। उस वक्त वहां एडिटर रेणु आगाल थीं। उन्होंने मुझसे पांच कहानी, किताब का खाका और राइटर का इंट्रो मांगा। मैंने भेज दिया। उन्हें मेरी कहानियां बहुत पसंद आई। बिना किसी बदलाव के उन्होंने उस पब्लिश किया। इस तरह मेरी पहली किताब ‘तीन रोज इश्क’ छप गई। उस वक्त मैं बेंगलुरु में इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में बतौर इवेंट डिजाइनर बहुत अच्छा काम कर रही थी। वहां मैं पूरा का पूरा इवेंट डिजाइन करना, कॉरपोरेट एथंम लिखना, पूरा का पूरा कम्युनिकेशन देखती थी। अपनी जॉब में खुशी थी। फिर मैंने पेंगुइन का कॉट्रैक्ट साइऩ किया। उस वक्त मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ मैंने अपना सारा ध्यान लिखने पर लगा दिया।

बेस्टेसेलर होने की खुशी नहीं शेयर नहीं कर पाती

उस वक्त मेरी लाइफ का बड़ा दुख बच्चा न होना था। 2017 में मेरी पहली किताब बेस्टसेलर हुई। मैं डर के मारे अपने दोस्तों या किसी को भी कॉल करके ये नहीं कह सकती थी कि गुड न्यूज है। क्योंकि पूरी दुनिया के लिए गुड न्यूज का मतलब एक ही होता है। तीस की उम्र में किताब लिख दिया, बेस्टसेलर हो गई थी। लेकिन लोगों की नजर में वो मेरी पहचान नहीं थी। बेंगलुरु में लोग मुझे मेरे काम की वजह से नहीं मेरे रिश्तों की वजह से जानते हैं। फिर सर्किल में ज्यादातर लोग अपनी लाइफ और बच्चों में बिजी थे। उनकी बातचीत का दायरा आर्ट से हटकर बच्चों पर आ गया था।

एक समय में मैं भंयकर आइसोलेशन में आ गई। काफी कोशिश करने के बाद भी मैं कन्नड़ नहीं सीख पाई। मेरे आसपास बात करने के लिए कोई नहीं था। उस वक्त लोगों का सवाल मुझसे ये नहीं होता था कि अगली किताब कब आएगी। बल्कि बच्चा कब होगा ये होता था। खैर, अब मेरे पास जुड़वां बेटियां है। इस बार के बुक फेयर में आठ साल बाद मेरी दूसरी किताब ‘इश्क तिलिस्म’ भी आ गई है।

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