यह सुनने में अजीब लग सकता है पर सच है। लाल चींटी की चटनी खाई जाती है। झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के ट्राइबल इलाके में इसे बड़े चाव से खाया जाता है।
ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ जिले में लाल चींटियों की काफी डिमांड है। सिमलीपाल बायोस्फीयर रिजर्व इन जिलों में फैला है। रेड वीवर एंट को यहां ‘काई’ कहा जाता है।
ओडिशा ने मयूरभंज काई चटनी के GI (ज्योग्राफिकल इंडीकेशन) टैग के लिए आवेदन दिया है। काई चटनी दूसरी चीटिंयों से बनने वाली चटनी से टेस्ट में अलग होती है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में लाल चींटियों से बनाई जाने वाली चटनी को चापड़ा कहा जाता है। इसे बस्तरिया चटनी भी कहा जाता है। चींटियां वीकली मार्केट में बेची जाती हैं।
लाल चींटियों की चटनी खाने से ठंड नहीं लगती। सर्दी-खांसी ठीक होती है। आदिवासी समुदाय के लोग इसे एसिडिटी खत्म करने के लिए भी खाते हैं।
डॉक्टरों का कहना है कि लाल चींटियों में किसी तरह का टॉक्सिक पदार्थ नहीं होता। इसमें भरपूर प्रोटीन, एमीनो एसिड, कैल्शियम, जिंक, आयरन, मैग्निशियम, पोटैशियम और विटामिन B12 होता है।
ये चीटिंया आम, कटहल, पपीता, साल, करंज के पेड़ पर अपना बसेरा बनाती हैं। लोग इन्हें हांडी में बटोरते हैं। 2 से 3 दिनों में चींटियां मर जाती हैं तब इन्हें सील पर पीसा जाता है।
लाल चीटिंयों को लहसुन, मिर्च और नमक मिलाकर रोटी के साथ या ऐसे ही खा लिया जाता है। चींटी में फॉर्मिक एसिड होने के कारण इससे बनी चटनी चटपटी होती है।
ओडिशा के मयूरभंज में 10 से 20 रुपए दौना लाल चींटियां मिलती हैं। ठंड के दिनों में डिमांड अधिक होने से यह 150 से 200 रुपए किलो तक मिलता है।